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EXCLUSIVE : अरविंद पनगढिया जैसे लोगों को हटायें पीएम नरेंद्र मोदी, देसी समझ वाले लोगों की सुनें : गोविंदाचार्य

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक से होते हुए भारतीय जनता पार्टी में महासचिव का पद संभाल चुकेकेएनगोविंदाचार्य पिछले कई सालों से पार्टी से छुट्टी पर चल रहे हैं. वह राजनीति की मुख्यधारा से भले अलग हो गये हों, पर उनकी छवि देसी चिंतक -विचारक की है. उनके पास भारत को देखने-समझने का अपना ‘स्वदेशी’ नजरिया […]

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक से होते हुए भारतीय जनता पार्टी में महासचिव का पद संभाल चुकेकेएनगोविंदाचार्य पिछले कई सालों से पार्टी से छुट्टी पर चल रहे हैं. वह राजनीति की मुख्यधारा से भले अलग हो गये हों, पर उनकी छवि देसी चिंतक -विचारक की है. उनके पास भारत को देखने-समझने का अपना ‘स्वदेशी’ नजरिया है. हाल ही में गोविंदाचार्य से बातचीत की प्रभात खबर डॉट कॉम के कुणाल किशोर ने. उन्होंने आपातकाल पर लालकृष्ण आडवाणी के हालिया बयान और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की दशा व दिशा पर खुल कर अपनी बात रखी. पढ़िए उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :

आपातकाल के वक्त की स्थितियों के बारे में कुछ बताइए?

बांग्लादेश विजय के बाद इंदिरा गांधी को लगा कि वही देश की मसीहा हैं. विपक्ष पस्त हो चुका था, वो भी एकजुट होने के बावजूद. श्रीमती गांधी बांग्लादेश विजय व ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के सहारे सत्ता प्राप्ति के बाद मजबूत होती चली गयीं. इन सबके बीच नेताओं, धन्नासेठों और नौकरशाहों का गंठजोड़ पक्का होता चला गया. लाइसेंस- परिमट-कोटा राज की की स्थितियां परिपक्व हो गयीं. इसी दौरान संजय गांधी का राजनीति में पदार्पण हुआ. नवधनाढ्य व अपराधी लोग युवा कांग्रेस में शामिल होते गये. संजय बिग्रेड बन गयी. यह सत्ता का एक भ्रष्ट आचरण था.

श्रीमती गांधी मान रही थी कि मैंने जिस तरह बांग्लादेश में विजय पायी है, चुनाव जीता है, मैं देश के उद्धार के लिए भेजी गयी हूं. उनके मन में यह भाव पक्का था. ऐसे में सत्ता के द्वारा उच्छृंखलता पर नियंत्रण करने की क्षमता खत्म हो गयी. जो क्षत्रप महत्वपूर्ण बने उन्हें हटा दिया गया. हेमवती नंदन बहुगुणा को हटाया, ललित मिश्र का कद छोटा करने की कोशिश की गयी.

आंदोलनों को देखने की उनकी दृष्टि बदल गयी. वह देखती थीं कि वह भारत का उद्धार करना चाहती हैं और अमेरिका उन्हें सीआइए के माध्यम से आंदोलनों के द्वारा अस्थिर करना चाहता है. इससे उन्हें आत्मवंचना तो हुई पर उनकी लार्जर देन लाइफ, मसीहा की छवि पुख्ता होती चली गयी. इसलिए उन्हें लगा कि सारे ही विरोधों को दबाना चाहिए, नहीं तो वह देश का उद्धार नहीं कर पायेंगी. ऐसी स्थिति में वह वहां गच्चा खा गयीं, जहां जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का निर्णय आ चुका था. अब उनको बचाव करने में दिक्कत आयी.

जेपी आंदोलन बढ़ चुका था, जिसे अराजकतावादी व अमेरिका प्रेरित बताने में एक हद तक इंदिरा गांधी सफल हुईं. लेकिन मध्यस्थता कर रहे लोग दूर होते चले गये, चंद्रशेखर, रामधन, मोहन धारिया, कृष्णकांत जैसे लोग. जबकि नजदीक होते चले गये ओम मेहता, विद्याचरण शुक्ल जैसे लोग. जो उनको सही बात बता नहीं पा रहे थे.

