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मॉरीशस यात्रा के अनुभव की पहली कड़ी : यातना, पीड़ा से पुरुषार्थ तक

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– हरिवंश – हम अप्रवासी घाट गये थे. भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील के साथ. वह चुपचाप उस घाट को देखती रहीं. मानो अतीत के पन्ने पलट रही हों.इस अप्रवासी घाट में भारतीय इतिहास सोया है और साफ कहें तो हिंदी पट्टी का इतिहास. इसी घाट पर 1834 में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों […]

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– हरिवंश –

हम अप्रवासी घाट गये थे. भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील के साथ. वह चुपचाप उस घाट को देखती रहीं. मानो अतीत के पन्ने पलट रही हों.इस अप्रवासी घाट में भारतीय इतिहास सोया है और साफ कहें तो हिंदी पट्टी का इतिहास. इसी घाट पर 1834 में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों या जहाजियों का पहला बेड़ा उतरा था. तब से लेकर 1910 के बीच 4.5 लाख से अधिक भारतीय मजदूर / जहाजी/गिरमिटिया मॉरीशस आये. आज उनकी संख्या वहां की आबादी की 68 प्रतिशत है. 2 नवंबर 1834 को तब से यह दिन अप्रवासी दिवस के रूप में याद किया जाता है. मॉरीशस में राष्ट्रीय छुट्टी रहती है.
इस घाट पर एक पत्थर लगा है, जिस पर लिखा है-
कुली का आगमन ता: 2.11.1834 और अंत ता: 31.5.1924
उद्घाटन तिथि डॉ रामगुलाम प्रधानमंत्री द्वारा ता: 4.6.1978
वहीं अंगरेजी और हिंदी में अलग-अलग पट्टी लगी है. अंगरेजी की पट्टी पर लिखा है-
द अननोन इमीइग्रेंट्स
हिस्ट्री टर्न ए ब्लाइंड आइ बिफोर हिम.
नॉट विटनेस, हिस्ट्री स्टैंडिंग म्यूट,
टोल्ड हिज फुल स्टोरी,
हि हू फर्स्ट हैड वाटर्ड दिस लैंड
विथ हिज स्वेट एंड टर्न स्टोन इन टू ग्रीन फील्ड्स इन टू गोल्ड.
द फर्स्ट इमीइग्रेंट्स, हि, सन ऑफ दिस लैंड.
हि वाज माइन. हि वाज योर्स. हि वाज ऑवर वेरी ओन.
अभिमन्यु अनंत
(अनजान अप्रवासी
इतिहास ने उससे आंखे मूंद ली,
उसका गवाह नहीं बना, इतिहास यूं ही मूक खड़ा रहा,
अपनी पूरी कहानी सुनायी,
वही जिसने पहले पहल अपने पसीने से इस भूमि को सींचा
और हरे खेतों में पड़े पत्थर को भी सोने में बदल दिया.
पहला अप्रवासी, वह, इस धरती का बेटा.
वह मेरा था. वह आपका था. वह हमारा बिल्कुल अपना था.)
अभिमन्यु अनंत
शायद अंगरेजी का हिंदी अनुवाद, हिंदी पट्टी पर है. पर जाने की जल्दी है. वीवीआइपी विजिट है. हिंदी टिप्पणी नोट नहीं कर पाता. अफसोस है. पर यहां का अतीत दिल-दिमाग पर छा जाता है. याद आता है 8-9 वर्षों पहले सूरीनाम में सागर के उस तट पर खड़ा रहने का दृश्य, जहां भारतीयों के पहले जत्थे को लेकर पहला जहाज आया था. वहां भी ऐसे ही छोटे-छोटे घाट. यहां घूमते हुए मुझे अपने पहले संपादक डॉ धर्मवीर भारती की मॉरीशस यात्रा के चार बड़े अंश याद आये. हालांकि उनके मॉरीशस अनुभव या पूरा लेख ही अत्यंत पठनीय और श्रेष्ठ है.
