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धनबाद माफिया ट्रायल का मकसद

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-हरिवंश- ‘धनबाद माफिया ट्रायल’ की अनुगूंज पूरे देश में हुई है. आरंभ में सभी दोषी लोगों को दंड दिलाने जैसे पावन उद्देश्यों की घोषणा के साथ यह लंबित सुनवाई आरंभ हुई थी. तब, यह कदम साहसिक व न्याय से प्रेरित मान कर लोगों ने, पत्र-पत्रिकाओं ने इसका चतुर्दिक स्वागत किया था. लेकिन पिछले एक वर्ष […]

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-हरिवंश-

‘धनबाद माफिया ट्रायल’ की अनुगूंज पूरे देश में हुई है. आरंभ में सभी दोषी लोगों को दंड दिलाने जैसे पावन उद्देश्यों की घोषणा के साथ यह लंबित सुनवाई आरंभ हुई थी. तब, यह कदम साहसिक व न्याय से प्रेरित मान कर लोगों ने, पत्र-पत्रिकाओं ने इसका चतुर्दिक स्वागत किया था. लेकिन पिछले एक वर्ष के दौरान माफिया उन्मूलन के नाम पर जो कुछ हुआ या हो रहा है, वह इस बात का पक्का सबूत है कि यह ट्रायल भी दोषी अपराधियों को दंडित करने के लिए नहीं, बल्कि सफेदपोश व आभिजात्य अपराधियों और ट्रेड यूनियन के नाम पर आतंक कायम करनेवाले गिरोहों के बीच की लड़ाई का माध्यम बन गया है.

धनबाद-बोकारो में अपराधियों का एक ऐसा गिरोह है, जो आभिजात्य है. अंगरेजीदां है, जिसके पास अकूत संपत्ति, राजनीतिक सत्ता और प्रशासनिक सत्ता है. इनमें से कुछ छुपे रुस्तम हैं, जो हमेशा परदे के पीछे से कार्य करते हैं, लेकिन इनके पास करोड़ों की संपत्ति है. कारखाने हैं और इन कारखानों में बिहार के ताकतवर जातिवादी नेताओं के बेनामी शेयर भी हैं. पटना के अधिकांश मशहूर राजनेताओं-नौकरशाहों के नाम ऐसे धन्नासेठों की ‘माहवारी देय सूची’ में दर्ज है. बदले में इन्हें माटी के मोल राज्य की बहुमूल्य खनिज संपदा या लाभ अर्जित करनेवाले व्यवसाय मिलते रहते हैं. पिछले वर्ष आयकरवालों ने ऐसे ही एकाध धन्ना सेठों के यहां छापे मार कर काफी चीजें बरामद की थीं. लेकिन इन आर्थिक लुटेरों के खिलाफ कभी कारगर अभियान नहीं आरंभ किया गया. हकीकत यह है कि कोयलांचल में लूट की संस्कृति और भ्रष्टाचार के असली जनक ऐसे ही लोग हैं. चूंकि पहरावे, बोलचाल, सत्ता के निकटस्थ लोगों और स्थानीय प्रशासन से ये लोग घुले-मिले हैं, अत: ऐसे सफेदपोश अपराधियों का एक अलग ही तबका बन गया है.

दूसरी किस्म के अपराधी, सत्ता व स्थानीय प्रशासन द्वारा पोषित-संरक्षित और ट्रेड यूनियनों से जुड़े हैं. खास कर इंटक के कथित नेता, बोकारो-बेरमो में इंटक के ऐसे अनेक ट्रेड यूनियन नेता हैं, जिनकी अथाह संपत्ति का ब्योरा अगर हासिल हो जाये, तो अनेक मशहूर राजनेताओं-अधिकारियों-सांसदों-विधायकों और एक केंद्रीय मंत्री का चेहरा सरेआम बेनकाब हो जाये. इस पूरे अंचल की कोयला खदानों में तकरीबन 50-55 ऐसे लोग हैं, जिनके नाम लोगों की उंगलियों पर हैं. जो कुछ ही वर्ष पूर्व खुले आसमान के नीचे सड़क पर जीवन गुजारने और दर-दर भटकने के लिए विवश थे, लेकिन आज ये करोड़ों का व्यवसाय करते हैं. बीसीसीएल से बेनामी ठेके लेते हैं, कुछ इंटक नेता तो बीसीसीएल में मामूली ओहदे पर नौकरी भी करते हैं और करोड़ों की बेनामी ठेकेदारी भी. ये लोग अपने प्रतिद्विंद्वियों टेंडर नहीं भरने देते. हत्याएं भी करते-कराते हैं. अपराधियों का गिरोह साथ ले कर चलते हैं. एक कांग्रेसी राजनेता के रिश्तेदार ने तो तकरीबन 600 टन कोयला ही गायब करा दिया. हरिजनों-आदिवासियों के निकट रिश्तेदार बन कर उनकी नौकरियां हड़प लेते हैं. एक इंटक नेता की ऐसी कारगुजारी से बेरमो में एक हरिजन ने आत्महत्या भी कर ली. उस हरिजन को बहला-फुसला कर वह उसके रिश्तेदार बन बैठे और उसकी नौकरी ले ली.

लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, क्योंकि वह सत्ता दल द्वारा पोषित-संरक्षित अपराधी हैं. संगीन अपराध के ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां पीड़ित और भुक्तभोगी लोगों को न्याय की हल्की दस्तक भी आज तक सुनाई नहीं दी. पीड़ित हो कर भी ऐसे लोग मुंह बंद रखने के लिए विवश हैं. न्याय अपंग या अधूरा नहीं होता. एक ही अपराध के लिए अगर एक व्यक्ति इस बिना पर आजाद रहे कि वह सत्ता पक्ष या भ्रष्ट स्थानीय प्रशासन के हितों के अनुकूल है और दूसरे को हर संभव तरीके से प्रताड़ित किया जाये, तो हिंसा पर काबू पाना नामुमकिन होगा. पक्षपातपूर्ण न्याय से आक्रोश फूटता है.

बोकारो में इंटक व कांग्रेस के नेताओं को हत्या से लेकर चोरबाजारी करने के लिए हर संभव छूट है, क्योंकि ऐसे लोगों की रिश्तेदारी-संबंध इस व्यवस्था के नियंताओं से हैं. बोकारो स्टील प्लांट में गैरकानूनी ढंग से ठेके लेने, मन के खिलाफ काम करनेवालों को डराने-धमकाने और हर संभव खिदमत के लिए आतुर स्थानीय प्रशासन का अपने शत्रुओं को जड़ से उखाड़ फेंकने में इंटक नेताओं द्वारा मदद लेना कहां तक न्यायसंगत है? प्रशासनिक न्याय का क्या असली चेहरा यही है? आखिर बोकारो की यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया की शाखा से करोड़ों की जो हेराफोरी हुई, उसमें संगीन अपराध के स्पष्ट प्रमाण, गवाह और सबूत मौजूद हैं. लेकिन दोषी व्यक्ति के खिलाफ मामूली कार्रवाई भी इसलिए नहीं हो रही, क्योंकि वह एक केंद्रीय मंत्री का दामाद है. खुद मंत्री महोदय ने भी इस बैंक से लाभ लिया है. सत्ता और प्रशासन के चहेते अपराधी शानो-शौकत और रोबदाब से रहें और प्रशासन उनके राजनीतिक शत्रुओं की उनके इशारे पर हत्या करने पर आमादा हो, तो भला अमन-चैन कैसे कायम होगा?