युवा तुर्क, जेपी व इंदिरा जी में सुलह चाहते थे, जबकि इंदिरा जी की कोटरी के लोग इनको समझाने लगे कि वह आपको ही अपदस्थ करना चाहते हैं सांसदों की बैठक बुला कर और अब आप देर नहीं करो. अगर आप आज नहीं कर पायीं, तो कल कभी नहीं कर सकेंगी. यानी 25 जून की तारीख थी, जिस दिन बड़ी रैली हुई और उसी दिन उन्होंने आपातकाल लगाया.

40 सालों बाद आप आपातकाल को कैसे देखते हैं?

इसमें दो बातें हैं. आपातकाल तात्कालिक तौर पर प्रशासन को चुस्त कर सकता है. लेकिन प्रशासन को ऐसे हमेशा तनाव में नहीं रखा जा सकता है. इससे प्रशासन को आंतरिक ताकत नहीं मिलती है.

उस बार भ्रष्टाचार और महंगा हो गया था, आपातकाल के चलते यह मान कर कि काम कठिन है. दूसरा गैरजिम्मेवार हो जाता है. चुस्त प्रशासन के लिए आपातकाल उपयोगी नहीं है. असहमति व विरोध को संवाद से सुलझाना लोकतंत्र की ताकत है. जब लगता है कि हम ही सबकुछ हैं, जैसा इंदिरा गांधी को लगा था, सात्विक रूप से लगा होगा, देश के लिए भले के लिए लगा होगा, ऐसा भी मैं मानता हूं, इसमें मित्र दूर चले जाते हैं, मित्रों को विरोधी और चापलूसों को मित्र मानने का खतरा बढ़ जाता है. जैसा इंदिरा गांधी के संदर्भ में हुआ. यह किसी के साथ हो सकता है. यही बात आडवाणी जी ने कही है.

अधिक संवाद में रहना, विरोधियों को निकट रखना, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय’ का भाव होना चाहिए. यह आदमी तभी कर सकता है जब आदमी स्वयं को मसीहा नहीं माने और विनम्रता स्वभाव में होनी चाहिए.

एक लेख में रामचंद्र गुहा ने नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व व कार्यशैली को इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व व कार्यशैली का एक्सटेंशन मात्र माना है. तो आडवाणी जी का इशारा किधर जाता है?

आपातकाल के संदर्भ में आडवाणी जी की टिप्पणी का परिस्थितिजन्य इशारा नरेंद्र मोदी की ओर ही जाता है. उन्होंने वर्तमान नेतृत्व की ओर इशारा किया है. उससे वह बच नहीं सकते हैं, वह ऑन रिकार्ड है.

भले ही आज वह कहें कि हमने व्यापक संदर्भ में बातें कही थीं. मैं आपको दूसरी तरफ ले जाना चाहता हूं. आज से तीन साल पहले मुंबई/कच्छ के संघ के एक अच्छे कार्यकर्ता, अच्छे स्वयंसेवक, ने मुझसे एक बात कही थी, जिससे मेरे कान खड़े हो गये थे. उसने कहा था- देखिए गोविंद जी, कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं, जिसमें दोष भी गुण लगने लगता है. मैंने पूछा बात क्या है, तो उसने कहा कि नरेंद्र मोदी की छवि गुजरात में तानाशाह की है, लेकिन मैं मानता हूं कि देश को ऐसे तानाशाह की जरूरत है. यह बात अवचेतन में उन लोगों के दिमाग में भी है, जो खुद इमरजेंसी में जेल भुगत चुके थे. अब भगवा आपातकाल लगे तो उनके लिए ठीक है, लेकिन तिरंगा आपातकाल लगा था तो वह गलत था.

यह विभेदकारी दृष्टि ठीक नहीं है. आपातकाल, आपातकाल होता है. आज की स्थिति में आडवाणी कहते हैं कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि जिससे आपातकाल लगने की आशंका को पूरी तरह से निर्मूल किया जा सके. मैं मानता हूं कि अगर जनता जगी रहे, तो उसमें वह सामथ्र्य है कि किसी भी प्रकार की तानाशाही का वह शांतिपूर्ण समाधान कर लेती है.

आडवाणी जी कहते हैं कि कुछ कमियां हैं, जिनके आधार पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि दोबारा आपातकाल नहीं लगेगा. क्या वह संवैधानिक स्थिति की कमी है या आज का राजनैतिक नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है उनके व्यक्तित्व की कमी है?

