16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

जन्माष्टमी आज : सबको अपने-से प्रतीत होनेवाले देवता, कृष्ण का सखा भाव!

Advertisement

भारतीय मिथकीय पात्रों में कृष्ण सर्वाधिक अपने-से प्रतीत होनेवाले देवता या नायक हैं. कृष्ण अकेले ऐसे अवतार हैं, जो देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब जगह समान रूप से पूज्य हैं. यह प्रतिष्ठा भारतीय मिथकीय पात्रों में से किसी को नहीं मिली. इसकी वजह भी है, बाकी के सभी अवतारों में एक अभिजात्य मर्यादा […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

भारतीय मिथकीय पात्रों में कृष्ण सर्वाधिक अपने-से प्रतीत होनेवाले देवता या नायक हैं. कृष्ण अकेले ऐसे अवतार हैं, जो देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब जगह समान रूप से पूज्य हैं. यह प्रतिष्ठा भारतीय मिथकीय पात्रों में से किसी को नहीं मिली. इसकी वजह भी है, बाकी के सभी अवतारों में एक अभिजात्य मर्यादा है. उनके साथ इतने किंतु-परंतु हैं कि आमजन उनके समीप जाने से डरता है, पर कृष्ण सबके लिए हैं और सबके हैं. इसीलिए लोक कृष्ण के साथ जुड़ता है. जन्माष्टमी के मौके पर इस विशेष आलेख में लोक के साथ कृष्ण के सखा भाव को विस्तार से बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल.
शंभूनाथ शुक्ल
कृष्ण को प्रिय है सखा बनना. वे द्रौपदी के भी सखा हैं, अर्जुन के भी और दुर्योधन के भी. वे सुदामा के साथ भी इसी सखा भाव से पेश आते हैं और अपना सर्वस्व देने को आकुल हो उठते हैं.
अगर रुक्मिणी न रोकतीं, तो शायद वे सुदामा जैसे दरिद्र ब्राह्मण को अपने इसी सखाभाव के चलते सब कुछ दे डालते. कृष्ण स्वयं भी किसी का भाई बनने को आतुर नहीं हैं और वे हर एक से सखाभाव से ही मिलते हैं. वे द्रौपदी के भाई नहीं हैं, उनके साथ भी उनका सखाभाव ही है, क्योंकि सिर्फ सखा या मित्र भाव रख कर ही व्यक्ति किसी भी स्त्री-पुरुष का करीबी हो सकता है और उसके हर आड़े वक्त पर काम आ सकता है. बाकी के सारे रिश्तों में एक दूरी है, एक संकोच है, पर सखा से भला कैसा संकोच!
द्रौपदी के पास जब कुछ भी नहीं होता और दुर्वाषा ऋषि आते ही उसका पानी उतार देते कि वह कैसी गृहिणी है जो आये हुए अतिथि का सत्कार करना नहीं जानती, तो द्रौपदी किससे मदद की गुहार करती!
हालांकि उसके पास धृष्टद्युम्न और शिखंडी जैसे भाई थे तथा द्रुपद जैसे वीर और प्रतापी नरेश उसके पिता थे, वह उनसे मदद की गुहार कर सकती थी, पर वे आते ही यह तो जान ही जाते कि हस्तिनापुर के इन वीर राजकुमारों के पास इतना भी नहीं है कि वे किसी अतिथि का आदर-सत्कार कर सकें, तो उसकी भला क्या लाज रहती! कोई भी स्त्री विवाह के बाद अपने ससुराल की विपन्नता अपने मायके के समक्ष तो नहीं ही जताना चाहती. इसी तरह जब दुर्योधन के आदेश पर दुशासन उसका राजसभा में चीरहरण कर रहा होता है, तो द्रौपदी अपने प्रतापी और रणबांकुरे पिता व भाई को बुलाने के बजाय अपने सखा कृष्ण को याद करती है और कृष्ण आकर उसकी लाज कीरक्षा करते हैं.