यहां भारत से इस बात का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था कि वह द्वीप इतना सुंदर है, इतना प्यार भरा है. दक्षिणी तट का शांत, कहीं अंगूरी, कहीं धानी, कहीं फीरोजी, कहीं मंदिर के पुराने पवित्र काई जमे पोखरों जैसे रंगवाला सुहावना समंदर, द्वीप को चक्र की तरह घेरे हुए लहरें उछालती प्रवाल रेखाएं और उत्तरी तट का गहरा नीला और चट्टानों से टकराकर फेन उगलता विक्षुब्ध महासागर-गाढ़ी काली रात में ज्वालामुखी के शून्य वृत्ताकार क्रेटर पर खड़े होकर सचमुच आकाश छूने और तारे तोड़ लाने का अहसास. नीले धुंध में ढके पहाड़, मीलों फैले गन्ने के खेत, चीड़ के जंगल, पानी की लहराती झीलें, सारे द्वीप में हर सड़क पक्की, छोटे-छोटे कलात्मक कॉटेज, शामारेल की वह रहस्यमयी रंगबिरंगी धरती और पापिलेमूस के थालीदार पत्तोंवाले शतदल कमल और सैकत तटों के जादू रेखाओं वाले शंख और चीड़ वनों के बारहसिंगे.
अचरज होता है कि इस छोटे से द्वीप को विधाता ने कैसे प्रेरित क्षणों में गढ़ा होगा. कौन सा देश है दुनिया में जहां प्रकृति ने इतना सौंदर्य बाहर बिखेरा हो और इतना भावभीना प्यार लोगों के हृदयों में. ये दो आयाम हैं, इस इंद्रधनुषी द्वीप के आंतरिक और बाहृय सौंदर्य के.
लेकिन एक तीसरा आयाम और है, जिसके बिना इस द्वीप की कहानी अधूरी रहती है. वह आयाम प्रत्यक्ष नहीं है. अंतर्निहित है, पर एक बार जान लेने के बाद वह भी इस इंद्रधनुष की अदृश्य प्रत्यंचा की तरह हर क्षण इस यात्रा में मन में टकराता रहा. वह आयाम है, उस अभागे इतिहास का, जो इस सुंदर द्वीप के इन प्यार भरे लोगों के पूर्वजों की दुखद नियति से जुड़ा रहा.
आज से सौ, डेढ़ सौ साल पहले चंद फ्रांसीसी और अंगरेज उपनिवेशवादी मालिकों द्वारा इन भारतीयों के पूर्वज धोखाधड़ी से शर्तबद्ध कुलियों के रूप में पकड़ कर इस द्वीप में लाये गये थे. तब यहां ये खुशनुमा खेत नहीं थे, ये सड़कें नहीं थीं, जंगल विषैली झाड़ियों, नुकीली चट्टानों, घातक नागफनियों, और रोगाणु फैलानेवाले मच्छरों, डांसों और बिच्छुओं से भरे पड़े थे. आरामतलब फ्रांसीसी और अंगरेज उनमें पांव रखते डरते थे और गुलाम बना कर पहले लाये गये अफ्रीकी क्रियोल अनुशासनबद्ध नहीं थे. इस विश्वव्यापी उपनिवेशवादी पैशाचिकता के विरुद्ध सबसे बड़ा विद्रोह किया था, भारत में हिंदी प्रदेश के बहादुर निवासियों ने, क्योंकि उनकी मातृभाषा हिंदी लल्लो-चप्पो और खुशामद की नहीं, वरन अक्खड़ आत्माभिमान की भाषा रही थी. वह विद्रोह सबसे ज्यादा चला था, वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में भोजपुर प्रदेश में और विद्रोह के असफल हो जाने के बाद अंगरेज सबसे कठोर दंड उसी हिंदी प्रदेश को देने पर तुले थे.
