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अध्ययन कक्ष: मनुष्य के खंडित होने की पीड़ा

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-हरिवंश- कठोपनिषद का प्रसंग है. हठी बालक नचिकेता ने यम से ‘आत्मतत्वविषयक’ सवाल पूछा. यम ने बरजा– श्रेय और प्रेय के बीच चुनाव का यह सवाल न पूछो. मर्त्यलोक के लिए इच्छानुसार भोग की दुर्लभ चीजें ले जाओ. स्वर्ग की अप्सराओं, रथ, वाद्य, घोड़े-हाथी सभी तुम्हें दे रहा हूं, परंतु यह सवाल न पूछो. यह […]

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-हरिवंश-

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कठोपनिषद का प्रसंग है. हठी बालक नचिकेता ने यम से ‘आत्मतत्वविषयक’ सवाल पूछा. यम ने बरजा– श्रेय और प्रेय के बीच चुनाव का यह सवाल न पूछो. मर्त्यलोक के लिए इच्छानुसार भोग की दुर्लभ चीजें ले जाओ. स्वर्ग की अप्सराओं, रथ, वाद्य, घोड़े-हाथी सभी तुम्हें दे रहा हूं, परंतु यह सवाल न पूछो. यह सवाल पूछनेवाला हमेशा बेचैन रहता है.

श्रेय और प्रेय के बीच जो रास्ता तलाशने की कोशिश करते हैं, वे भी हमेशा बेचैन रहते हैं. निर्मल वर्मा के निबंधों में इस बेचैनी की आहट मिलती है. पूरी सभ्यता-संस्कृति की अकुलाहट, पीड़ा और बेचैनी का एहसास करानेवाले निर्मल जी के निबंध मन को झकझोरते हैं. उनके निबंधों में निरंतरता है. चाहे आज से दशकों पूर्व चेकोस्लोवाकिया में हुए रूसी हस्तक्षेप और सत्तापलट के बारे में उनका लिखा गया लेख हो, या हाल में छपी पुस्तक ढलान से उतरते हुए (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : 55 रुपये) में संग्रहित निबंध.

इन सबमें मौजूदा सभ्यता-व्यवस्था से उपजे अंतर्विरोध-संकट का वर्णन है. मनुष्य के खंडित होने की पीड़ा है. घटाटोप अंधेरे की इंटेंसिटी का एहसास कराने का भाव है. एक मर्मांतक आकुलता है. इस छटपटाहट और बेचैनी से गुजरना ‘काजल की कोठरी’ पार करना है. निर्मल जी के निबंध मन और मस्तिष्क को बेदाग नहीं रहने देते.

लेकिन यह कसमसाहट निषेधात्मक नहीं है. इसमें पलायन का भाव नहीं, जिज्ञासु प्रवृत्ति के दरवाजे पर दस्तक देने-जगाने की कशिश है. मानव जीवन और अधिक उदात्त, सुंदर और संवेदनशील हो, इसकी छटपटाहट है. मानव गरिमा को प्रतिष्ठित करने की ललक है.

इस पुस्तक के कुछ निबंधों को ले कर आजकल निर्मल जी की कटु आलोचना हो रही है. पिछले दिनों जोधपुर में नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान के दौरान कहा कि धर्मनिरपेक्षता को आज पुन: परिभाषित करने की जरूरत है. लेखक पथ विचलित हो गया है. धर्म की वास्तविक शक्ति की पहचान के साथ आज देश के असली दुश्मन की पहचान भी जरूरी हो गयी है.

आगे उन्होंने कहा कि कुछ लेखक नये सिरे से हिंदू और मुसलमान बनते जा रहे हैं. धर्म के रास्ते से सांप्रदायिकता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति हिंदी और उर्दू के कुछ लेखकों में स्पष्ट परिलक्षित हो रही है. कुछ ऐसे मूर्धन्य लेखक, जो मानवीय गरिमा और श्रेष्ठ साहित्यिक मूल्य के लिए सम्मानित-प्रतिष्ठित थे और जिनके विषय में कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि वे हिंदुत्व का आग्रह करने लगेंगे, वे यह करने लगें, तो चिंता नहीं दहशत होने लगती है. मेरा अभिप्राय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और निर्मल वर्मा से है… निर्मल कहते हैं– हिंदू धर्म सभी गुणों की खान है, हिंदू सांप्रदायिक नहीं हो सकता, तो अचंभित होना स्वाभाविक है. ऐसे राष्ट्रीय स्तर के कवि और लेखक जब धर्म की ओर आकृष्ट हों, तब साधारण जन की बात क्या कही जाये? आधुनिकतावाद में जब धर्म के बीज दिखायी दें, तो यह चिंता की बात हो जाती है.