अर्जुन को सखा कृष्ण की सलाह
वे अर्जुन के भी सखा हैं. भाई तो अर्जुन के पास पहले से ही चार और हैं, पर जब भी विपदा पड़ी, वे सदैव सलाह हेतु कृष्ण के पास ही जाते हैं. तब भी जब वे दुविधा में थे कि अपने उन भाई-बांधवों से युद्ध कैसे किया जाये, जिनके साथ रह कर वे पले-बढ़े हैं अथवा वे किस तरह सारी मर्यादा और नैतिकता की लक्ष्मणरेखाएं लांघ कर अपने पितामह भीष्म का वध करें. कैसे वे अपने अपराजेय गुरु द्रोणाचार्य को रणभूमि में युद्ध से विरत करें तथा कर्ण को तब मारें, जब वह निहत्था होकर अपने रथ का पहिया चढ़ा रहा होता है.
उस दुविधा को एक मित्र की तरह कृष्ण दूर करते हैं और एकदम व्यावहारिक मित्र की भांति सलाह देते हैं कि पार्थ रणभूमि में नैतिक-अनैतिक कुछ नहीं होता है. या तो सामनेवाले अपराजेय शत्रु का मौका ताक कर वध करो, अन्यथा वह आपका वध कर देगा. यह शिक्षा अकेले कृष्ण ही दे सकते थे. इसीलिए भारतीय मिथकीय पात्रों में कृष्ण सर्वाधिक अपने-से प्रतीत होनेवाले देवता या नायक हैं.
वे यह भी कहते हैं कि अर्जुन धर्म या अधर्म विजेता के साथ होता है. जो जीतता है वही धर्म है. धर्म विजेता का होता है, विजित पक्ष के पास तो सिर्फ संतोष रहता है कि अगर वैसा हो जाता तो हम जीत जाते. कृष्ण यही समझाते हैं कि येन-केन-प्रकारेण जीतने का प्रयास करो. रणभूमि में हो तो जीतना ही अकेला लक्ष्य होना चाहिए. यह शिक्षा कोई मित्र ही दे सकता है, पिता अथवा भाई या अन्य बंधु-बांधव नहीं.
कृष्ण और उनकी सेना
कृष्ण अर्जुन को युद्ध जीतने के हर उपाय समझाते हैं. वे अच्छी तरह जानते हैं कि अकेला अर्जुन ही ऐसा मित्र है, जो उनके हर हाव-भाव को समझता है. कृष्ण के अंदर मित्रता का गुमान भी है. वे मित्र हैं, इसलिए अपने मित्र के समक्ष मित्रता का गुमान तो पेश कर ही सकते हैं. जब कुरुक्षेत्र में रण हेतु हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन और उनके प्रतिद्वंद्वी पांडव पक्ष के अर्जुन उनसे सहायता की याचना के लिए द्वारिका पहुंचते हैं, तब कृष्ण अपने महल में सो रहे होते हैं. दुर्योधन पहले पहुंचा, इसलिए वह उनके सिरहाने बैठ कर उनके जागने का इंतजार करने लगा. दुर्योधन भी आखिर उनका मित्र था, हमउम्र था और स्वयं भी एक चक्रवर्ती सम्राट का पुत्र और युवराज भी था, इसलिए उसने अपने अनुकूल आसन ग्रहण किया.
इसके बाद आये अर्जुन. हालांकि, अर्जुन भी युधिष्ठिर के दूत और उनकी सेना के सेनापति हैं, पर उन्होंने अपना आसन सोये हुए कृष्ण के पैरों की तरफ ग्रहण किया. जब कृष्ण की नींद खुली, तो जाहिर है उन्होंने अपने पैरों की तरफ बैठे अर्जुन को पहले देखा और जब उनके सत्कार हेतु उठे, तब उनकी नजर सिरहाने पर बैठे दुर्योधन की तरफ गयी.
दोनों ही उनसे सहायता की याचना करते हैं. कृष्ण का जवाब होता है कि सहायता मैं दोनों पक्षों को करूंगा, क्योंकि आप दोनों ही मित्र हो, स्वजन हो, पर एक तरफ तो मैं अकेला युद्ध करूंगा और दूसरी तरफ मेरी 18 अक्षौहिणी सेना होगी. अब आप दोनों लोगों को तय करना है कि किसे कौन चाहिए, मैं या सेना? वे मित्रता परखने के लिए यह भी कहते हैं कि चूंकि मेरी निगाह अर्जुन की ओर पहले पड़ी इसलिए पहला हक अर्जुन का ही बनता है कि उसे क्या चाहिए. अर्जुन लपक कर कृष्ण का साथ मांगते हैं. यह सुन कर दुर्योधन प्रसन्न हो जाता है.
