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कोटा का सच : बिहार-झारखंड के भरोसे चमके कोचिंग

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कोटा से अजय कुमार हकीकत : हर साल 75 हजार से एक लाख नये स्टूडेंट्स लेते हैं कोचिंग संस्थानों में दाखिला कोटा में बिहार, झारखंड के छात्रों की भरमार है. दस में से छह स्टूडेंट्स इन्हीं दो राज्यों के हैं. अभिभावकों और छात्रों का कोटा के कोचिंग इंस्टीट्यूट के प्रति भरोसा उन्हें यहां खींच लाता […]

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कोटा से अजय कुमार
हकीकत : हर साल 75 हजार से एक लाख नये स्टूडेंट्स लेते हैं कोचिंग संस्थानों में दाखिला
कोटा में बिहार, झारखंड के छात्रों की भरमार है. दस में से छह स्टूडेंट्स इन्हीं दो राज्यों के हैं. अभिभावकों और छात्रों का कोटा के कोचिंग इंस्टीट्यूट के प्रति भरोसा उन्हें यहां खींच लाता है. यहां के कई छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल में पास होते हैं. ये उदाहरण उनके भरोसे को मजबूत आधार देता है. हालांकि एक दूसरा सच यह भी है कि इन राज्यों में बेसिक एजुकेशन अच्छा नहीं होने से छात्रों का बड़ा हिस्सा अपने कॅरियर को संवार नहीं पाता.
कोटा में कोचिंग इंस्टीट्यूट का कारोबार चमक रहा है, तो इसके पीछे बिहार-झारखंड है. एक अनुमान के मुताबिक यहां के कोचिंग संस्थानों में एडमिशन लेने वाले दस में से छह स्टूडेंट्स बिहार-झारखंड के होते हैं. बाकी उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, उतराखंड, जम्मू-कश्मीर के होते हैं. पूर्वोत्तर और दक्षिण के स्टूडेंट्स की संख्या बहुत छोटी है. यहां के कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेने वाला हर छात्र मेडिकल अथवा इंजीनियरिंग की परीक्षा निकाल लेने की तैयारी करता है. इनमें कइयों को कामयाबी मिलती है और बहुत सारे छात्र कामयाब नहीं हो पाते. जानकार इसकी वजह बेसिक एजुकेशन की खामियां बताते हैं.
कोटा में हर वक्त स्टूडेंट्स की संख्या करीब डेढ़ लाख रहती है. लेकिन, छोटे-मोटे या गली-मोहल्लों में चलने वाले कोचिंग के छात्रों को इसमें जोड़ दिया जाये, तो स्वाभाविक रूप से इस संख्या में थोड़ी वृद्धि हो जायेगी. डेढ़ लाख स्टूडेंट्स में से करीब 60 फीसदी बिहार-झारखंड के होते हैं. एक स्थानीय व्यक्ति बताते हैं कि बड़े चार-पांच कोचिंग संस्थानों में ही सर्वाधिक बच्चे हैं.
एक कोचिंग संस्थान के संचालक ने बताया कि हर साल करीब 75 हजार से एक लाख तक नये स्टूडेंट्स आ जाते हैं. उनमें से कुछ सफल होकर मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन लेते हैं, बाकी वापस लौट जाते हैं. फिर 75 हजार से एक लाख स्टूडेंट्स का अगला बैच कोटा आ जाता है. कोटा के लोग भी मानते हैं कि यहां के कोचिंग कारोबार में बिहार-झारखंड के छात्रों का योगदान अधिक है.
मार्च से अगस्त तक दाखिले का सीजन
कोटा आने वाले छात्रों में आइआइटी क्रैक करने वालों का अनुपात मेडिकल की तुलना में ज्यादा है. इन दिनों यहां के इंजीनियरिंग-मेडिकल के काउंटर पर भीड़ लगी हुई है. मार्च से अगस्त तक दाखिला होता है. दाखिले की प्रक्रिया समझने के लिए हम भी छात्रों के एक कोचिंग संस्थान में पहुंचते हैं. बड़े से गेट के अंदर हम दाखिल होते हैं. विशाल हॉल. सैकड़ों लोगों के बैठने के लिए कुरसियां लगी हैं. सेंट्रली एसी. बाहर की भीषण गरमी से यहां आते ही सुकून मिलता है. कोटा में पारा 45-48 डिग्री सेल्सियस है. हॉल के भीतर अलग-अलग काउंटर. हर हाउंटर पर भारी भीड़. पूछताछ चल रही है. ऐसे अलग-अलग आठ-दस काउंटर लगे हैं.
