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शक्ति की आराधना : मेलजोल का विराट उत्सव

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प्रभात रंजन कथाकार देश की बहुलतावादी परंपरा का एक बड़ा त्योहार है दुर्गा पूजा नवरात्र के रूप में दुर्गा पूजा अखिल भारतीय उत्सव बन गया है. गुजरात का गरबा, महाराष्ट्र का डांडिया देश भर में फैल रहा है. टीवी, इंटरनेट, सोशल मीडिया के जमाने में दुर्गा पूजा के माध्यम से यह संदेश भी ग्रहण किया […]

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प्रभात रंजन

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कथाकार

देश की बहुलतावादी परंपरा का एक बड़ा त्योहार है दुर्गा पूजा

नवरात्र के रूप में दुर्गा पूजा अखिल भारतीय उत्सव बन गया है. गुजरात का गरबा, महाराष्ट्र का डांडिया देश भर में फैल रहा है. टीवी, इंटरनेट, सोशल मीडिया के जमाने में दुर्गा पूजा के माध्यम से यह संदेश भी ग्रहण किया जा सकता है कि धर्म से ऊपर उठकर, मेल-जोल के उत्सव के रूप में इस त्योहार ने भारतीय समाज में व्यापक स्थान बनाया है. लेकिन, नारी शक्ति की महत्ता का संदेश देनेवाले इस सबसे बड़े उत्सव के बीच नारी का सम्मान कहीं खो रहा है. इस अवसर का इस्तेमाल महिलाओं पर हो रहे अपराध को राेकने के लिए जागरूकता फैलाने में हो, तभी इस त्योहार की सार्थकता है.

दुर्गा पूजा का हर किसी के लिए अलग-अलग महत्व है, हर किसी के मन में इसकी अलग-अलग छवि है. इस अखिल भारतीय उत्सव के, उत्तर से दक्षिण भारत तक, कई रंग हैं. इस त्योहार पर मुझे मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कुरु-कुरु-स्वाहा’ की नायिका पहुंचेली बार-बार याद आती है, जो सबको अलग-अलग रूप में दिखाई देती है. उसका वास्तविक रूप कोई नहीं जानता, कोई नहीं समझ पाता. परंपरा का यही अर्थ होता है, शायद इसी रूप में परंपराएं समकालीन बनी रहती हैं. संस्कृति बदलती रहती है, लेकिन वह परंपराओं को अपने अनुकूल बनाती चलती है.

दुर्गा पूजा हर साल समाज में नारी शक्ति की महत्ता का संदेश दे जाता है. मुझे लगता है कि आज देश-समाज में स्त्रियों पर अत्याचार की घटनाएं जिस तरह से बढ़ रही हैं, भ्रूण हत्या से लेकर बलात्कार तक, इस दौर में दुर्गा पूजा का सबसे बड़ा संदेश तो यही है कि हमारा समाज आदिकाल से स्त्री में देवी का रूप देखता रहा है.

वैसे कहनेवाले यह भी कहते हैं कि हम पत्थर की मूर्तियों को तो देवी मान कर पूजते हैं, लेकिन अपने समाज में स्त्रियों की गरिमा का सम्मान नहीं रखते. लेकिन, जरा ठहर कर सोचें, तो आज के समाज में भी स्त्रियां जिस तरह से हर क्षेत्र में कामयाबी के नये मुकाम हासिल कर रही हैं, शासन-सत्ता के शिखर तक पहुंच रही हैं, उसमें यह संदेश तो छिपा है ही कि वे बराबरी के मौके एवं उचित सम्मान की हकदार हैं.

ऐसे में इस दुर्गा पूजा यदि हम समाज में स्त्री के खिलाफ हो रही हिंसा एवं अपराध के खिलाफ जागरूकता फैलाएं, तो समकालीन समय में यह इस त्योहार की सबसे बड़ी सार्थकता होगी.

हिंदी के जाने-माने कवि एवं चिंतक अशोक वाजपेयी लगातार कहते रहे हैं कि हमारा समाज मूल रूप से उत्सव धर्मी समाज है. धर्म तो एक बहाना है! नवरात्र के रूप में दुर्गा पूजा आज एक अखिल भारतीय उत्सव बन गया है. गुजरात का गरबा, महाराष्ट्र का डांडिया देश भर में फैल रहा है. इस परंपरा को स्थानीयता की सार्वजनीनता के रूप में भी देखा जाना चाहिए. यह टीवी, इंटरनेट, सोशल मीडिया का जमाना है.

छवियों का दौर है. ऐसे में दुर्गा पूजा के माध्यम से यह संदेश भी ग्रहण किया जा सकता है कि धर्म से ऊपर उठकर, मेल-जोल के उत्सव के रूप में इस त्योहार ने भारतीय समाज में व्यापक स्थान बनाया है. उत्तर से दक्षिण भारत तक. फिल्म, टीवी, इंटरनेट ने दूरियों को पाट दिया है और देवी पूजा की परंपरा को एक विराट उत्तर आधुनिक उत्सव में बदल दिया है. नाच-गाने, मेले-तमाशे, खाने-पीने, भीड़-भड़क्के में पुराने कस्बाई मेलों की याद आती है.

आज भारत बड़े पैमाने पर विस्थापितों का देश है. देश की बड़ी आबादी अपनी जड़ों से कट चुकी है. ऐसे में विस्थापितों की नयी पीढ़ी दुर्गा पूजा जैसे त्योहारों के माध्यम से अपनी परंपराओं को देखती-समझती है, ऊपरी तौर पर ही सही, उससे जुड़ने की एक कोशिश तो करती है. दिल्ली इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां दुर्गा पूजा के दौरान अलग-अलग इलाकों में बंगाल, बिहार और गुजरात की परंपराएं जीवंत हो जाती हैं. इसके साथ दिल्ली की अपनी विरासत यानी रामलीला भी चलती रहती है. कह सकते हैं कि देवी की की कल्पना जितने भी रूपों में की गयी है, उन सारे रूपों में इसकी छवि इस दौरान दिल्ली में दिख जाती हैं. बचपन में पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ता था कि दशहरा बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में मनाया जानेवाला पर्व है.

यह उत्तर-आधुनिक दौर है, जिसमें अच्छाई और बुराई की सीमाएं धूमिल होती जा रही हैं. कहा जाता है कि अच्छा या बुरा और कुछ नहीं, हमारे अपने सोच की सुविधा होती है. ऐसे में दशहरा का यह संदेश कहीं किताबों के पन्नों में दब चुका है. फिर भी यह संदेश जरूर ग्रहण किया जाना चाहिए कि यह हमारे देश की बहुलतावादी परंपरा का एक बड़ा त्योहार है.

हर साल अपनी विराट उत्सवधर्मिता में यह इस बात की याद दिला जाती है. हालांकि, सामाजिक उत्सव के इस विराट पर्व को शस्त्र पूजा के रूप में सिमटाने की कोशिश एक राजनीतिक विचारधारा द्वारा की जाती रही है. लेकिन, मुझे लगता है कि हमारे समाज में सद्भाव की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि वह तमाम कट्टरता के बावजूद इस त्योहार के मूल संदेश को ही ग्रहण करते हुए इसे मनाती आ रही है, मनाती रहेगी.

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