उसे लगता है कि अकेले कृष्ण से कई गुना ज्यादा बेहतर होगा उनकी सेना को अपनी ओर लेना. आखिर कृष्ण की सेना में सात्यिकी जैसे यादव योद्धा हैं. वह मान जाता है. अब कृष्ण तो अंतर्यामी थे, उन्हें अच्छी तरह पता था कि अर्जुन उनका साथ ही मांगेगा, पर वह इस बात को स्वयं अर्जुन के मुख से सुनना चाहते थे. यह उनका गुमान था. अगर कृष्ण पांडवों की तरफ से नहीं लड़ते, तो सोचिए महाभारत का परिणाम क्या होता!
विदुर की पत्नी भी कृष्ण की सखा
कृष्ण शुरू से ही पांडवों के पक्षधर रहे हैं. चूंकि पांडवों की मां कुंती उनकी बुआ हैं, इसलिए उनका पांडवों के साथ एक भाई का रिश्ता भी है, मगर इसी रिश्ते से वे कौरवों के भी नजदीकी हैं, पर कौरव पक्ष के युवराज दुर्योधन की कुटिलता उन्हें पसंद नहीं है. वे जब महाभारत युद्ध के पूर्व दुर्योधन को समझाने और उससे यह कहने जाते हैं कि पांडवों को पांच गांव दे दो तो पांडव शायद युद्ध से विरत हो जाएं, तो वे पूरी तैयारी के साथ जाते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास है कि दुर्योधन उन्हें अकेला आया देख कर कोई न कोई वार करेगा. दुर्योधन उन्हें बंदी बनाने की कोशिश करता भी है, पर मुंह की खाता है.
वह उन्हें भोजन के लिए न्योता देता है, पर चतुर कृष्ण उसके यहां भोजन न कर विदुर के यहां चले जाते हैं. विदुर की पत्नी कृष्ण की सखा हैं और अपने सखा के अचानक आगमन से वे इतनी खुश हो जाती हैं कि उनके स्वागत के लिए कुछ खास बनाने की बजाय सिर्फ साग लेकर आ जाती हैं. कृष्ण उसे भी चाव से खाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि दुर्योधन के भोजन में उसके घमंड का एहसास होगा, पर विदुर के यहां भोजन करने में विदुरानी की सहजता का, सखा के प्रति उनके प्रेम का.
सभी जगह समान रूप से पूजनीय
कृष्ण निजी जीवन में भी इसी सखाभाव को पसंद करते हैं. वे स्त्रियों के साथ मित्रता का, इसी सखा भाव का ही रिश्ता रखते हैं. यह उनके सखा भाव का ही असर है कि स्त्रियां उनके सखा भाव पर इस कदर फिदा हैं कि अपने पतियों व बेटों को छोड़ कर उनकी बात सुनने आती हैं.
यह कृष्ण का ही असर था कि इसलाम के अनुयायी मुसलिम राजा भी कृष्ण के रूप और लावण्य तथा उनकी अदाओं के गुलाम बने. रसखान तो लिखते ही हैं कि ‘या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहो पुर को तजि डारौं.’ वे कहते हैं कि वे कृष्ण जिनके इशारे पर यह प्रकृति नाचती है, देवराज इंद्र जिनके इशारों का इंतजार करते हैं, वे कृष्ण अपने इसी सखा भाव के चलते सामान्य सी गोपियों के पीछे छाछ के लिए भागते हैं- ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पर नाच नचावैं. अकबर के नौ रत्नों में एक अब्दुर्रहीम खानखाना तो कृष्ण के ऐसे दीवाने थे कि कृष्ण की प्रशंसा में उन्होंने संस्कृत और फारसी को मिला कर ‘मदनाष्टक’ लिख डाला.