वहां के गृह उद्योग बरबाद कर दिये गये, खेत रौंद डाले गये, गांव के गांव उजाड़ दिये गये और जब वहां का निवासी आश्रयहीन होकर भटकने लगा, तब उन्हें फुसला कर, धमका कर, धोखा देकर, लालच दिखा कर, कभी-कभी जबरदस्ती उड़ा कर जहाजों में ठूंस दिया गया और कलकत्ता से इन बेबस गुलामों के झुंड पोर्ट लुई पर लाकर उतारे गये और जानवरों की तरह उन्हें काम में झोंक दिया गया. आज भी वे पत्थर की सीढ़ियां, वह नहाने का हौदा, वे कोठरियां सुरक्षित हैं, जहां उन्हें सैकड़ों-हजारों की संख्या में घास- पात की तरह ठूंस दिया जाता था.
हमने वह स्थान बाद में देखा, पर यह पहले से पढ़ा हुआ इतिहास द्वीप पर उतरने के साथ ही, एक अदृश्य प्रत्यंचा की तरह मन में झनझनाने लगा था. यह मीलों लंबा गन्ने का सुहावना खेत-इसमें कितने भारतीय कुलियों को कोड़ों से मार-मार कर गड्ढे खोद कर गाड़ा गया होगा?
यह सुहावना नीले फूलोंवाला विशाल वृक्ष, इसमें कितने कुलीन भारतीय म्लेच्छ फिरंगी के हाथों अपमानित होकर फांसी लगा कर मर गये होंगे? पुराने लोगों ने बताया था कि शाम होते ही कोई घर से नहीं निकलता था, क्योंकि फांसी लगा कर मरे हुए कुलियों की प्रेत आत्माएं फंसियारा बन कर, झील में डूबे कुलियों की प्रेतात्माएं पनडुब्बे बन कर शाम होते ही तांडव करने लगती थीं. आज भी उनके जीवन पर उस इतिहास की एक खौफनाक छाया अनजाने ही बैठी हुई है. इतने सुहावने मॉरीशस द्वीप की बहारदार शामें किस कदर उदास और सूनी होती हैं-वहां अब भी शाम होते ही द्वीप की सारी चहल-पहल अकस्मात मर जाती है.
उस पूरे द्वीप में गन्ने के हजारों खेतों के बावजूद किसी को गन्ने के रस की एक बूंद पीते नहीं देखा. क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी जिस गन्ने को वे अपना खून-पसीना एक कर उगाते थे, उसका एक टुकड़ा चूसने पर, उनके हाथों और जबड़ों को दो शहतीरों के बीच कस कर तोड़ दिया जाता था. आज वे भूल चुके हैं कि गन्ने का रस मीठा होता है, ताजगी देता है. गला सूखने पर पिया जा सकता है. उनकी प्यास इतिहास की यंत्रणाओं ने सूखा दी है.
इतिहास की यह कड़वी झनझनाहट कभी-कभी बड़े बेमौके मेरे मन को झकझोरने लगती थीं. आज वहां के भारतीय परिवार समृद्ध हैं, सुशिक्षित हैं, देश-विदेश के अनुभव लेकर आये हैं. फ्रेंच, क्रियोल, अंगरेजी में निष्णात हैं. किसी सेमिनार में कोई अभी-अभी फ्रांस में शिक्षा पाकर या अमेरिका में अध्ययन करके लौटा हुआ भारतीय मॉरीशन बोल रहा है और मेरा मन है कि सौ साल पहले लौट गया है.