गिरिडीह जिला के 20 सूत्री कार्यक्रम के अध्यक्ष और कांग्रेस के प्रखंड अध्यक्ष की आर्थिक हैसियत एक दशक पूर्व अति साधारण थी. एक खदान में वह मामूली नौकर थे. लेकिन अब उनके पास आलीशान भवन, चार सिनेमा हॉल, लगभग सैकड़ों ट्रक, डंफर, लोडर आदि हैं. बीसीसीएल द्वारा ट्रांसपोर्ट के सारे ठेके इसी व्यक्ति द्वारा समर्थित गुट को मिलते हैं. कुछ ही वर्षों में हुई इस व्यक्ति की आर्थिक कायापलट की जांच केंद्रीय या स्थानीय प्रशासन द्वारा नहीं करायी गयी, क्योंकि वह सत्ता के अंत:पुर का विश्वसनीय आदमी है. ऐसे आर्थिक अपराधी एकाध नहीं हैं, बल्कि इनकी बड़ी जमात है, लेकिन इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. इसी तरह धनबाद में एसके राय (पूर्व विधायक) का मामला है. इंटक से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, लोकदल आदि की यात्रा करते हुए वह फिलहाल इंटक के दुबे जी धड़े के महत्वपूर्ण नेता हैं. धनुआडीह कोलियरी में पहले उनका दबदबा था. 1964 में दो नंबर पिट में हुए रफीक खान हत्याकांड, 1970 में ऐना कोलियरी में एक कोयला श्रमिक के बदन पर पेट्रोल डाल कर जिंदा जला देने की घटना, 1979 में कृष्णमुरारी दुबे का दिनदहाड़े झरिया बाजार में अपहरण, जमुना ठाकुर की औरत के साथ रिवाल्वर की नोंक पर बलात्कार, 1968 में धनुआडीह कोलियरी में एक हरिजन युवती के साथ बलात्कार आदि अनेक संगीन मामले हैं, जिस सिलसिले में एस.के. राय के लोगों के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं, अनेक घटनाओं में खुद उनका भी पुलिस रिपोर्ट में नाम है.

एस.के. राय पर यह भी आरोप है कि उन्होंने 1970 में धनुआडीह कोलियरी में हजारों लोगों की छंटनी करवा दी और उन्हें अपने लठैतों के बल पर भगा दिया और उनकी जगह अपने 300 आदमियों को बहाल करवाया. मजदूर आंदोलनों से जुड़े नेताओं का कहना है कि एसके राय के ऐसे कामों से मजदूर अत्यंत कुपित हुए और 1974 में उनके तीन लोगों ललिता सिंह, सुभाष राय और राजेंद्र राय की हत्या मजदूरों ने कर दी. उस कोलियरी में 14 सप्ताह तक मजदूर हड़ताल पर रहे.

एेसे ही दौर में एस.के. राय के खिलाफ सूर्यदेव सिंह खड़े हुए. एसके राय मजदूर नेता बन कर अभिजात वर्ग (राजेनता व स्थानीय प्रशासन) से घुलमिल गये, सूर्यदेव सिंह जिस वर्ग से निकले, उनके बीच अपनी पैठ बना ली. अपार संपदा इकट्ठा कर भी सुरा-सुंदरी व दुनियावी आकर्षणों से बचे रहने और अपने वर्ग से तादात्म्य बनाये रखने के कारण उनकी जड़ें फैलीं. इतने लंबे अरसे तक उनका एकछत्र राज शायद इसी कारण है कि वह बाकी माफिया नेताओं से थोड़ा अलग हैं. इस अचल ट्रेड यूनियन के नेताओं की एकमात्र पूंजी है, अपराध. सूर्यदेव सिंह ने भी यही रास्ता पकड़ा. पिछले दिनों एसके राय पर हमला हुआ.

आरोप है कि सूर्यदेव सिंह के इशारे पर ही यह घटना हुई. इसमें श्री राय के तीन लोग विनय शर्मा, अनंत राय और सुरेंद्र राय मारे गये. तीनों कुख्यात अपराधी बताये जाते हैं. स्थानीय प्रशासन आखिर इस बात की भी तहकीकात क्यों नहीं कर रहा कि इंटक कार्यालय पर इन सशस्त्र अपराधियों की मौजूदगी का क्या कारण है? उल्लेखनीय है कि इंटक के दो धड़े जब अलग हो गये, तो इंटक कार्यालय पर शांति बनाये रखने के लिए पुलिस बैठती थी. यह घटना इस तथ्य की पुष्टि है कि धनबाद में इंटक अपराधियों का जमावड़ा है. घटना के दिन पुलिस अधीक्षक अपने बंगले से गोलियों की आवाज सुनते रहे, लेकिन घर से क्यों नहीं निकले? अगर उन्होंने जरा भी साहस किया होता, तो अपराधी पकड़े जाते और पुलिस को आज अंधेरे में छलांग लगाने की जरूरत नहीं पड़ती. आखिर सार्वजनिक कोष से उन्हें किस काम के लिए तनख्वाह-सुविधाएं मिलती हैं? इंटक के दो गुटों में जो आपसी संघर्ष चल रहा है, उसकी जांच स्थानीय प्रशासन क्यों नहीं कर रहा है.

