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100 साल का बीएचयू : बरास्ता बिहार ही पूरा हो सका था महामना का सपना

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दरभंगा के महाराजा ने ही सबसे पहले दिया था दान निराला बीएचयू आज सौ साल का हो गया. इस संस्थान ने देश को अनगिनत प्रतिभाएं दी हैं. बड़े साहित्यकार, वैज्ञानिक, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भी न जाने कितने क्षेत्रों में कितनी प्रतिभाएं. इस संस्थान के सौ साल होने पर कुछ अनकहे यथार्थ को बयां करती […]

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दरभंगा के महाराजा ने ही सबसे पहले दिया था दान
निराला
बीएचयू आज सौ साल का हो गया. इस संस्थान ने देश को अनगिनत प्रतिभाएं दी हैं. बड़े साहित्यकार, वैज्ञानिक, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भी न जाने कितने क्षेत्रों में कितनी प्रतिभाएं. इस संस्थान के सौ साल होने पर कुछ अनकहे यथार्थ को बयां करती एक रिपोर्ट.
पढ़ाई के लिए बीएचयू कैंपस पहुंचा तो कई किस्से-कहानियों से सामना हुआ. सबका सामना होता है इन किस्सों से कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय जब कर रहे थे, तो भिक्षा मांगते हुए हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे और निजाम ने जब जूती दान में दिया तो महामना ने उसकी बोली लगवायी.
इसी तरह यह भी किस्सा बहुत मशहूर है कि काशी के महाराज के पास जब विश्वविद्यालय के लिए जमीन दान मांगने महामना गये तो महाराज ने कहा कि जितनी जमीन पैदल चलकर नाप सकते हैं, वह सब विश्वविद्यालय के लिए होगा और फिर मालवीयजी ने ऐसा किया.
और भी न जाने कितने किस्से इसी तरह के सुनाये जाते हैं वहां. हकीकत सब जानते हैं कि बीएचयू की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय के अथक प्रयास, दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प का परिणाम है.
बेशक बीएचयू की स्थापना और उसके बाद उसके विकास में मालवीयजी से जुड़े ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं, जो यह साबित करते हैं कि महामना की इच्छाशक्ति, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और संघर्ष के बीच सृजन के बीज बोने की लालसा ने बीएचयू को उस मुकाम की ओर बढ़ाया, जिसकी वजह से आज यह दुनिया के प्रतिष्ठित संस्थानों में शामिल है. लेकिन अब जब बीएचयू 100 साल का हो गया है, तो कुछ ऐसी कहानियों को जान लेना जरूरी है, जो इतिहास के पन्ने में जगह पाये बिना ही दफन हैं. इस विश्वविद्यालय की स्थापना में मदनमोहन मालवीय की जो भूमिका थी, वह तो सब जानते हैं, लेकिन कुछ और लोगों की ऐसी भूमिका थी, जिनके बिना बीएचयू का यह सपना पूरा नहीं हो पाता. महामना के अलावा दो प्रमुख नामों में एक एनी बेसेंट का है और दूसरा अहम नाम दरभंगा के नरेश रामेश्वर सिंह का है. यहां यह महत्वपूर्ण है कि बीएचयू के लिए पहला दान भी बिहार से ही मिला था.
रामेश्वर सिंह ने ही पहले दान के रूप में पांच लाख रुपये दिये थे और उसके बाद दान का सिलसिला शुरू हुआ था. दरभंगा महाराज की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका थी बीएचयू की स्थापना में, इस विषय पर बिहार के स्वतंत्र संधानकर्ता तेजकर झा ने वर्षों की मेहनत से महत्वपूर्ण काम किया है. वे इस विषय को लेकर एक किताब भी लिख रहे हैं. बताते हैं कि बीचएयू की नींव चार फरवरी 1916 को रखी गयी थी. उसी दिन से सेंट्रल हिंदू कॉलेज मेंं पढ़ाई भी शुरू हो गयी थी. नींव रखने लॉर्ड हार्डिंग्स बनारस आये थे.