इतना ही नहीं, नामवर सिंह ने टीएस इलियट और एजरा पाउंड का हवाला दिया. उन्होंने इन दोनों कवियों की जड़ें पाश्चात्य आधुनिकतावाद में बतायीं, जो धर्म की गोद में पले. इन दोनों लेखकों ने धार्मिक कारणों से हिटलर-मुसोलिनी का प्रचार किया था. अज्ञेय और निर्मल वर्मा की प्रेरणाभूमि यही पाश्चात्य आधुनिकतावाद रहा है. हिंदी साहित्य मूलत: मानवीय प्रेम और सौहार्द का साहित्य रहा है, उर्दू साहित्य भी. किंतु आज सांप्रदायिकता का कीटाणु व्यापक रूप में फैल कर राष्ट्रीय स्तर के लेखकों को भी ग्रसने लगा है. अज्ञेय और निर्मल एक जमाने में विद्रोही तेवर के लिए सुवख्यिात थे. पर आज वे परिवर्तित मनोवृत्तियों के लेखक सिद्ध हो रहे हैं.

आगे इसी क्रम में नामवर सिंह ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया कि मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि धर्म को जीवन से निगेट कर दिया जाये. धर्म एक पोटेंशियल फोर्स है. इस सघन अंधकार में रोशनी की एक किरण अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में रेडिकल थियोलोजी आंदोलन के रूप में प्रस्फुटित दिखाई देती है. वे देश उसके माध्यम से बाइबिल हाथ में ले कर दासता और साम्राज्यवाद के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं. धर्म की इस ताकत को पहचान कर वामपंथी पार्टियां साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ लोकचेतना जाग्रत कर रही हैं.

निर्मल जी को सांप्रदायिक बताने के लिए ढलान से उतरते हुए निबंध संग्रह की चर्चा नामवर सिंह करते हैं.पुस्तक से आधे-अधूरे संदर्भ को उद्धृत कर निष्कर्ष निकालना लेखक के साथ न्याय नहीं है. ‘धर्म, धर्मतंत्र और राजनीति निबंध में निर्मल जी ने कहा है, ‘स्वतंत्रता के बाद हमने जिस धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण किया, उसमें इस समग्र मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं. एक भारतीय का सबसे मूल्यवान, स्मृति संपन्न और समृद्ध अंश अंधेरे में चला गया. ऊपरी जिंदगी में हम भारतीय हैं, भीतर के अंडरग्राउंड अंधेरे में हम हिंदू, मुसलमान और सिख हैं, अंधेरे में कोई विश्वास पनपता नहीं, सड़ता है, इसलिए जब कभी वह बाहर आता है, तो अपने सहज आत्मीय रूप में नहीं, बल्कि एक विकृत और दमित भावना के रूप में, समय-समय पर होनेवाले सांप्रदायिक दंगे हमें उस अंधेरे की झलक दिखाते हैं, जहां एक सेक्युलर समाज ने धर्म को फेंक दिया है… हमारे देश में ऐसे लाखों धर्मावलंबी हैं, जिन्हें एक समय अपने जीवन की अर्थवत्ता नानक और कबीर, विवेकानंद, अरविंद, गांधी और परमहंस में मिलती थी.

आज वही लोग साईं बाबा, भगवान रजनीश और संत भिंडरांवाले के पीछे जाते हैं, जिनका संबंध न आस्था से है, न धार्मिक बोध से. धर्म का पवित्र स्रोत सूखने के कारण अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए सिर्फ गंदले नाले के पास ही जा सकते हैं, जो सेक्युलर समाज के रेगस्तिान के बीचोंबीच बहता है.’

इतने बेबाक और स्पष्ट विचार से सांप्रदायिकता की बू कहां आती है! सांप्रदायिक आग्रहवाला लेखक अपने विचारों में इतना खुला और बेलौस हो ही नहीं सकता. वस्तुत: ‘धर्मनिरपेक्षता’ को हम ‘पॉजीटिव थॉट’ के रूप में विकसित करने में विफल रहे हैं. जब तक सेक्युलरिज्म उन करोड़ों-करोड़ अपढ़ भारतीयों के जीवन का हिस्सा नहीं बन पाता, तब तक इस मौजूदा सड़ांध से हम उबर नहीं पायेंगे. महज धर्म को ‘निगेट’ करने से लोगों की बुनियादी आस्थाओं पर प्रहार करने से यह कामयाबी हासिल नहीं हो सकती. इसके लिए हर भारतीय के दिलोदिमाग में पेनीट्रेट (घुसना) करना होगा. महज ‘निगेशन’ से ही कामयाबी मिलनी होती, तो धर्म को ‘अफीम’ या ‘पूंजीवादियों की रखैल’ करार करनेवाले अब तक देश को सेक्युलर बना चुके होते. लेकिन भारत की बात क्या, देसी साम्यवादियों की मातृभूमि-पितृभूमि रूस और चीन में भी धार्मिक ज्वार कुलांचे मार रहा है. दमन और निरंकुशता से ऐसी चीजों का समाधान नहीं होता. इसके लिए मानव मन को बदलने की पहल आवश्यक है. अगर निर्मल वर्मा यह कहते हैं कि हिंदू सांप्रदायिक नहीं हो सकता, तो उनका आशय है कि जो सांप्रदायिक है, वह हिंदू नहीं है. अगर हिंदू धर्म के उदात्त स्वरूप को नकारने से इस देश में धर्मनिरपेक्षता का माहौल बनता है, तो हर हिंदू को अपने धर्म को नकारना चाहिए.