इन दो स्थितियों के साथ और भी एक कमी है कि विपक्ष का दमदार नहीं होना. आज का विपक्ष इतना दागदार और बिना साख का है कि असफल हो चुका है. उसको अपनी छवि बनाते-बनाते देर हो गयी है.

आप नरेंद्र मोदी के साथ रहे हैं, उनसे मित्रता रही है, व्यक्तिगत रूप से आप उनको क्या सलाह देंगे? आडवाणी जी की बात सुनें या मौन रखें?

मैं यही मानता हूं कि असहमति का अर्थ विरोध नहीं होता. राजनीतिक विरोधी दुश्मन नहीं होते हैं. ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय’- लोकतंत्र में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. संगठन व सत्ता में विश्वास व संवाद की स्थिति बनी रहे. संवाद में अपनी ओर से पहल करने में संकोच नहीं करना होता है, तभी विश्वास संपादित होता है. विश्वास तब संपादित होता है, जब संवाद परिणामकारी, व्यवहारकारी दिखे. नहीं तो संवाद औपचारिकता मात्र रह जाता है.

इन 40 सालों में भारत का लोकतंत्र कितना मजबूत हुआ है?

भारत की पब्लिक बहुत कुछ समझती है. आर्टिकुलेट (अभिव्यक्त) नहीं कर पाती है. समय आने पर अपना रवैया दिखा देती है. लोगों में कॉमन सेंस है, रॉ इंटेलीजेंस बहुत है.

राजनीतिक दलों की स्थिति में कितना परिवर्तन हुआ है, उनकी कार्यप्रणाली व विचारधारा कितनी बदली है?

आज अनुकरणीय नेता नहीं मिल रहे हैं. जैसे उस समय समाजवादी नेता में डॉ लोहिया थे, जनेश्वर मिश्र थे, राजनारायण थे. कांग्रेस में बिहार में भोला पासवान शास्त्री थे, लहटन चौधरी थे, जिन्होंने मुद्दों व मूल्यों पर जीवन में ईमानदारी बरती है. आज राजनीतिक क्षेत्र का बड़ा दोष है, प्रेरणा में प्रदूषण. सामाजिक बदलाव से राजनीति में आये लोगों की तादाद अपवाद रह गयी है.

दूसरा खतरा जो मैं देखता हूं कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 1950 से 1965 तक आजादी के आंदोलन के मूल्य कुछ न कुछ याददाश्त में रहे. उसके बाद 1965 से 1980 तक सत्ता में ‘आया राम गया राम’ का प्रभाव बढ़ा. 1980 से 1995 तक बाहुबल का प्रकोप बढ़ा.

1990 से 2010 तक धनबल का प्रकोप बढ़ा. अब आत्मबल व जनबल का दौर आने वाला है. उसी का पूर्व संकेत है रामदेव, अन्ना हजारे या अरविंद केजरीवाल के आंदोलन. ये आंदोलन अपनी-अपनी जगह पर जाकर अपना योगदान देकर, जैसे नदियां पहुंच नहीं पाती हैं और सूख जाती हैं, वैसी स्थितियां इन आंदोलनों की है. लेकिन समाज का जिस तरह समर्थन इन्हें मिला है, वह इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र अंदर से मजबूत है.

बिहार के संदर्भ में बात करें, तो जो लोग ‘तिरंगा आपातकाल’ के खिलाफ इकट्ठे थे, वह आज अलग-अलग हैं. बिहार में बन रहे नये गंठजोड़ पर क्या कहेंगे?

यह केवल सत्ताकांक्षा से प्रेरित गंठबंधन है. वो बिहार में कांग्रेस के साथ जा रहे हैं, जो गैर कांग्रेसी सरकारों के साथ थे. इनमें मुद्दों व मूल्यों की चेतना का पूरा अभाव हो गया है. ये मानते हैं कि बड़े दुश्मन के खिलाफ एकजुट होना चाहिए. लोकतंत्र में दुश्मनी की बात के बजाय समाज के बदलाव के प्रति अपने नजरिये को ध्यान में रख कर राजनीति करनी चाहिए.

यह गंठबंधन इस बात का प्रमाण हैं कि उद्देश्य ही प्रदूषित हो गये हैं. सत्ता ही सबकुछ हो गयी है. हम किसी एक के लिए नहीं कह रहे हैं. राजनीतिक दल सामाजिक बदलाव का औजार होने के बजाय केवल सत्ताकांक्षा में उलङो हैं. वह सत्ता में उलङो गिरोह की शक्ल पा गये हैं.

