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राष्ट्रपति की मॉरीशस यात्रा के यादगार क्षण

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– हरिवंश – मॉरीशस से लौटते हुए, राष्ट्रपति के विमान में उनसे मेरा पहला सवाल था- आपकी मॉरीशस यात्रा के सबसे यादगार क्षण, उपलब्धि और पहलू आपकी नजर में क्या हैं? जवाब सटीक था- ‘हर क्षण यादगार. हर चीज में वहां की सरकार ने रुचि ली. हर वक्त वहां के प्रधानमंत्री साथ रहे. जब मुझे […]

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– हरिवंश –

मॉरीशस से लौटते हुए, राष्ट्रपति के विमान में उनसे मेरा पहला सवाल था- आपकी मॉरीशस यात्रा के सबसे यादगार क्षण, उपलब्धि और पहलू आपकी नजर में क्या हैं? जवाब सटीक था- ‘हर क्षण यादगार. हर चीज में वहां की सरकार ने रुचि ली. हर वक्त वहां के प्रधानमंत्री साथ रहे. जब मुझे डॉक्टरेट की उपाधि दी गयी, तब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री साथ थे.
वह क्षण भी यादगार है.’ इसी तरह इस धरती पर पांव रखते ही मुझे अपने 35 वर्ष पुराने मित्र राज हिरामन की याद आयी. हम बंबई में मिले, जब सपने देखने की उम्र थी. अभाव था, पर हौसले थे. उन्हीं दिनों मॉरीशस के प्रमुख लेखक अभिमन्यु अनंत की चर्चा की. उन्हें पढ़ा था. उनकी चीजें मन को छूती थीं. मॉरीशस की धरती पर उतरते ही उनकी चर्चित कृति ‘लाल पसीना’ की स्मृति हो आयी.
राष्ट्रपति यात्रा से छिटक कर राज हिरामन के साथ हम अभिमन्यु अनंत जी के घर मिलने गये. 70 से अधिक की उम्र. लोगों से बहुत कम ही मिलते हैं. उनकी इस कृति का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है. फ्रेंच में भी. ‘लाल पसीना’ के फ्रेंच अनुवाद की भूमिका लिखी, नोबेल पुरस्कार विजेता जां मारी गुस्ताव लेक्लेज्वो ने. वे अब फ्रांस में ही रहते हैं.
कभी मॉरीशस में रहे. वे अभिमन्यु जी के निजी मित्रों में से हैं. तीन दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचनाकार अनंत जी के घर में घुसते ही तुलसी चौरा और महावीर स्वामी के मंदिर मिले. नीचे की मंजिल पर उनके भाई रहते हैं. ऊपर के मंजिल पर अनंत जी. बड़े प्रेम और आत्मीयता से मिले. ‘धर्मयुग’ से उनका जुड़ाव था. किताबों से सजा एक बड़ा कमरा था, उसी में उनसे मिलना हुआ.
देखते ही बोले, डॉ धर्मवीर भारती, महावीर अधिकारी और कमलेश्वर की देन है. मेरे निर्माण में उनका बड़ा योगदान रहा है. स्मरणीय है कि डॉ भारती धर्मयुग के संपादक थे, तब यह पत्रिका 6-7 लाख प्रति सप्ताह बिकती थी.

महावीर अधिकारी नवभारत टाइम्स, बंबई के संपादक थे, जबकि कमलेश्वर सारिका संभाल रहे थे. तीनों ने मॉरीशस के हिंदी रचनाकारों को हिंदी की दुनिया से जोड़ने का बड़ा काम किया.मेरी जिज्ञासा थी कि आप हिंदी लेखन में कैसे मुड़े? जवाब था-पढ़ता था. मेरे पिता आर्यमित्र पत्रिका के पाठक थे. पर मुझे कहते थे कि हिंदी से रोटी नहीं मिल सकती. अंगरेजी, फ्रेंच पढ़ो. हिंदी की पुस्तकें छिपा कर पढ़ता था. अंगरेजी और फ्रेंच पत्रिकाओं में छिपा कर. पर मां ने कहा तुम हिंदी में ही बढ़ोगे. इस तरह मेरी पहली कहानी सांस्कृतिक पत्रिका रानी में छपी. पत्रिका हाइकमीशन से मिली थी. अध्यापक था, कहानी भेजी. 3-4 सप्ताह बाद यह पत्र मिला कि मेरी कहानी छाप रहे हैं. 40 रुपये का चेक मिला. कारवां चल पड़ा.