इस वर्ष 11 जनवरी को कुमार धुबी फायरक्ले ऐंड सिलिका वर्क्स लिमिटेड के कर्मचारी चनारिक सिंह की दिनदहाड़े हत्या के मूल में इंटक का ही अंदरूनी विवाद बताया जाता है. वहां कांग्रेस के ही दो सांसदों योगेश्वर प्रसाद योगेश और दामोदर पांडेय के गुटों के बीच लंबे समय से संघर्ष चल रहा है. मृतक योगेश का आदमी बताया जाता है. इस हत्याकांड के नामजद अभियुक्त आज भी खुलेआम घूम रहे हैं. श्री योगेश के सगे-संबंधियों का ताल्लुक बिहार के कुख्यात दादा डाकू गिरोह से था. आरोप है कि उसकी गिरफ्तारी भी धनबाद में लोयाबाद थाने के अंतर्गत हुई. स्थानीय प्रशासन इस तथ्य से वाकिफ है कि उसकी गिरफ्तारी कब और कहां हुई? आखिर ऐसे खूंखार डाकू गिरोहों को संरक्षण देनेवालों के खिलाफ दोमुहां न्याय के प्रवक्ता सक्रियों नहीं होते? न्याय का तकाजा तो यही था कि सूर्यदेव सिंह पर मुकदमों की सुनवाई के साथ ही ऐसे सारे कथित अपराधियों के लंबित मुकदमे आरंभ किये जाते? आखिर जनता मजदूर संघ के दीनानाथ सिंह, डीआर सिंह, हरिकृष्ण यादव, विक्रमा यादव जैसे अनेक लोगों के हत्यारों की तहकीकात प्रशासन क्यों नहीं कराता?

कांग्रेस के जिन लोगों पर बलात्कार के आरोप लगे, जिनकी शराब की दुकानों पर जहरीली शराब पीकर दर्जनों आदिवासी-पिछड़े बेमौत मरे, जिन्होंने हर संभव तरीके से संपत्ति जुटायी और अंतत: मंत्री भी बने, उनके खिलाफ क्या व्यवस्था से न्याय की उम्मीद की जा सकती है? ऐसे लोगों की जी-हजूरी में तो स्थानीय प्रशासन फरसी लगाने के लिए तैयार रहता है और दूसरे गिरोहों को नेस्तानाबूद करने के लिए सामंतों की तरह पेश आता है.

धनबाद के ही एक पुलिस अधिकारी ने सिखों के खिलाफ दंगों (1984) में उनकी अथाह संपत्ति लुटवायी और करोड़ों की हेराफेरी की. माफिया उन्मूलन में फिलहाल एक खास गुट को सत्ता-समर्थकों के इशारे पर कुचलने के लिए वह अक्सर कानून को अपने हाथ में लेने में नहीं हिचकता. उसे प्रशासन के वरिष्ठ लोगों का आशीर्वाद प्राप्त है. यह तथ्य इस बात का पक्का सबूत है कि धनबाद में लुटेरों और आर्थिक अपराधियों का आभिजात्य गिरोह, एक दूसरे गिरोह को इसलिए खत्म करने पर उतारू है, क्योंकि उसे खतरा है कि यह गुट कहीं उसे निगल न जाये.

