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संस्थाएं हुईं खोखली, संविधान शक्तिहीन

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भारत में एक किस्म की फ्रांसीसी क्रांति अवश्यंभावी मार्कंडेय काटजू मैं नहीं चाहता कि मेरी बातें डरानेवाली जैसी लगें, मगर मुझे लगता है कि भारत में एक किस्म की फ्रांसीसी क्रांति अवश्यंभावी है. जरा इन तथ्यों पर गौर कीजिए: हमारे देश की सभी संस्थाएं (इंस्टीट्यूशंस) खोखली हो चुकी हैं और संविधान भी शक्तिहीन हो चुका […]

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भारत में एक किस्म की फ्रांसीसी क्रांति अवश्यंभावी
मार्कंडेय काटजू
मैं नहीं चाहता कि मेरी बातें डरानेवाली जैसी लगें, मगर मुझे लगता है कि भारत में एक किस्म की फ्रांसीसी क्रांति अवश्यंभावी है. जरा इन तथ्यों पर गौर कीजिए: हमारे देश की सभी संस्थाएं (इंस्टीट्यूशंस) खोखली हो चुकी हैं और संविधान भी शक्तिहीन हो चुका प्रतीत होता है.
पिछले दो हफ्तों ने हमें दिखाया है कि हमारी संसद शायद ही चली और शायद ही कोई सार्थक बहस हुई है, इसके सदस्य सारे समय चीखते-चिल्लाते रहे. जब यूपीए सत्ता में थी तो भाजपा हमेशा सदन में व्यवधान उत्पन्न करती थी. और अब, जब एनडीए सत्ता में है तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दल वही काम कर रहे हैं. और ऐसा लगता है कि संसद के शीत सत्र में भी यही सब दोहराया जायेगा. फिर बजट सत्र में भी. और यह अनंत काल तक चलता रहेगा.
मैं यहां जोड़ना चाहूंगा कि यह हमारे सांसदों की बड़ी संख्या की आपराधिक पूर्ववृत्ति है. हमारे ज्यादातर नेताओं को भारत से सच्चा प्यार नहीं है. वह ऐसे दुष्ट हैं जो सुधर नहीं सकते. वह देश को लूटने में लगे हैं. वह देश का धन विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा कर रहे हैं. धार्मिक और जातीय दंगे भड़का कर सांप्रदायिक और जातिगत वोटबैंक बनाते हैं. बड़े स्तर पर हमारी अफसरशाही (ब्यूरोक्रेसी) भ्रष्ट हो चुकी है. और दुख की बात है कि यही स्थिति न्यायपालिका केे एक हिस्से की भी है, जो किसी मामले के निपटारे में अधिक और असामान्य समय लेती है. सामंतों के द्वारा हमारे लोकतंत्र का अपहरण कर लिया गया है. और अब अधिकांश जगहों पर धार्मिक और जातिगत आधार पर चुनाव होते हैं. किसी को भी उम्मीदवार के गुणों की परवाह नहीं है.
भारत में भयानक गरीबी है, व्यापक बेरोजगारी है, व्यापक कुपोषण है. आदि… एक आकलन है कि हर साल एक करोड़ नौजवान नौकरी के बाजार में उतरते हैं, मगर इस अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में सिर्फ पांच लाख नौकरियां सृजित की गयी हैं. तो, बाकी बचे हुए नौजवान क्या करते हैं? वह हॉकर, स्ट्रीट वेंडर, स्ट्रिंगर, बाउंसर, अपराधी, वेश्या या भिखारी बनते हैं.
आम जनता के बड़े हिस्से के लिए स्वास्थ्य सेवा नदारद है. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत में कुछ बहुत ही अच्छे अस्पताल और क्लीनिक हैं, मगर वह बहुत ही महंगे हैं. तो फिर एक गरीब आदमी क्या करे, जब वह या उसके परिजन बीमार पड़ें. वह नीम-हकीम के पास जाए!
हमारे आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं. यूनिसेफ की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के हर तीन कुपोषित बच्चे में से एक बच्चा भारतीय है. खाद्य-पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं. भारत के कई हिस्सों- विदर्भ, गुजरात आदि- में बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के खिलाफ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भेदभाव जारी है. कई इलाकों में ऑनर किलिंग, दहेज हत्या, मादा भूण हत्या रोज की आम घटनाएं हो चुकी हैं. ज्योतिष और अंधविश्वास चरम पर है, यहां तक ‘पढ़े-लिखे’ कहे जानेवाले लोगों के बीच भी. फर्जी बाबा भोले-भाले आम लोगों को मूर्ख बनाने में लगे हैं.
पश्चिम के अधिकतर देशों में हवा और पानी कम प्रदूषित है. ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रदूषण के विरुद्ध कड़े कानून हैं. इन कानूनों के उल्लंघन पर भारी जुरमाना देना पड़ता है. वहां घर के नल से निकलनेवाला पानी सुरक्षित तौर पर पी सकते हैं. यह उतना ही साफ होता है जितना ‘मिनरल वाटर’. दूसरी तरफ, भारत में हर चीज प्रदूषित है. बेशक, भारत में भी प्रदूषण विरोधी कानून हैं- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, वायु प्रदूषण अधिनियम, जल प्रदूषण अधिनियम, खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम आदि. मगर इन कानूनों का पालन कोई नहीं करता है.(मैगी नूडल्स में लेड का पाया जाना तो मात्र एक झलक भर है)