घूम-घूम कर चेक देखता था. मॉरीशस के पुनर्जागरण के अग्रणी इतिहास नायक विष्णु दयाल ने कहा कि तुम लेखक बनोगे. तब से अब तक 75 पत्रिकाओं में अभिमन्यु जी का लिखा छपा. पहला उपन्यास था ‘और नदी बहती रही.’ यह बड़ा ही रोमांटिक उपन्यास था. मेरी मां ने हौसला बढ़ाया. मैं स्कूल में अध्यापक था. हिंदी बड़े संघर्ष से मॉरीशस में भाषा बनी थी.
तब बइठका में समाज बैठता था. अगर गलत काम किया, तो बइठका में ही फैसला होता. कोर्ट और परिवार की तरह. शादी में मदद पर बइठका में ही फैसले होते. बइठका से ही हिंदी मॉरीशस में फैली. हिंदी के लिए संघर्ष बइठका मंच से हुआ. उन्हीं दिनों विष्णु दयाल का भी नारा गूंज रहा था.
छोड़ो मोटिया, छोड़ो क्रियोली
घर-घर हिंदी बोलो.
मैंने जानना चाहा कि वह किन दो पुस्तकों को महत्वपूर्ण मानते हैं. उन्होंने बताया- ‘लाल पसीना’ और ‘लहरों की बेटी’. लहरों की बेटी, समंदर के जीवन में संघर्ष की कथा है. वह भी महिला द्वारा. पूछता हूं, इसका यथार्थ से ताल्लुक है! जवाब देते हैं, हां है. यह अनुभवों के संसार से उपजा है. अनंत जी की बहन की शादी समुद्र के किनारे के गांव में हुई थी. वहां जाकर वे रहे. समुद्र का जीवन देखा. बहन के घर पर ही कविताएं लिखनी शुरू की.
तब विकट तूफान आते थे. वहां की भाषा में टाइकॉन. घर-बार सब कुछ उड़ा ले जानेवाला तूफान. तब अभिमन्यु जी हिंदी में कविताएं लिखते थे. बताते हैं कविता की पुस्तक ऐसे ही तूफान में देखते-देखते उड़ गयी.
मेरे मन पर लाल पसीना का इतिहास बोध दर्ज है. पूछता हूं लाल पसीना की पृष्ठभूमि. बताते हैं, इसमें मेरे मामा की कथा है. वे बिहार से आये थे. क्रांतिकारी थे. गन्ना काटते थे. अन्य साथियों के साथ. एक साथी थक गया था. कमर सीधी करने के लिए खड़ा हुआ. गोरे मालिक ने चाबुक से मारा. मेरे मामा से रहा नहीं गया. तब इन मजदूरों के सरदार या मेठ, हमारे बीच के लोग ही होते थे. हमारे लोग भी अपने लोगों पर अत्याचार करते थे.
गोरों के इशारे पर. मेरे मामा बरदाश्त न कर सके. उन्होंने हमलावर गोरे को पत्थर पर धकेल दिया. फिर भाग निकले. वह जानते थे कि पकड़े गये, तो बचेंगे नहीं. इसलिए वे भाग कर बनारस चले गये. बनारस भारत में नहीं, मॉरीशस में ही एक दूर के इलाके का नाम रखा था, भारतीयों ने. वे वहीं बस गये. हिंदी पढ़ाते. एक निश्चित अवधि तक ऐसे अपराध करनेवाले पकड़ में न आते, तो वे लुप्त हो जाते थे.
मेरे पिताजी की दुकान थी. सिगरेट, मिठाई और सब्जियों की. वहां बैठ कर फ्रेंच पढ़ता था. वहां भारत से दादाजी, नानीजी, दादीमां और नानाजी आये हुए थे. मेरे पिता का जन्म यहीं हुआ. वह कहते हैं, जब वह संघर्ष याद करता हूं, तो रोमांचित होता हूं. फिर अभिमन्यु जी बताते हैं-मेरे घनिष्ठ मित्र जां मारी (नोबेल पुरस्कार विजेता) कहते हैं कि पुरखों का संघर्ष जबरदस्त था. मगर आज युवाओं में भटकाव है. वे गुमराह हो रहे हैं.