सत्ता के बल पर अपराध करनेवाले सरकारी अधिकारी, पूरे शासन तंत्र को बर्बर और फासिस्ट बना देते हैं. पिछले दिनों एक पुलिस अधिकारी ने हॉकरों के घर जाकर उनकी पिटाई कर दी, इस कारण सारे अखबार के हॉकरों ने हड़ताल कर दी. ट्रकों को चौराहे पर रोक कर गैरकानूनी ढंग से पैसे वसूलने और निजी वाहनों से खुलेआम शहर में घूस लेनेवाले पुलिस अधिकारी क्या अपराधी नहीं हैं? पिछले एक दशक से धनबाद और आसपास के इलाकों में दर्जनों कानूनी घटनाएं हुईं और एक भी अभियुक्त पकड़ा नहीं जा सका. आखिर इसके लिए कोई जिम्मेदार है या नहीं? अगर पिछले एक दशक में अपराधियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो पुलिस के अधिकारियों को अपना फर्ज पूरा न करने के आरोप में क्यों नहीं दंडित किया जा रहा है? बीसीसीएल में अनेक अधिकारियों ने करोड़ों की संपत्ति अर्जित की है. नैसर्गिक न्याय का तकाजा तो यही है कि इन सबका सामूहिक ‘ट्रायल’ हो. लेकिन धनबाद में हो रहा न्याय का नाटक इस बात का प्रमाण है कि अपराधियों में भी वर्ग-भेद जड़ें जमा चुका है. जो अपराधी-लुटेरे सत्ता पक्ष और प्रशासन से जुड़े हैं, या जो प्रशासनिक अपराधी खुद अपने पद का लाभ उठा कर अपराध व धार्मिक लूटपाट में संलग्न हैं, ऐसे आभिजात्य अपराधियों के खिलाफ कभी कारगर कार्रवाई नहीं हुई.

पिछले दिनों धनबाद के डॉक्टरों ने सामूहिक रूप से स्थानीय प्रशासन का विरोध किया. उनका कहना था कि एक विशिष्ट ट्रेड यूनियन नेता (जो अभी जेल में बंद हैं) के स्वास्थ्य परीक्षण के बाद तैयार की गयी रिपोर्ट में प्रशासन धमकी देकर इच्छानुसार फेरबदल कराना चाहता था? जाहिर है, यह नेता सूर्यदेव सिंह हैं! विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार धनबाद जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने उनका परीक्षण कर हृदयरोग आदि के कारण उन्हें तत्काल अस्पताल में भरती करने का सुझाव दिया है, लेकिन स्थानीय प्रशासन की मंशा कुछ और लगती है! एक तरफ सत्ता में जुड़े अपराधियों को स्थानीय प्रशासन हर संभव संरक्षण देता है, दूसरी तरफ मातहत सरकारी अधिकारियों को विरोधी ट्रेड यूनियन से जुड़े लोगों को जलील करने की सामंती हिदायत दी जाती है.

इस संबंध में धनबाद के ही एक पूर्व सांसद की सटीक टिप्पणी है कि माफिया संस्कृति वर्तमान व्यवस्था की संस्कृति है. चूंकि इस व्यवस्था का नेतृत्व अभी कांग्रेस पार्टी कर रही है तथा पिछले दशक में जनता पार्टी को भी यह अवसर मिला था, इसलिए इन पार्टियों से ही ज्यादा माफिया जुड़े हैं.

अगर धनबाद में सरकार वाकई कुछ करना चाहती है, तो उसे पूरे प्रशासन को न्यायसंगत बनाना होगा व भ्रष्ट अधिकारियों से मुक्त कराना होगा. तब शीर्ष पर केबी सक्सेना और डीएन गौतम जैसे निष्पक्ष और ईमानदार अधिकारी आयें, तो अपराध उन्मूलन अभियान सफल होगा.

पहले फिर भी गरिमा थी

ज्ञानी जी के कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति भवन में हुए राजनीतिक षडयंत्रों की पुष्टि खुद उन्होंने अपने बयानों से कर दी है. हालांकि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के बीच विवाद नयी घटना नहीं है, लेकिन जिस घटिया स्तर पर राष्ट्रपति पद का दुरुपयोग ज्ञानी जैल जी ने किया, वह बेमिसाल है. संविधान लागू होते ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच विवाद आरंभ हो गया. लेकिन यह मतभेद राष्ट्र को पुख्ता करने की रणनीति, मुद्दों और अधिकारों के सवाल तक ही समीति था. व्यक्तिगत अहं के कारण हास्यास्पद टकराव नहीं हुए. कमोबेश मुद्दों को लेकर 1985 तक राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के बीच संयत मनमुटाव होता रहा है.