आपके पुराने मित्र नीतीश कुमार कहते हैं कि यह बड़ा संघर्ष है. यह देश बचाने का संघर्ष है? इसलिए यह गंठबंधन स्वीकार किया है?

आप गांधी और लोहिया को देखें, तो उन्होंने नैतिकता का ध्यान रखा. मूल्यों व मुद्दों का ध्यान रखा. इसलिए लोहिया का अच्छा संवाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय से था. ज्वाइंट डिक्लेरेशन भी आने वाला था.

ये जिस प्रकार समाजवादी और गैरकांग्रेसी कार्य संस्कृति के उपजे हुए लोग थे, धीरे-धीरे मुझे लगता है कि सत्ता के द्वारा इनकी उस विचार निष्ठा की धार भोथरी हो गयी है. और, इस कारण ऐसी स्थिति आ गयी है. अभी भी ऐसी स्थिति थी कि मुद्दों व मूल्यों के आधार पर सोचते तो ज्यादा दूर तक जाते.

यह सेही की दोस्ती जैसी हो गयी है कि निकट आते हैं तो कांटे चुभते हैं, दूर जाते हैं तो नजदीक आने की इच्छा होती है. समाजवादियों के साथ यह त्रासदी रही है. यह किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है. इससे अराजकतावादी लोगों को ताकत मिलती है. इससे शुभ गठित नहीं होता, क्योंकि केवल सत्ता परिवर्तन से बात नहीं बनती. आगे आप क्या खाका सोच रहे हैं, इसकी स्पष्टता तो रहनी चाहिए.

मैं मोदी जी की सरकार के एक साल के कामकाज पर आपकी टिपप्णी चाहूंगा? एक साल का कामकाज कैसा रहा?

नरेद्र मोदी अब तक के सबसे सक्रिय प्रधानमंत्री सिद्ध हुए हैं. वह अच्छा करना चाहते हैं कि यह नीयत अभी तक तो दिखी है.

लेकिन उनका विकास का विजन, नीतियां व प्राथमिकताएं, जो नीतियां व प्राथमिकताएं अब तक दिखी हैं, उसमें बहुत दोष है. स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, जमीन अधिग्रहण मोदी सरकार की प्राथमिकता है. जबकि यह भारत की प्राथमिकता नहीं हो सकती है. 30-30 हेक्टेयर के, हजार हेक्टेयर के बड़े बड़े फॉर्म हों. कृषि व डेयरी फॉर्म अलग-अलग हो जायें. रैनचेस हो जाये जहां हजारों मवेशी हों. दोष भी नहीं लिया जाये और मांस के रूप में बाहर बेच लिया जाये. डेयरी व कत्लखाने साथ-साथ बढ़ें.

इसलिए वह गो-हत्या की बात नहीं कहेंगे, वह गो-संवर्धन की बात करेंगे. वह मानते हैं कि छोटी जोत अलाभकारी है. उनको लगता है कि 40 करोड़ किसानों को खेती से अलग कर दिया जाये तभी देश आगे बढ़ेगा. वह जिन सलाहकारों के फेरे-झमेले में पड़ गये हैं, उन्हें न भारत की समझ है, न परवाह और न पहचान. उन्हें समझ नहीं है कि 40 करोड़ किसानों को लेकर कहां जायेंगे. उन्हें हिंद महासागर में धकेल तो नहीं सकते हैं?

आज की स्थिति में भूमि व जल का अनुपात विषम है. इसलिए जो जहां है वहीं सम्मानजनक आजीविका मिले. भारत में स्मार्ट सिटी की जगह ग्रामों पर कैसे ध्यान दिया जाये यह नजरिया होना चाहिए था. इसलिए प्राथमिकताएं उलट हैं, इसलिए परिणाम अच्छे नहीं निकलेंगे.

अरुण शौरी का बयान आया कि प्लेटों के आने की आवाज आ रही है, पर खाना नहीं आ रहा है. अस्पतालों में इलाज करने की जगह नहीं है. स्वास्थ्य व कृषि की स्थिति खराब है. आप शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि में मोदी सरकार को कितना अंक देंगे? लोगों के पास नौकरी भी नहीं है?