हॉल के कोने में प्ले बोर्ड लगा हुआ है. इसमें उन बच्चों की विजयी मुद्रा में तसवीरे हैं, जिन्होंने एडवांस निकाला है या मेडिकल मे सेलेक्ट हुए हैं. इन तसवीरों में बाहर से आये बच्चे अपनी छवि देखते हैं. माता-पिता को उसमें अपना बेटा दिखता है, तो किसी को अपनी बेटी. एक इंस्टीट्यूट के गेट के ठीक सामने स्क्रीन लगा है. उस पर पूरे दिन आइआइटी में अच्छा स्थान पाने वाले छात्र-छात्राओं के साथ उनके माता-पिता की तसवीर आती है. वे बताते हैं कि कैसे इंस्टीट्यूट ने उनके बच्चे का गाइड किया. हर टेस्ट के नतीजे एसएमएस से मिल जाते थे. किसी दिन क्लास में बच्चा नहीं आया, तो इसकी भी उन्हें खबर हो जाती थी. ऑडियो-वीडियो वाला यह स्लाइड उनके दिमाग पर असर डालता है.
हर बात की मिलेगी जानकारी
हॉल के अंदर काउंटर पर मेडिकल-इंजीनियरिंग कोर्स के बारे में बताया जा रहा है. प्रोफेशनल तरीके से एक-एक सवाल की जानकारी दी जा रही है. फी स्ट्रक्चर के बारे में वे बताते हैं. पैकेज और छूट की बातें बताते हैं.
एकमुश्त चेक देने पर कितना रिबेट मिलेगा और किस्तों में देने पर कितने पैसे लगेंगे, यह भी वे समझाते हैं. इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए एक टेस्ट होगा. मेडिकल में टेस्ट की बाध्यता नहीं है. पर ऐसा नहीं है कि टेस्ट में कम अंक आने पर एडमिशन नहीं होगा. एडमिशन सबको मिल जाना है. 600 रुपये में टेस्ट का फार्म मिल रहा है. पर टेस्ट क्यों? एक फैकल्टी बताते हैं: हम छात्रों पर नजर रखते हैं कि कौन आगे बेहतर कर सकता है. यह आगे हमारे काम आता है. आखिरकार रिजल्ट हमें देना होता है. इसी पर हमारी यूएसपी टिकी है.
हिंदी में भी मेडिकल-इंजीनियरिंग की तैयारी
एडमिशन के वक्त कोचिंग वाले पूछते हैं कि आप हिंदी में पढ़ेंगे या अंगरेजी में. उनका दावा है कि मेडिकल और इंजीनियरिंग के लिए हिंदी-अंगरेजी के अलग-अलग फैकल्टी मौजूद हैं. जब हमने हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले अहमदाबाद के भरत सिंह से इसके बारे में पूछा तो उनका कहना था, हिंदी में कोई समस्या नहीं है. किताबें भी उपलब्ध हैं. जबकि सहरसा के शौकत कहते हैं, हिंदी में पढ़ाते तो हैं, पर सारा टर्मलॉजी अंगरेजी का इस्तेमाल करते हैं. अब आप खुद समझ सकते हैं कि कोई छात्र हिंदी कितनी पढ़ेगा और अंगरेजी कितनी. हालांकि कोचिंग संस्थान कहते हैं कि हिंदी माध्यम वाले स्टूडेंट्स के रिजल्ट अच्छे आ रहे हैं.
एक विद्यार्थी का नजरिया
आज सुबह अखबार खोला तो देखा कि कोटा पर एक खास श्रृंखला शुरू हुई है. जब डॉक्टर बनने की ठानी तो कई बच्चों की तरह मैंने भी रूख किया कोटा का. परिवार का कोई दबाव न था. शुरुआती दौर बुरा रहा. परिवार की यादें, दोस्तों का साथ, बहुत याद आता था सब. एक अनजान शहर रास नहीं आ रहा था. धीरे धीरे पढ़ाई में ध्यान लगाया. वक्त भी गुजरता गया. उसी अनजान कोटा ने अब अपना लिया था मुझे. मानो, मेरी शुरूआती परीक्षा ले रहा हो ये शहर.
शिक्षक बेमिसाल, पढ़ाई का माहौल उत्तम. बाहर निकल कर देखा तो बोकारो का बड़ा रूप लगा, अपना सा लगा. हां, रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत स्ट्रगल रहा. पर यही तो जीवन है. कोटावास के दौरान कई बच्चों को जिंदगी से लड़ते देखा, कईयों को इस लड़ाई में हारते देखा, पर कोई मौत पूरी तरह से कोचिंग प्रणाली की वजह से नहीं हुई. मां-बाप की उम्मीदें, उनके दबाव ने बच्चों को मशीन बना दिया. उन मौतों का जिम्मेदार कोटा नहीं. कोटा ने बहुत कुछ दिया है मेरे व्यक्तित्व को.
जिंदगी जीने की कला, जिंदगी की कीमत वहीं जाकर सीखी है मैंने. मुझे विश्वास है यहां से गयी ‘सोनम’ और वहां से लौटी ‘सोनम’ में बहुत अंतर है और ये बदलाव बेहतर है. इस शहर को कुछ हफ्तों में नहीं जाना जा सकता, इसे जानने के लिए इस शहर से लड़ना पड़ता है, जो एक विद्यार्थी ही समझ सकता है. कोटा मेरे लिए एक दूसरे घर की तरह है. इसे कृपया इसे खलनायक का रूप न दें.
सोनम बाल

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