लेकिन इस क्रम में, इसके पूर्व संवैधानिक मर्यादाओं और लोकतांत्रिक परंपराओं और पदों की गरिमा पर कुठाराघात करने के प्रयास नहीं किया गया. दोनों पदों पर आसीन व्यक्तियों के मतभेद के कस्सिे अफवाहों की शक्ल में लोगों तक पहुंचते थे, लेकिन आपसी आपसी विवादों और आरोप-प्रत्यारोप से संबंधित पत्रों के मजमून इसके पूर्व कभी अखबारों में नहीं छपे. ज्ञानी जी के कार्यकाल में तो राष्ट्रपति भवन अखबारों के नुमाइंदों के लिए खबर उपजाऊ केंद्र और राजनीतिक षडयंत्र का अखाड़ा बन गया. राष्ट्रपति भवन की अफवाहें अखबारों की सुर्खियां बनने लगी थीं.

लेकिन देश के प्रथम प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच जिन मुद्दों को लेकर गंभीर मतभेद हुए उनमें से अनेक खबरें दोनों के मरणोपरांत छपी. नेहरू जी, राजगोपालाचारी को भारत का प्रथम राष्ट्रपति बनना चाहते थे, उन्होंने राजेंद्र प्रसाद को भी इसके लिए सहमत कर लिया था, लेकिन राजगोपालाचारी की 1942 की भूमिका को लेकर कांग्रेस कार्यसमिति में मतभेद हो गया. अंतत: नेहरू जी की असहमति के बावजूद राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति चुने गये. नेहरू जी राजेंद्र बाबू को दक्षिणपंथी और पुनरुत्थानवादी मानते थे. सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के समय राजेंद्र बाबू कच्छ गये. पंडित नेहरू ने उन्हें वहां जाने से मना किया. नेहरू जी का तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के सर्वोच्च शासक को धार्मिक पुनरुत्थानवाद या कर्मकांड से नहीं जुड़ना चाहिए.

राजेंद्र बाबू का कहना था कि सोमनाथ विदेशी हमलावरों से तबाह हमारा राष्ट्रीय गौरव है. नेहरू जी के सुझाव को दरकिनार कर राजेंद्र बाबू वहां गये, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सूचना मंत्रालय को उनका कच्छ भाषण आधिकारिक तौर पर वितरित करने से मना कर दिया. इसी तरह राजेंद्र बाबू जब बनारस के पंडों के पांव छुए, तो देशव्यापी प्रतक्रियिा हुई. राजेंद्र बाबू का कहना था कि ऋषियों-मनीषियों और धार्मिक वद्विानों के सामने सिर झुकाने की परंपरा हमारे समृद्ध अतीत की धरोहर है और मेरा यह काम उसी कड़ी में एक विनम्र कदम है. इसी तरह, बंबई में जब सरदार पटेल की मृत्यु हुई, तो नेहरू ने राजेंद्र बाबू को अंत्येष्टि में शरीक होने से मना किया. उनका तर्क था कि इससे एक अस्वस्थ परंपरा की नींव पड़ेगी. लेकिन राजेंद्र बाबू का कहना था कि आजादी के लौहपुरुष के सम्मान में उनका वहां उपस्थित होना आवश्यक है, राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर दोनों में नीतिगत मतभेद हुए, हिंदू कोड बिल को लेकर दोनों के बीच गहरे मतभेद हुए.

इस सबके बावजूद दोनों में कटुता नहीं आयी. 1955 में जब जवाहरलाल रूस की सफल यात्रा से लौटे, तो राजेंद्र बाबू ने उन्हें ह्यभारत रत्नह्ण से अलंकृत करने की घोषणा की. इसका विरोध हुआ, तो राजेंद्र बाबू ने कहा, ह्यवस्तुत: जवाहर तो भारत रत्न हैं ही, औपचारिक रूप से उन्हें क्यों नहीं भारत रत्न की पदवी दी जाये.ह्ण