इन तीनों मामलों में फिलहाल नंबर देने की गुंजाइश नहीं है. जैसे हमलोग के लिए परीक्षा में 16-16 अंक के प्रश्न होते थे, कुल 96 अंक के और फिर चार अंक सफाई का. दिये गये सवालों में छह सवाल हल करने होते थे. चार नंबर इनको (मोदी सरकार) सिर्फ सफाई का दिया जा सकता है.

बाकी कुछ नहीं. अभी तो जमीन पर परिणाम आने बाकी हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया, न्याय और चुनाव प्रक्रि या में धनबल का प्रभाव बढ़ा है. यह पिछले दस साल में सबसे ज्यादा बढ़ा है. इस पर रोक की कोई बात दिखायी नहीं पड़ती है.

बालीवुड के एक हीरो हैं, उनको सजा दी जाती है, उसी दिन जमानत मिल जाती है. जबकि झारखंड के जेलों में लोग पेड़ की डाल काट देने के कारण सालों बंद रहते हैं. फिर समान न्याय की बात का क्या?

ऐसी सरकारों के बावजूद देश अंदरूनी ताकत से चल रहा है. समाज जिंदा है, इसलिए समाज, देश चल रहा है. सत्ता को भी कंधे पर बिठा कर खिलाते-पिलाते चल रहा है. इसका आधार है परिवार, भूमि, मवेशी.

कुछ दिन पहले आरोप लगा था कि तीन लोगों ने भाजपा पर कब्जा कर लिया. नरेंद्र मोदी, अरु ण जेटली व अमित शाह- यही तीनों निर्णय लेते हैं. अब एक नये मोदी, ललित मोदी सामने आ गये हैं. सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे पर नये आरोप लगे हैं? इसकी आंच कहां तक जायेगी?

अब भी मौका है, समय है. भारत की जनता बड़े हौसले व अरमान के साथ यह परिवर्तन लायी है. पहली बार कोई गैर कांग्रेसी दल अपने दम पर बहुमत में आया है, इसलिए मौका है कि विश्वास व संवाद को मजबूत करें.

राजसत्ता और अर्थसत्ता का विकेंद्रीकरण करें. स्मार्ट सिटी के बजाय, गांव किसान, कारीगर व मजदूर को सबसे बड़ा उत्पादक तत्व मानें. अरविंद पनगढ़िया जैसे लोग जो 40 करोड़ लोगों को खेती से हटाने की बात कर रहे हैं, उन्हें सबसे पहले हटायें. देसी जानकार लोगों के चरणों में बैठकर कुछ सीखें, तब भारत की तासीर, तेवर और जरूरत के हिसाब से कुछ बातें बन पायेंगी और प्राथमिकताएं सध पायेंगी.

मोदी सरकार बुलेट ट्रेन चलाने की बात करती है और अभी उत्तर प्रदेश में मुरी एक्सप्रेस ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हुई थी, तो 700 ट्रेनें रद्द कर दी गयीं. ऐसी स्थिति क्यों?

मैं कहता हूं कि बुलेट ट्रेन जब आयेगी तब आयेगी. अभी जनरल बोगियों में आरओ (साफ पानी की मशीन) तो लगा दो. प्लेटफॉर्म पर नल बंद हो जाता है. बोतलबंद पानी के माफिया कमा रहे हैं. छोटी-छोटी चीजों पर विचार करो. सामान्य जनों को पिछले 20 साल में खारिज कर दिया गया है. पहले उनके लिए कुछ हो.

पूरे भारत को गुजरात बनाने की बात कही जा रही है, लेकिन हर राज्य की परिस्थिति, संपन्नता का स्तर व परिवेश अलग है. कैसे यह संभव हो सकेगा?

किसी ने कहा कि मोदी जी भारत को 29 गुणा गुजरात मानते हैं. जबकि भारत में 127 कृषि जलवायु क्षेत्र हैं. अलग-अलग ढंग से ही विचार करना पडेगा. कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी (वाणी). मेरा विश्वास है कि नरेंद्र जी में ऊर्जा है, समझ है, इसलिए पहले अप्रेंटिस करें. यह काम उनके गृह मंत्री करें. अनुभव लें. अभी नरेंद्र जी को खर्च नहीं कर देना चाहिए. संभाल कर चलने की जरूरत है. भारत की विविधताओं से रू-ब-रू होना होगा.