लेकिन पिछले 40 वर्ष की घटनाएं गवाह हैं कि इस निषेध भाव से सांप्रदायिकता से मुक्ति नहीं मिलेगी. बल्कि गांधी की तरह छुआछूत के खिलाफ, अंधवश्विास के खिलाफ जिहाद बोलना होगा. धार्मिक मुल्लाओं-पाखंडियों से जूझना होगा. छुआछूत के खिलाफ लड़ने के कारण देवघर के पंडों ने वहां गांधी जी की पिटाई की थी. अंदर के इस संघर्ष से ही सेक्युलरज्मि की नींव इस देश में मजबूत होगी. अगर लैटिन अमेरिकी देशों में धर्म ‘पोटेंशियल फोर्स’ है, तो इस देश में भी पाखंडियों-कट्टरपंथियों से जूझने में धर्म की भूमिका निर्णायक हो सकती है. आखिर रहीम, जायसी, खुसरो और हिंदू भक्त कवियों ने आपसी सौहार्द की जो धारा बहायी, उसमें कौन सराबोर नहीं हुआ! लेकिन सभी धर्म के कठमुल्लाओं को इस धारा से खतरा दिखा और इसे देश की मुख्यधारा से नष्ट करने की कोशिश हुई.

आखिर अपनी जमीन (संस्कृति) को नकार कर हवा में सृजन की बात नहीं हो सकती. पूंजीवाद और सामंतवाद के बीच भी जो अच्छाइयां हैं, उन्हें उभार कर, सशक्त बना कर ही बदलाव की नींव को पुख्ता किया जा सकता है. आखिर रामविलास जी जैसे मार्क्सवादी भी मानते हैं कि ‘…16वीं शताब्दी से ले कर 18वीं शताब्दी तक भारत के विभिन्न भाषाई क्षेत्रों में अछूतों में कितने संत पैदा हुए. वर्ण व्यवस्था तो थी यहां, जाति व्यवस्था थी, लेकिन रैदास को संता तो माना गया… आप कल्पना कीजिए कि छठी-सातवीं शताब्दी में तमिलनाडु में एक शूद्र संत उपनिषदों का-सा महात्म्य प्राप्त करते हैं, किनी बड़ी सांस्कृतिक क्रांति है इस देश में.’(साक्षात्कार)

वस्तुत: जाति व्यवस्था और हिंदू धर्म की अंदरूनी बुराइयों के खिलाफ लड़ने से साम्यवादी मुंह चुराते रहे हैं. क्योंकि यह संघर्ष कठिन है. लेकिन इन चीजों के खिलाफ जो विचार करने के लिए उकसाते हैं, उन पर हमला बोलना सहज है. इस कारण निर्मल जी जैसे लेखक सांप्रदायिक बताये जाते हैं. भारतीय परिवेश में द्विज होने का जो कथित माहात्म्य है, अस्पृश्य-औरतों-आदिवासियों और पिछड़ों के प्रति क्रूरता है, उसके खिलाफ संघर्ष ही धर्मनिरपेक्षता का मार्ग प्रशस्त करेगा. निर्मल जी आत्मावलोकन में इन लोगों की बदहाली से आंख नहीं चुराते. अपनी आस्था पर गहरायी से सांगोपाग विचार करनेवाला सांप्रदायिक करार दिया जाने लगे, तो फिर सेक्युलर लोगों को दिये की रोशनी में तलाशना होगा.

खास कर मार्क्स के अनुयायियों को सांप्रदायिकता पर मनन करते समय अपनी खामियों पर गौर करना चाहिए, जब राजनीति और साहित्य में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मुद्दे नहीं रह जाते हैं, तब सांप्रदायिकता जीवन के हर अंग में छाने लगती है. यह देश इसी संक्रमणकाल से गुजर रहा है. यह राजनीति और समाज में व्याप्त संकट पर गहराई से विचार करने का समय है. निर्मल जी जैसे उदारवादी विचारक इस संकट की गहराई से अपने पाठकों को पूरी ईमानदारी से वाकिफ कराने की कोशिश करते हैं.

