-हरिवंश-
जान कैटलर एक डच व्यापारी था, 1685 में सूरत के तट पर वह उतरा. भारत आने का उसका मकसद था- व्यापार बढ़ाना. अर्थशास्त्र में यह दौर ‘वाणिज्यिक काल’ के नाम से जाना जाता है. इस काल में किसी देश की संपन्नता-ताकत एकमात्र मापदंड था, विदेशी व्यापार. जिस देश का विदेशी व्यापार जितना अधिक होता था, उतना ही वह ताकतवर माना जाता था. इसी कारण डच, पुर्तगालियों, फ्रांसीसी व अंगरेजों में होड़ थी. जान कैटलर सूरत में उतरने के बाद आसपास के इलाकों में घूमा. वह भाषाशास्त्री नहीं था, न हिंदी से उसे अनुराग था, न वह यात्री था.
वह महज व्यापारी था. उसका देश अधिक-से-अधिक भारत से व्यापार-कारोबार कर सके, इसी कारण वह भारत आया था. इसकी तरकीब उसने ढूंढ़ी. हिंदी का पहला व्याकरण उसने डच भाषा में लिखा. मकसद था अधिकाधिक डच व्यापारियों को यहां की देशी भाषा समझा देना, ताकि व्यापार-कारोबार में अड़चन न आये. यह हिंदी थी, ‘बंबइया हिंदी’, जो व्याकरण-शुद्धता की दृष्टि से खरी नहीं है. लेकिन आज भी भारत की वाणिज्यिक-आर्थिक राजधानी बंबई में इसी भाषा के माध्यम से कारोबार संपन्न होता है.
आज हिंदी व क्षेत्रीय भाषाएं अछूत हैं. संविधान के अनुच्छेद 343 से ले कर राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976, ये सभी फर्ज अदायगी हैं. समय-समय पर राष्ट्रपति आदेश व संसद के संकल्प भी आये, लेकिन अधूरे व आधे मन से. गृह मंत्रालय में एक राजभाषा विभाग भी बना, लेकिन दिल्ली से बाहर नहीं जानेवाले अधिकारियों का वह ‘रिफ्यूजी कैंप’ बन गया है.
संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार सभी महत्वपूर्ण कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन समिति का गठन आवश्यक है. इसकी तिमाही बैठक आवश्यक है. पुन: इसके कार्यवृत्त पर कार्रवाई भी. लेकिन आज नियम बनने के करीब दस वर्षों बाद भी अनेक केंद्रीय मंत्रालय हैं, जहां इस समिति का गठन ही नहीं हुआ है. बैठक व इस दिशा में प्रगति की बात तो जुदा है. वाणिज्य मंत्रालय के मंत्री हैं, हिंदी कवि विश्वनाथ प्रताप सिंह. पिछले दिनों इस मंत्रालय में राजभाषा कार्यान्वयन समिति की जो बैठक हुई, उसके कार्यवृत्त बने अंगरेजी में.
बैंकों में आइआरपीडी, डीआरआई जैसी योजनाएं समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लिए बनती हैं, लेकिन इनका उद्देश्य, योजना का मसविदा, अंगरेजी में तैयार होता है. उसका हिंदी रूपांतरण अंगरेजी से भी कठिन होता है. वस्तुत: इस कार्य के लिए नियुक्त राजभाषा अधिकारी हिंदी को लोकप्रिय नहीं, बल्कि कठिन बना रहे हैं. उनकी भी सीमा है. राजभाषा के नाम पर बड़े अधिकारी नाक-भौंह सिकोड़ते हैं. कई तो धमकी देते हैं, ‘राजभाषा कक्ष बंद करा देंगे’. उन्हें अपने अधिकारों का एहसास नहीं, कारण राजभाषा कक्ष अगर बनाये गये हैं, तो केंद्रीय सरकार के नियमों के तहत, किसी व्यक्ति की मनमरजी से नहीं. हिंदी को हिकारत से देखनेवाले ये लोग भी हिंदी भाषी ही हैं. बिहार में एक प्रतिष्ठित बैंक के आंचलिक प्रबंधक का बरताव इस संबंध में उद्धृत करने योग्य हैं.
हिंदी को घृणा की दृष्टि से देखना व इस काम में लगे लोगों को परेशान करना उनका एकमात्र मकसद है. उसी बैंक के गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्थित कार्यालयों ने हिंदी संबंधी, जो बुनियादी कार्य पूरे कर लिए हैं, हिंदी भाषी क्षेत्र बिहार में उन बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं किया जा सका है. बावजूद इसके कि बैंक के प्रधान कार्यालय व उच्च अधिकारियों से इस संबंध में बार-बार आदेश आते हैं. कारण यही है कि अधिकारी महाशय हैं, हिंदी भाषी. पता चला, वे ऐसा इस कारण करते हैं, ताकि ऊपर बैठे अधिकारियों में उनकी छवि ‘हिंदी विरोधी’ की बनी रहे. प्रमोशन-सुविधा मिलती रहे. जब हिंदी कार्यों के निरीक्षण हेतु केंद्रीय सरकार के अधिकारी आते थे, तो यही जनाब दुम दबाये उनके पीछे लगते रहते, तलवे चाटते, ताकि रिपोर्ट खराब न हो, यह हमारी मानसिक गुलामी की संस्कृति का परिचायक है.
इसके विपरीत बिहार में पंजाब नेशनल बैंक में दक्षिण भारतीय नारायण गो आंचलिक प्रबंधक हैं. इन्होंने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है. भारत सरकार ने भी उनको सराहा है. सच्चाई यह है कि जिन्हें हम गैर हिंदी भाषी प्रदेश मानते हैं, वहां पर हिंदी की प्रगति के संबंध में उल्लेखनीय कार्य हुए हैं.
सही बात यह है कि इस देश के नौकरशाहों की संस्कृति एक है. उत्तर से दक्षिण व पूरब से पश्चिम तक ये अंगरेजों की नाजायज औलाद हैं. अंगरेजी इन्हीं की भाषा है. इन्हें मालूम है कि हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं की प्रमुखता से अंगरेजी के पांव उखड़ेंगे. इनकी संतानों को ये कुरसियां नहीं मिलेंगी, इसीलिए ये लोग तिकड़म करते हैं. श्याम रूद्र पाठक जैसे प्रतिभावान छात्रों का भविष्य नष्ट करने पर आमादा हो जाते हैं. अब ये नौकरशाह केंद्रीय शिक्षा मंत्री केसी पंत को सभी जिलों में अंगरेजी स्कूल खोलने की सलाह दे रहे हैं.
उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम का आम आदमी, जब मिल कर अपना दुख-दर्द बांट सकेगा, तभी इस देश में न असम होगा, न पंजाब, न बिहार, बल्कि ‘भारत’ होगा. यह काम राजभाषा प्रचार-प्रसार से ही संभव है. गांधी इसे समझते थे. इस कारण उन्होंने इसे प्रमुखता दी. लोहिया इस देश के मर्म को जानते थे. विचारक थे, इतिहास के व्याख्याता भी. इस कारण उनकी राजनीति पर वक्ती चीजें हावी न हुईं. इसलिए उन्होंने हिंदी समेत उन तमाम बुनियादी चीजों के लिए संघर्ष किया, जिसका आम आदमी से रिश्ता था. आज के बौने राजनीतिज्ञ, कुरसी, नाम व सुविधा के घेरे में ऐसा घिर चुके हैं कि उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता. बाकी 21वीं शताब्दी में छलांग लगानवाले कंप्यूटरी लोगों का पिछड़ों की भाषा से क्या लेना-देना!