इसके पूर्वज आरा, शाहाबाद, आजमगढ़ किस जिले के किस गांव के कुलीन किसान रहे होंगे? किस मेले-त्योहार में दलालों ने मिल कर उन्हें समझाया होगा कि मरिश द्वीप में सोना ही सोना भरा है? जाओ और थैली भर लाओ, कैसे कलकत्ते गये होंगे? किन सपनों के साथ? और जहाज पर चढ़ते ही उनकी मुश्कें बांध दी गयी होंगी, उन्हें अंधेरे तेल भरे तहखाने में धकेल दिया गया होगा, द्वीप पर उतार कर उन्हें कोठरी में डाल दिया गया होगा, किसी फ्रांसीसी मालिक ने उन्हें खरीदा होगा.
एक बोरी पहनने, एक बोरी बिछाने को दी गयी होगी, कोड़ों, ठोकरों, गालियों के साथ. वे अपने गांव को कैसे याद करते होंगे. क्या अर्थ रहा होगा उनके लिए, इन झरनों, झीलों, पहाड़ों, सौंदर्य भरे समुद्र तटों का. जब उन्हें कोड़े पड़ रहे होंगे, तो क्या वैसा इंद्रधनुष इनके खेत पर भी उगा होगा, जैसा मेरी राह पर उग आया था.
लेकिन अगर हिंदी भाषियों का यह इतिहास केवल इस अत्याचार के समक्ष आत्मघात का इतिहास होता, तो आज मॉरीशस मॉरीशस न होता और मुझमें उसकी कथा सुनाने की उमंग न होती. इन दानवी अत्याचारों के समक्ष गुलामी के इस सबसे शर्मनाक दौर में इन भारतीयों ने अनथक श्रम और निष्ठा का परिचय दिया.
जिस प्रकार चट्टानों, नागफनियों, जहरीली झाड़ियों, डांसों, बिच्छुओं, फ्रांसीसी और अंगरेज उपनिवेशवादी राक्षसों से भरे द्वीप को आज संसार का सबसे सुहावना द्वीप बना दिया, वह तो अपनी जगह एक करिश्मा है ही, पर उन्होंने जिस तरह गुलामी की कड़ियों में पोर-पोर जकड़े हुए होने पर भी अपनी आत्मा को मरने नहीं दिया, अपनी संज्ञा को विस्मृत नहीं होने दिया, अपनी भारतीयता को मरने नहीं दिया, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को जितनी विचित्र स्थितियों में कठिन प्रयासों से जिंदा रखा, वह किसी भी जाति के लिए गर्व से सिर ऊंचा करनेवाली उपलब्धियां हैं.
उनकी कोई जाति-पांति नहीं रहने दी गयी थी. उनको नंबर बोल कर किसी व्यक्ति को किसी भी औरत के साथ रहने के लिए विवश किया गया था. एक स्त्री को बारह-बारह व्यक्तियों के साथ रखा गया था. उनको एक टाट का टुकड़ा छोड़ कर कोई कपड़ा पहनने की मनाही थी. उन्हें घर के बाहर बीड़ी पीने की इजाजत नहीं थी.
वे पूजा नहीं कर सकते थे. जरा सी भूल होने पर उनके घुटने और कलाई की हड्डियां तोड़ दी जाती थीं. दंड विधान इतना कड़ा था कि हर व्यक्ति के दो नाम होते थे. एक खेत पर, एक घर पर, ताकि पुलिस से बच सकें. (मुसलिम निवासियों के साथ कुछ रियायत थी, क्योंकि वे लश्कर थे.
यानी सैनिक के रूप में अंगरेजों के सहयोगी पहरेदार सिपाही. वही पुरानी बांटो और शासन करो वाली नीति. क्रियोलों को रियायत थी, क्योंकि उन्होंने अपनी पैतृक संस्कृति त्याग कर ईसाई धर्म और संस्कृति अपना ली थी. पादरी भी उनकी रक्षा करते थे. लेकिन शेष भारतीय कुली पशुवत जीवन बिताने को बाध्य थे). फिर भी वे हारे नहीं. अपनी संस्कृति बचा ले गये. (पिछले दिनों मॉरीशस गये थे)
जारी…
दिनांक : 12.09.2011

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