फिर अभिमन्यु जी बताते हैं-चाचा रामगुलाम की पत्रिका के बारे में. पत्रिका थी ‘एडवांस.’ उसमें कुछ दिन लिखा. भारत में नियमित लिखता रहा. पारिश्रमिक भी मिला. राजकमल से पहली पुस्तक छपी. तब शीला संधू मालकिन थीं. उन्होंने कहा, अब इस नदी को बहते रहने दो.
अभिमन्यु जी की पुस्तक का शीर्षक था, और नदी को बहते रहने दो. वे कहते हैं दिल्ली में प्रकाशकों का बड़ा स्नेह और सहयोग मिला. दिल्ली जाने पर उन्होंने होटल में नहीं ठहरने दिया. सभी प्रकाशकों ने सही भुगतान किया. पर अपना फ्रेंच अनुभव बताते हैं. भुगतान जो फ्रेंच में मिलता है, उसका एक तिहाई भी हिंदी में नहीं है. फिर वह साफ करते हैं कि पैसे के लिए कभी नहीं लिखा. फ्रेंच में किसी कृति पर वर्ष में दो बार भुगतान किया जाता था. जनवरी और अगस्त में.
पूछता हूं, इन दिनों क्या लिख रहे हैं? कहते हैं, नाटक. अभिमन्यु जी ने अनेक नाटक लिखे, उनका निर्देशन और मंचन किया. गांव-गांव घूम कर नाटक दिखाते. हर जगह 2000-4000 की भीड़ जुटती. वह मानते हैं कि मॉरीशस के जागरण में इस नाटक अभियान का बड़ा योगदान रहा है. वह हिंदी भाषियों के श्रम और योगदान को रेखांकित करते हैं.
फिर विद्यानिवास मिश्र का स्मरण करते हैं. उनकी एक कथा सुनाते हैं. मॉरीशस की धरती पर उन्होंने कहा था, हिंदी धमनियों में बहनेवाली भाषा है, पढ़ो और खूब पढ़ो. पर एक बात न भूलो, जो तुम्हारें शोषक हैं, उनकी भाषा जरूर सीखो. उन्हीं की भाषा में अधिकारों की मांग करो. उन दिनों को याद करके वे कहते हैं, आज टीवी में फ्रेंच, अंगरेजी और क्रियोल में जो उद्घोषक हैं, उनमें से अधिकांश हिंदी भाषी युवक-युवतियां हैं. 23-24 साल की उम्र के. फिर निष्कर्ष में बताते हैं कि हमने हिंदी की सेवा नहीं की, हिंदी ने जरूर हमारी सेवा की है.
फिर वे बताते हैं, अंगरेजी और फ्रेंच अच्छी तरह जानता हूं. 15 वर्षों तक इन भाषाओं में लिखा. इन पर मुझे अच्छे पेमेंट भी मिले. पर छोड़ दिया. कहते हैं, उपन्यास लिखने की इच्छा हुई. जाति और धर्म के प्रसंग को लेकर. आज मॉरीशस में चार समूह रहते हैं. क्रियोल, हिंदू, मुसलमान और गोरे. चीनी भी हैं. वे धनी हैं. पर बहुत नहीं हैं. 5 प्रतिशत गोरे हैं.
17 प्रतिशत ईसाई. धीरे-धीरे गन्ने के कारखाने सिमट रहे हैं. तब 40-50 कारखाने थे, अब 4-5 रह गये हैं. गोरे भारतीयों के मुंह पर थूकते थे. हमारे पास पसीने की पूंजी थी. जिस लाल पसीना को चुका कर हमने इस धरती को स्वर्ग जैसा सुंदर बनाया. भोजपुरी आज भी घर-घर की भाषा है. 50 साल की उम्र के लोग बोलते हैं, आपस में आत्मीयता से भोजपुरी में बात करते हैं. नस-नस में, धमनियों में यह भाषा और संस्कृति बहती है.
हालांकि पुरानी धमनियों में अब पहले वाली शक्ति भी न रही. नयी पीढ़ी भोग के पीछे भाग रही है. पुराने लोग दिल की बात करते हैं. कहते हैं, भोजपुरी के शब्द लोकप्रिय हैं. जांता, ओखली, मूसल, सिल, लोढ़ा, पीढ़ा, शादी के रिवाज-गीत आदि. अब बइठका को भी आधुनिक रूप दिया जा रहा है. पर यहां आधुनिकता का जोर ज्यादा है, भारतीयता का कम.