इस समारोह की अध्यक्षता दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह ने की थी. बीएचयू के स्थापना से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इसकी स्थापना भले 1916 में हुई, लेकिन 1902 से 1910 के बीच एक साथ तीन लोग हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की कोशिश में लगे हुए थे.
एनी बेसेंट, पहले से बनारस में हिंदू कॉलेज चला रही थी, वह चाहती थीं कि एक हिंदू विश्वविद्यालय हो. इसके लिए इंडिया यूनिवर्सिटी नाम से उन्होंने अंगरेजी सरकार के पास एक प्रस्ताव भी आगे बढ़ाया, लेकिन उस पर सहमति नहीं बन सकी. महामना मालवीय ने भी 1904 में परिकल्पना की और बनारस में सनातन हिंदू महासभा नाम से एक संस्था गठित कर एक विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पारित करवाया. सिर्फ प्रस्ताव ही पारित नहीं करवाया बल्कि एक सिलेबस भी जारी किया. इस प्रस्ताव में विश्वविद्यालय का नाम भारतीय विश्वविद्यालय सोचा गया.
उसी दौरान दरभंगा के राजा रामेश्वर सिंह भारत धर्म महामंडल के जरिये शारदा विश्वविद्यालय नाम से एक विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पास करवाये. तीनों बनारस में ही विश्वविद्यालय चाह रहे थे, तीनों अंगरेजी शिक्षा से प्रभावित हो रहे भारतीय शिक्षा प्रणाली से चिंतित होकर इस दिशा में कदम बढ़ा रहे थे, लेकिन अलग-अलग प्रयासों से तीनों में से किसी को सफलता नहीं मिल रही थी.
अंगरेजी सरकार ने तीनों के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. बात आगे बढ़ न सकी तो अप्रैल 1911 में महामना मालवीय और एनी बेसेंट की मीटिंग हुई. तय हुआ कि एक ही मकसद है, तो फिर एक साथ काम किया जाए. बात तय हो गयी, लेकिन एनी बेसेंट उसके बाद इंगलैंड चली गयीं. उसी साल सितंबर-अक्तूबर में जब इंगलैंड से एनी बेसेंट वापस लौटीं तो दरभंगा के राजा रामेश्वर सिंह के साथ मीटिंग हुई और फिर तीनों ने साथ मिलकर अंगरेजी सरकार के पास प्रस्ताव आगे बढ़ाया. तब बात हुई कि अंगरेजी सरकार से बात कौन करेगा?
इसके लिए महाराजा रामेश्वर सिंह के नाम पर सहमति बनी. रामेश्वर सिंह ने 10 अक्तूबर को उस समय के शिक्षा विभाग के सदस्य या यूं कहें कि शिक्षा विभाग के सर्वेसर्वा हारकोर्ट बटलर को चिट्ठी लिखी कि हमलोग आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ भारतीय शिक्षा प्रणााली को भी आगे बढ़ाने के लिए इस तरह के एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते हैं. 12 अक्तूबर को बटलर ने जवाबी चिट्ठी लिखी और कहा कि यह प्रसन्नता की बात है और बटलर ने चार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए हिदायत दी कि ऐसा प्रस्ताव तैयार कीजिए, जो सरकार द्वारा तय मानदंड पर खरा उतरे. यह हुआ. यूनिवर्सिटी के लिए सेंट्रल हिंदू कॉलेज को दिखाने की बात हुई.
17 अक्तूबर को मेरठ में एक सभा हुई, जिसमें रामेश्वर सिंह ने यह घोषणा की कि हम तीनों मिलकर एक विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहते हैं, इसमें जनता का समर्थन चाहिए. जनता ने उत्साह दिखाया. उसके बाद 15 दिसंबर 1911 को सोसायटी फॉर हिंदू यूनिवर्सिटी नाम से एक संस्था का निबंधन हुआ, जिसके अध्यक्ष रामेश्वर सिंह बनाये गये. उपाध्यक्ष के तौर पर एनी बेसेंट और भगवान दास का नाम रखा गया और सुंदरलाल सचिव बने.