पूरे देश में कृष्ण का यह सखा भाव ऐसा फैला कि कृष्ण के लिए लोग पागल हो जाते हैं. कृष्ण भले मथुरा में पैदा हुए हों, पर उनकी कर्मभूमि सुदूर पश्चिमी तट पर द्वारिका रही और पूर्व में जगन्नाथ पुरी में भी उनकी वही प्रतिष्ठा है. दक्षिण में वे विष्णु के अवतार हैं और तिरुपति के मंदिर में उनकी एक झलक पाने के लिए लोग अधीर हो जाते हैं.
जब मंदिर का गर्भ गृह खुलता है, तब गोविंदा-गोविंदा के नारे लगाते लोगों को देखा जा सकता है. कृष्ण अकेले ऐसे अवतार हैं, जो देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब जगह समान रूप से पूज्य हैं. यह प्रतिष्ठा भारतीय मिथकीय पात्रों में से किसी को नहीं मिली. इसकी वजह भी है, बाकी के सभी अवतारों में एक अभिजात्य मर्यादा है. उनके साथ इतने किंतु-परंतु हैं, कि आमजन उनके समीप जाने से डरता है, पर कृष्ण सबके लिए हैं और सब के हैं. इसीलिए लोक कृष्ण के साथ जुड़ता है.
कृष्ण का खिलंदड़ स्वभाव
कृष्ण का मित्र भाव और उनका खिलंदड़ी स्वभाव उनके पूरे जीवन में दिखाई पड़ता है. वे शिशुपाल का वध करते हैं, पर तब ही जब वह अपने सौ अपराध पूरे कर लेता है, क्योंकि उन्होंने उसकी भयभीत मां को वचन दिया होता है कि शिशुपाल के सौ अपराध वे क्षमा कर देंगे. अब यह कोई साधारण मानव तो नहीं कर सकता कि किसी की कटूक्तियों को मुसकरा कर टालता रहे. यह उनके खिलंदड़ी स्वभाव का ही परिचायक है. वे युद्ध के मैदान में धर्मराज युधिष्ठिर को गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा के मारे जाने के बारे में झूठ बोलने को प्रेरित करते हैं. वेे कहते हैं कि अगर यह झूठ नहीं बोला गया तो महाभारत का युद्ध जीता नहीं जा सकता, क्योंकि अपराजेय द्रोण को कोई भी पांडव योद्धा मार नहीं सकता. अश्वत्थामा नामक हाथी को भीम मार डालता है और गुरु द्रोण के समीप जाकर चिल्लाता है कि अश्वत्थामा मारा गया. द्रोण भीम को बड़बोला मान कर उसकी बात का भरोसा नहीं करते और इसकी तस्दीक के लिए युधिष्ठिर की तरफ देखते हैं.
युधिष्ठिर दुविधा में थे. पर कृष्ण के आग्रह पर कह देते हैं- अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा. हालांकि वे ‘नरो वा कुंजरो वा’ धीमे से हिचक के साथ बोलते हैं, तब तक कृष्ण अपना पांचजन्य शंख पूरी ध्वनि के साथ बजाते हैं और गुरु द्रोण हथियार रख कर बेवश हो जाते हैं. उसी समय द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न मौका पाकर गुरु द्रोण का सिर धड़ से अलग कर देता है. यह कृष्ण का खिलंदड़ी स्वभाव ही तो है कि आजन्म झूठ न बोलनेवाले युधिष्ठिर से वे झूठ बुलवा देते हैं और परिणामस्वरूप युधिष्ठिर का जो रथ जमीन से चार अंगुल ऊपर चलता था, धड़ाम से नीचे जमीन पर आ जाता है.
सबके सहायक बनने को तैयार
कृष्ण की बहन सुभद्रा अर्जुन से प्यार करती हैं, पर उनके बड़े भाई बलराम उसकी शादी किसी और से कराना चाहते हैं. इस मौके पर कृष्ण सुभद्रा की मदद करते हैं और स्वयं अर्जुन को लेकर आते हैं तथा सुभद्रा का हरण करवा देते हैं. वे खुद भी रुक्मिणी का हरण करते हैं और फिर उससे विवाह रचाते हैं.