अभिमन्यु जी के लेखन में भारत के शुरुआती दिनों के दुख और पीड़ा के विवरण हैं. लाल पसीना पढ़ने से ध्वनित होता है कि जब महामारी में हल खींचनेवाले बैलों की कमी होती थी, तब भारतीय मजदूरों के कंधे ही काम आते थे. यह अप्रवासियों के वंश क्रम की पहली पीढ़ी की पीड़ा है.
गूंगा इतिहास नाटक में वे उल्लेख करते हैं कि जिस दिन अपनी आंखों से उसने अपने बाप को बैल की जगह ईख के बोझ को खींचते देखा था, उस दिन उसके भीतर के प्रश्नों ने पिघल कर आक्रोश को उभार दिया.
दूसरी पीढ़ी के आक्रोश ने बदलाव की बुनियाद डाली. सवाल पूछने का माहौल बना था. एक जगह वे कहते हैं कि अगर शुरू से ही प्रश्न किया गया होता, तो स्थिति यह नहीं होती.
इस माहौल में भारतीय जीवन पद्धति और प्रतीक जीवन की ताकत देते हैं. गोदना तब प्रचलित और प्रिय भारतीय प्रतीक था. अभिमन्यु जी कहते हैं, भारतीय मजदूरों के साथ पौरुष और सहनशीलता थे. गठरियों में रामचरित मानस, हनुमान चालीसा और आल्हा से जुड़े ग्रंथ होते थे. ये पुस्तकें इन्हें आत्मबल दिया करती थीं. शून्य के बीच उन्हीं पुस्तकों से अपने संघर्षों को बनाये रखने की प्रेरणा और शक्ति पाते थे. गन्ने के खेतों में खून-पसीना एक करनेवाले मजदूरों को मामूली भूल पर भी कोड़ों की मार और गालियों की बौछार पड़ती थी. रामायण का पाठ अपराध माना जाने लगा. आल्हा पढ़ने पर दंड दिया जाता.
मजदूरों के हाथ से हिंदी पुस्तकें छीन कर जला दी जाती थीं. समूह में रामायण और आल्हा पढ़ना वर्जित था. किसी झोपड़ी की दीवार पर राम का नाम लिखा होता, तो घर के मालिक को गोरे के सामने उपस्थित होकर दंडित होना पड़ता. इन हालात में भारत से गये लोगों ने अपनी भाषा, संस्कृति, धर्म, पहचान आदि बनाये रखी. हर बंदिश के बावजूद सत्संग के कार्यक्रम होते. हवन-पूजा होती. वे कहते हैं हिंदी की नि:शुल्क पढ़ाई शुरू हुई. कई लोग खेतों में कड़ी मेहनत करने के बाद शाम को बइठकों में हिंदी पढ़ाने जाते.
इस तरह पूरे देश में हिंदी की नि:शुल्क कक्षाएं चलीं. अभिमन्यु जी कहते हैं भाषा और विधा के इतिहास में इतना बड़ा आंदोलन शायद ही कहीं हुआ हो. हालांकि वहां भी बुद्धिजीवी कहलाने के लिए अंगरेजी और फ्रेंच अनिवार्य थीं. फिर भी अपनी अस्मिता के लिए हिंदी पढ़ना नहीं छोड़ा. जिन संस्थाओं ने हिंदी की अलख जगाये रखी, वे हैं- आर्यसभा, सनातन हिंदू सभा, हिंदी प्रचारिणी सभा.
अभिमन्यु जी उन दिनों को याद करते हैं. चांदनी रात में जब भारतीय मजदूर थकान मिटाने के लिए चबूतरे पर जमा होते, लोकगीत गाते, तो कोठी का सरदार ऐसा करने से रोकता.तो उन्हें पीड़ा भी है कि मॉरीशस के फ्रेंच और अंगरेजी लिखनेवालों को जो मान्यता फ्रांस और इंग्लैंड में मिलती है, वो हिंदी लेखकों को भारत में नहीं. उनके अनुसार, मॉरीशस में 300 से अधिक पुस्तकें लिखी गयी हैं. सबके पीछे लंबी संघर्ष कथा है. वे कहते हैं, हिंदी में पढ़ना-लिखना, केवल रोटी से जुड़नेवाला सवाल नहीं है.

दिनांक : 19.09.2011

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