क्या आपकी मोदी जी से बात होती है. वह आपके साथ पार्टी में सचिव व महासचिव रहे हैं?

(बात हुए) हो गया होगा 15 साल. हमें भी जरूरत नहीं पड़ती है. वह अपने काम में व्यस्त हैं और मैं अपने काम में.

आप मोदी जी को कितना सफल मानते हैं?

मोदी जी की नीयत बहुत अच्छी है. वह देश को आगे बढ़ाना चाहते हैं. वह सबसे ज्यादा मेहनत करनेवाले नेताओं में हैं. वह बहुत कुछ सीख सकते हैं. उनमें ये संभावनाएं हैं. उनसे देश को बहुत उम्मीदें हैं. वो उम्मीदें पस्त नहीं हों.

वह सूट उनको पहनना चाहिए था? खबर आयी है कि वह सूट जिसने खरीदा है उसकी जमीन फंसी थी, पास हो गयी. आप भी प्रचारक जीवन से निकल कर आये हैं, वह भी प्रचारक जीवन से आते हैं. क्या कहेंगे?

(हंसते हुए) मैं समझता हूं कि नहीं पहनते तो अच्छा होता. न पहनते, न विवाद होता, न नीलामी होती, और न ही उपकृत किये जाने की खबर आती. यह अविषय अनावश्यक ही विषय बन गया है.

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ भाजपा का सरकार बनाना कितना बड़ा समझौता है?

नितांत गलत है. अनैतिक है. देश के लिए नुकसानदेह है. वह चालाकी कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि कुछ हासिल कर लेंगे, लेकिनमुझेनहीं लगता है. मुङो तो लगता है कि उन्होंने गलत कदम उठा लिये हैं. अगस्त अंत तक आते-आते कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण हो जायेगा.

आपने जब से भाजपा छोड़ी है, तब से पार्टी कितनी बदल गयी है?

(हंसते हुए) एक ही बात कहूंगा कि इ-मेंबरशिप होने लगी है. इतना ध्यान रखना चाहिए था कि पहले पार्टी के संविधान में इसका प्रावधान कर लेते तो ज्यादा अच्छा होता.

भाजपा का भविष्य कैसा देखते हैं?

भाजपा के भविष्य के बारे में सोचता नहीं, लेकिन देश का भविष्य उज्ज्वल मानता हूं. क्योंकि नौजवान पीढ़ी ज्यादा सूचना प्राप्त है. वह हमारे समय की तुलना में तीन तरह की खुमार से मुक्त है : उपनिवेशवाद, भारत विभाजन व सरकार पर निर्भरता. तीन बातों से मुक्त होकर वह अधिक आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही है. देश का भविष्य उनके हाथों में सुरक्षित है.

आपकी जो चिंताएं भाजपा को लेकर थीं, जिसकी वजह से आपने किनारा किया, अध्ययन अवकाश लिया, उन चिंताओं का कुछ निवारण हुआ है?

मैं मानता हूं कि एकात्म मानव दर्शन पर अधिष्ठित कार्यकर्ता आधारित स्वरूप प्राप्त हो. इस लक्ष्य से भाजपा आज कोसों दूर दिखती है. सिर्फ एक और राजनीतिक दल जो सत्ता की आपाधापी में उलझा है.

कोई दल आपको दिखता है, जो सारे धर्म, सारी भाषाएं, सारे क्षेत्र को इकट्ठा लेकर चलने में सक्षम है?

आज स्थिति बहुत चिंतनीय है. आज जो राजनैतिक दल हैं, उसमें कुछ विदेशपरस्त, अमीरपरस्त हैं. कुछ हैं जो भारतपरस्त, अमीरपरस्त हैं. कुछ विदेशपरस्त व गरीबपरस्त हैं. लेकिन देश में राजनीति का वो आकाश खाली है जिसे भारतपरस्त, गरीबपरस्त कहा जा सके. कुछ छोटे-मोटे प्रयास चल रहे हैं. मैं मान रहा हूं कि भारतीय राजनीति में संक्र मण का काल है. अगले 20 सालों में भारतपरस्त-गरीबपरस्त ताकत उभरती भी जायेगी और देश का वही प्रतिनिधित्व करेंगे. बहुत से छोटे-बड़े प्रयोग बहुत जगह हो रहे हैं.

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