अगर आपकी इंडस्ट्री अपना जहरीला रसायन नदी में बहा रही है तो महंगा ट्रीटमेंट प्लांट लगाने से ज्यादा आसान लगता है कि प्रदूषण इंस्पेक्टर को हर महीने हजारों रुपये दे दें, वह आंखें मूंदे रहेगा. हमारे उद्योगपतियों को यह ‘कॉस्ट एफेक्टिव’ लगता है, जनता जाए भाड़ में. जब कुछ बरस पहले मैं वाराणसी गया था तो मुझे संकटमोचन मंदिर के बड़े महंत वीरभद्र मिश्र, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, ने बताया था कि इस शहर में बड़े बड़े 30 नाले गंगा नदी में गंदगी गिरते हैं. वीरभद्र मिश्र बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे. उनके बेटे भी इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं और अभी महंत हैं. इलाहाबाद मेरा घर है. यहां के एक दोस्त ने बताया कि संगम का इलाका बहुत ही प्रदूषित हो चुका है. संगम में स्नान के लिए सारे भारत से श्रद्धालु आते हैं.
भारत के ज्यादातर शहर नरक बन चुके हैं. बिल्कुल नहीं रहने लायक. हर शहर ट्रैफिक जाम से परेशान. भवन निर्माण कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ायी जा रही हैं. यहां तक कि दिल्ली की पॉश कालोनियों-डिफेंस कालोनी, साउथ एक्सटेंशन, ग्रेटर कैलाश आदि में गाड़ियां सड़कों पर ही खड़ी रहती हैं. सड़कें गैरेज में तब्दील हो गयी हैं. ठीक यही हाल हमारे सभी बड़े शहरों चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद और लखनऊ का है. यहां रहना और सफर करना दांते के यातनास्थलों (दांतेज पर्गटॉरी) से गुजरने जैसा है. जल्द ही नरक जैसा हो जायेगा.
और हमारे नेता, हमारे ‘रहबर’ नीरो की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जो रोम जलने के दौरान बांसुरी बजाने में मस्त था, या फिर फ्रांसीसी क्रांति के पूर्व बोर्बोन्स की भांति व्यवहार कर रहे हैं. ऐसे समय में मुझे याद आता है 20 अप्रैल 1653 का दिन, जब ऑलिवर क्रॉमवेल अपने सैनिकों के साथ ब्रिटिश संसद में घुसा था और वहां मौजूद सदस्यों को कहा था.- ”यह मेरे लिए सही मौका है, आपके बैठने की इस जगह को खत्म कर देने का, जिसे आपने हर तरह से अपमानित किया है., अपनी बुरी आदतों से अपवित्र किया है.
आप अराजक लोग हो. अच्छी सरकार के दुश्मन हो. किराये के टट्टू हो. अभागों का झुंड हो. चाहते हो कि इसाउ तुम्हारे देश को आलुओं के भाव बेच दे, जैसे चंद रुपयों के लिए जूडस ने अपने प्रभु को धोखा दिया था.
क्या आपके अंदर एक भी अच्छा गुण बच गया है? क्या ऐसा एक भी अवगुण बच गया है, जो आपके पास नहीं है? आप तो उतने धार्मिक भी नहीं रहे, जितना मेरा घोड़ा है. सोना तुम्हारा भगवान है, रिश्वत के लिए तुममें से किसने अपना विवेक नहीं खत्म कर डाला है? क्या तुम्हारे बीच ऐसा कोई व्यक्ति है जिसे राष्ट्रमंडल की बेहतरी की जरा-सी भी चिंता है? तुम अनैतिक लोग! क्या तुमने इस पवित्र स्थल को अपवित्र नहीं किया है? तुम्हारे अनैतिक सिद्धांतों और दुष्ट कारनामों ने इस ईश्वर के मंदिर को चोरों के अड्डे के रूप में नहीं बदल दिया है?
पूरे राष्ट्र के लिए अप्रिय और असह्य हो गये हो. तुम्हें जनता ने अपनी शिकायतों के निवारण के लिए यहां रखा था, और तुम यह सब भूल गये. इसलिए, इन सस्ते-चमकते आभूषणों को छीन लो और दरवाजों को बंद कर दो. किसी अच्छी चीज के लिए तुम यहां बहुत देर तक बैठे. मैं कहता हूं- हटो. ईश्वर के लिए यहां से जाओ”
सैनिकों ने एसेंबली हॉल से सभी सांसदों को बाहर निकाल दिया और फिर वहां ताला लगा दिया. मुझे लगता है कि कहीं भारतीय संसद का भी यही हाल होनेवाला है. व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अब जरूरी हो गया है. अब टालमटोल नहीं चलेगा. संविधान अब शक्तिहीन हो गया है. भारत की पूरी व्यवस्था, हमारे इंस्टीट्यूशंस समेत, एक ऐसे मकान की तरह हो गया है, जो पूरी तरह से जीर्ण-शीर्ण है. पुनरुद्धार से कुछ भी हासिल नहीं होगा. पहले इसे ध्वंस करें, फिर नवनिर्माण, यही समय की पुकार है. हमें नयी न्यायोचित समाज व्यवस्था बनानी है, जहां सिर्फ मुट्ठी भर नहीं, बल्कि हर इंसान एक अच्छी जिंदगी जिये.
लेकिन इसे इस व्यवस्था के भीतर से हासिल करना मुमकिन नहीं है. हमारे देश की समस्याओं का समाधान इस व्यवस्था के बाहर है. इसका मतलब हुआ कि हमें एक किस्म की फ्रांसीसी क्रांति करनी होगी.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं. )
(साभार: अंगरेजी समाचारपत्रिका ‘आउटलुक’, स्वाधीनता दिवस विशेषांक, 24 अगस्त, 2015)

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