जो लोग इलियट और एजरा पाउंड को याद दिलाते हुए आसन्न भविष्य की ओर इशारा करते हैं और यह दावा करते हैं कि धर्म से प्रभावित लेखक तानाशाही-निरंकुश व्यवस्था के समर्थक हो सकते हैं, उन्हें अपने देश के हाल के अतीत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. आपातकाल में सत्ता की निरंकुशता का जिस निर्भीक ढंग से निर्मल जी ने विरोध किया था, उस विरोध-साहस की थाती के बल ही हम आज गर्व से कहते हैं कि ‘इस देश की सर्वसत्तावादी ताकत ने जब बौद्धिकों को झुकने के लिए कहा, तो वे रेंगने लगे, उस समय भी निर्मल जी जैसे लोगों ने इतिहास की उस आस्था-सात्विक क्रोध-संघर्ष को जिलाये रखा, जो किसी भी समाज की अमूल्य धरोहर है.‘ भला राजधानी दिल्ली में बसनेवाले और मार्क्सवादी लोगों से घिरे नामवर जी से बेहतर कौन जानता है कि आपातकाल में सत्ता के सामने किसने शीर्षासन किया? तानाशाहों के दरबार में चारण गीत गाने कौन लोग गये थे?

पुस्तक के अंतिम खंड में निर्मल जी ने अपनी डायरी के कुछ अंश भी दिये हैं. एक जगह उल्लेख है, ‘जिस दिन मैं यह सोच कर भी लिखता रहूंगा कि इसे पढ़ कर सब लोग मेरे मित्र और हितैषी अफसोस करेंगे और आलोचक हंसी उड़ायेंगे. तभी मैं सफलता के चक्कर से मुक्त हो कर कुछ ऐसा लिख पाऊंगा– जिसका कोई अर्थ है.’

वस्तुत: निर्मल जी के इस निबंध संग्रह के मूल में यह सोच पग-पग पर झलकता है. पश्चिमी सभ्यता के संकट और संवेदनहीन होते समाज की पीड़ा से निर्मल जी अपने पाठकों को जिस तरह रूबरू कराते हैं, वह किसी और समकालीन लेखक के निबंधों में देखने को नहीं मिलता. अपनी संपन्न दृष्टि, सुलझे विचार से वह पाठकों को उद्वेलित करते हैं. मानव समाज के सामने उत्पन्न खतरों के बारे में वह कहते हैं, ‘हम एक ऐसी सभ्यता में रहते हैं, जिसने सत्य को खोजने के लिए सब रास्तों को खोल दिया है, किंतु उसे पाने की समस्त संभावनाओं को नष्ट कर दिया है.’पर पीड़ा से आहत निर्मल जी जैसे लोग जब भी अतीत की चर्चा करते हैं, तो एक सबक के रूप में. उस अनुभव के आधार पर भविष्य को निखारने-संवारने के लिए.

अतीत के आलोक में अब सेक्युलरिज्म को नये ढंग से परिभाषित करने की आवश्यकता है. निर्मल जी एक जगह कहते भी हैं, ‘हिंदुस्तान में धर्मावलंबन है, जो सहज रूप से लोगों की जीवन-मर्यादा में रसा-बसा है. हमें उसे छद्म सांप्रदायिकता से अलग करना होगा, जो असहज है और बाहर से आरोपित की जाती है. इस दृष्टि से भारतीय चरित्र के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ या ‘सेक्युलरज्मि’ भी असहज और आरोपित है. यह बात विरोधाभास जान पड़े. किंतु सच है कि एक धर्मावलंबी भारतीय के लिए धर्म को संप्रदाय में संकुचित करना उतना ही अस्वाभाविक है, जितना धर्म के प्रति निरपेक्ष रहना. पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों के दौरान रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और गांधी जी ने हिंदू धर्म को आत्मतुष्ट संकीर्णता से उबार कर एक वृहत्तर भारतीय संस्कृति से जुड़ने के लिए उत्प्रेरित किया.

वस्तुत: इस संग्रह में ‘शताब्दी के ढलते वर्षों में’, ‘सिंगरौली– जहां कोई वापसी नहीं’और ‘ढलान से उतरते हुए’ अत्यंत ही महत्वपूर्ण और ‘थॉट प्रोवोकिंग’ निबंध है. सिंगरौलीवाले लेख में निर्मल जी ने आर्थिक विकास के वर्तमान रास्ते से बन रहे समाज की झलक दिखायी है, तो ‘ढलान से उतरते हुए’ लेख में मार्क्सवाद और रूस के अंतर्विरोधों-संकटों को चित्रित किया है. मानवीय गरिमा, समतामूलक समाज और मानवीय विवेक में आस्था रखनेवालों के लिए यह पुस्तक उल्लेखनीय है.

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