एक जनवरी को रामेश्वर सिंह ने पहले दानदाता के रूप में पांच लाख रुपये देने की घोषणा हुई और तीन लाख रुपये उन्होंने तुरंत दिये. खजूरगांव के राजा ने सवा लाख रुपये दान में दिये. इस तरह से चंदा लेने और दान लेने का अभियान शुरू हुआ. बिहार और बंगाल के जमींदारों और राजाओं से महाराजा रामेश्वर सिंह ने धन लेना शुरू किया और 17 जनवरी 1912 को टाउन हॉल, कोलकाता में उन्होंने कहा कि इतने ही दिनों में 38 लाख रुपये आ गये हैं.
दान लेने का अभियान आगे बढ़ते रहे, इसके लिए 40 अलग-अलग कमिटियां बनायी गयी. राजा रजवाड़ों से चंदा लेने के लिए अलग कमिटी बनी, जिसका जिम्मा रामेश्वर सिंह ने लिया और इसके लिए वे तीन बार देश भ्रमण पर निकले, जिसकी चर्चा उस समय के कई पत्रिकाओं में भी हुई.
विश्वविद्यालय के लिए जमीन की बात आयी तो काशी नरेश से कहा गया. काशी नरेश ने तीन अलग-अलग स्थलों को इंगित कर कहा कि जो उचित हो, ले लें. 22 मार्च 1915 को इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बीएचयू बिल पेश किया गया. बहस हुई. इस बिल को बटलर ने पेश किया. महाराजा रामेश्वर सिंह, मालवीयजी समेत कई लोगों ने भाषण दिये. बहस हुई और बिल पास होकर एक्ट बन गया. शुरुआत के लिए कई तिथियों का निर्धारण हुआ लेकिन आखिरी में, तिथि चार फरवरी 1916 निर्धारित हुई. हार्डिंग्स शिलान्यासकर्ता रहे, महाराजा रामेश्वर सिंह अध्यक्षीय भाषण दिया और जोधपुर के राजा ने धन्यवाद ज्ञापन किया.
तेजकर झा कहते हैं कि विश्वविद्यालय के बनने की यह कहानी दफन है. रामेश्वर सिंह ने अगर भूमिका निभायी, जिसके सारे दस्तावेज और साक्ष्य मौजूद हैं तो फिर क्यों महज एक दानकर्ता के रूप में विश्वविद्यालय में उनका नाम एक जगह दिखता है? तेजकर कहते हैं कि आप यही देखिए कि विश्वविद्यालय बनने की प्रक्रिया जब चल रही होती है, तो अंगरेजी सरकार किससे पत्राचार करती है या कि विश्वविद्यालय का जब शिलान्यास हो जाता है तो बधाई के पत्र किसके नाम आते हैं.
तेजकर कहते हैं कि 1914 और 1915 में लंदन टाइम्स, अमृत बाजार पत्रिका से लेकर स्टेट्समैन जैसे अखबारों तक में रिपोर्ट भरे हुए हैं, जिसमें महाराजा रामेश्वर सिंह के प्रयासों की चर्चा है और विश्वविद्यालय के स्थापना के संदर्भ में विस्तृत रिपोर्ट है.
तेजकर झा कहते हैं कि मैं जो बातें कह रहा हूं उसका मकसद मालवीयजी की क्षमता को कम करके आंकना नहीं है, लेकिन बिहार के जिस व्यक्ति ने इतनी बड़ी भूमिका निभायी, उसकी उचित चर्चा नहीं होना अखरता रहा इसलिए पिछले एक दशक में हमने तथ्यों को एकत्रित करना शुरू किया और अब जो कह रहा हूं तो अपनी ओर से कोई बात नहीं कह रहा बल्कि वैसे दस्तावेज मौजूद हैं.
महाराजा रामेश्वर सिंह ने अपने जीवनकाल में न जाने कितने संस्थानों को दान दिया, कितने संस्थानों को खड़ा करवाया, लेकिन बीएचयू में वह जिस तरह से इनवॉल्व हुए, वैसा कभी नहीं किये थे. किसी संस्थान के लिए दान मांगने नहीं गये, चंदा करने नहीं निकले, सरकार से बातचीत नहीं की.
(लेखक समाचार पत्रिका ‘तहलका’ से संबद्ध हैं.)

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