राधाकृष्णन और जवाहरलाल नेहरू के रश्तिे बड़े मधुर थे. राधाकृष्णन मूलत: दार्शनिक और उच्च कोटि के वद्विान थे. रात में नेहरू जी उनके पास चर्चा और गपशप के लिए अचानक पहुंच जाया करते थे. भाषा आदि के सवाल पर दोनों के बीच मर्यादित मतभेद भी हुए. इस गहरी अंतरंगता के बावजूद दोनों अपने ढंग से लोकतांत्रिक सीमा के अनुकूल कार्य करते थे. राजेंद्र प्रसाद की मौत पर नेहरू जी ने राधाकृष्णन से उनकी अंत्येष्टि में न जाने का आग्रह किया. राधाकृष्णन का जवाब था कि ह्यराजेंद्र बाबू को यह सम्मान मिलना चाहिए, बल्कि आप भी मेरे साथ पटना चलें.ह्ण इसी तरह वी.के. कृष्णमेनन के मामले में नेहरू जी के सुझाव को राधाकृष्णन ने अमान्य कर दिया. फिर भी दोनों के बीच अकसर रात में दार्शनिक बहसों का दौर चलता रहा. नेहरू जी की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वस्थ जनतांत्रिक आदर्शों के अनुकूल गुलजारीलाल नंदा को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया और कांग्रेस को नया प्रधानमंत्री चुनने का अवसर दिया. लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में उनकी ऐतिहासिक भूमिका याद की जायेगी. फिर भी देश की दुर्दशा से वह कुपित थे. 1967 में गणंतत्र दिवस के अवसर पर दिये गये भाषण में उन्होंने अपनी यह चिंता प्रकट की, तो कांग्रेस ने उनके इस भाषण को ह्यविदाई का धक्काह्ण की संज्ञा दी.

डॉ राजेंद्र प्रसाद, और डॉ राधाकृष्णन के भव्य व्यक्तत्वि के अनुकूल ही डॉ जाकिर हुसैन इस पद पर आसीन हुए. इन तीनों ने इस पद की गरिमा बढ़ायी. वीवी गिरि, फखरुद्दीन अली अहमद और संजीव रेड्डी के कार्यकाल में इस पद का अवमूल्यन हुआ. लोकतंत्र के संरक्षक की अपनी भूमिका से राष्ट्रपति भटकने लगे. राष्ट्रपति भवन राजनीतिक जोड़-तोड़ का अड्डा बना. 1975 में आपातकाल के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले फखरुद्दीन अली अहमद प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से यह न कह सके कि वे अपने मंत्रिमंडल से इस विषय में परामर्श कर लें. लेकिन इन स्खलनों के बावजूद राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का विवाद सीमा के अंदर ही रहा. छोटी-छोटी घटनाओं को प्रतष्ठिा का प्रश्न बना लेने की शुरुआत वीवी गिरि के कार्यकाल में हुई. जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद जब उन्हें ह्यकार्यकारी राष्ट्रपतह्णि पद की शपथ दिलायी गयी, तो उन्होंने तत्काल ह्यकार्यकारीह्ण शब्द पर आपत्ति प्रकट की और कहा संविधान में ह्यकार्यकारीह्ण शब्द का प्रावधान ही नहीं है, अत: उन्हें राष्ट्रपति ही संबोधित किया जाये.

जनता राज में मोरारजी की नापसंदगी के बावजूद संजीव रेड्डी राष्ट्रपति हुए. दोनों ही व्यक्ति अड़ियल स्वभाव के थे. अपने कार्यकाल में उन्होंने मोरारजी की सरकार के संचालन में राजनीतिक हस्तक्षेप किया. लेकिन यह लड़ाई सड़क पर और प्रेस के माध्यम से नहीं हुई. इंदिरा जी ने ज्ञानी जी को प्रसन्न रखने की हर संभव कोशिश की. परंपराओं के अनुरूप अकसर वह उनसे मिल कर राजकाज की जानकारी देती रहीं. लेकिन ज्ञानी जी ठहरे शुद्ध संजय ब्रिगेड के राजनेता. भला जोड़-तोड़ और तिकड़म की अपनी पुरानी आदत से वह कैसे निजात पाते. गृहमंत्री के रूप में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री दरबारा सिंह के खिलाफ भिंडरांवाले के माध्यम से वह हर संभव षडयंत्र करते रहे. कभी तरलोचन सिंह जैसे अधिकारी को लेकर केंद्र सरकार को नसीहत दी, तो कभी पंजाब में राष्ट्रपति शासन के दौरान मनपसंद अधिकारियों को महत्वपूर्ण कुरसी पर बैठाने के लिए उतावले रहे. राष्ट्रपति बन कर भी वह एक मामूली राजनीतज्ञि की तरह ही ओछी हरकतें करते रहे.

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