वे अर्जुन की जान बचाने के लिए अपने भांजे और अर्जुन व सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदने के लिए भिजवाने में सहायक होते हैं. जबकि उनको पता है कि अभिमन्यु गुरु द्रोण के चक्रव्यूह को भेद नहीं पायेगा और अगर अर्जुन इस व्यूह को भेदने जाते हैं, तो जयद्रथ की ललकार का सामना और कोई नहीं कर सकता.
कृष्ण की सर्वकालिकता
कृष्ण सबके सखा हैं और इसलिए सभी के साथ उनका एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें मोह नहीं है सिर्फ कर्म है. उनकी गीता इसी कर्मयोग की व्याख्या करती है और अंगरेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में हर योद्धा ने इसी गीता से प्रेरणा ग्रहण की.
गीता आज भी उतनी ही समीचीन है, जितनी कि वह तब थी, जब लिखी गयी थी. एक तरह से देखा जाये, तो कृष्ण की सार्वभौमिकता और सर्वकालिकता निरंतर है. यही कारण है कि कृष्ण कल भी थे और आज भी हैं तथा कल भी रहेंगे.
कृष्ण और सुदामा की मित्रता
सुदामा के प्रति कृष्ण की मित्रता एक नये आयाम देती है. कृष्ण द्वारिका के शासक हैं, जहां पर हर तरह की सुख-सुविधाएं उन्हें उपलब्ध हैं, पर उनके बाल सखा सुदामा सर्वथा विपन्न विप्र हैं और संतुष्ट भी हैं.
सुदामा एक दिन बहबूदी में अपनी पत्नी को बताते हैं कि कृष्ण उनके बाल सखा हैं, तो उनकी पत्नी उनको रोज ताना देती है कि जिसके बाल सखा कृष्ण हो, उसके बीवी-बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं? वे कहते हैं, तो क्या हुआ ब्राह्मण तो गरीब होता ही है और उसका तो काम ही भीख मांगना है. पर उनकी पत्नी यह स्वीकार नहीं कर पाती और उसके रोज-रोज के तानों से आजिज आकर वे कृष्ण के दरबार में जाते हैं.
और कृष्ण को जैसे ही पता चलता है कि सुदामा नामक एक विप्र उनके द्वार आये हैं, तो वे नंगे पैर ही दरवाजे से सुदामा को लेकर आते हैं. सुदामा चरित में रीति काल के कवि नरोत्तम दास ने बड़ी ही मार्मिक कविता लिखी है. सुदामा के द्वारिका जाने के प्रसंग पर वे लिखते हैं कि द्वारिका में द्वारपाल कृष्ण को जाकर एक दीनहीन विप्र सुदामा के आने की सूचना यूं देता है-
सीस पगा न झगा तन में प्रभु जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी दुपटी अरु पांय उपानह की नहिं सामा।।
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकि सौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा।।
द्वारपाल के मुंह से सुदामा के आने की खबर सुनते ही द्वारिकाधीश कृष्ण भाग कर अपने बाल सखा को लेने जाते हैं. सुदामा कृष्ण की इस मित्र विह्वलता से गदगद हैं. वे जब देखते हैं कि कृष्ण बिना अपने पद-प्रतिष्ठा और रुतबे का विचार किये एक दीनहीन विप्र का इतना आदर-सत्कार कर रहे हैं, तो उनके मुंह से निकल पड़ता है कि आज ऐसा दीनबंधु और कौन है भला!
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पांड़े सुनि,
छांड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पांय,
भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?
कृष्ण यहीं नहीं रुकते. वे सुदामा से मिल कर इतने भावुक हो जाते हैं कि अश्रुधारा उनकी आंखों से फूट पड़ती है. नरोत्तम दास की यह रचना अतिरेकपूर्ण और विप्र महिमा का बखान है, क्योंकि सुदामा के प्रति कृष्ण की मित्रता के किस्से नये नहीं हैं. और विप्र सुदामा की कृपणता और काईंयापने को भी छुपाया नहीं गया. यहां तक कि नरोत्तमदास भी छुपा नहीं पाते. वे लिखते हैं कि सुदामा विप्रों के स्वभाव की तरह ही कृपण और काईंयां भी हैं, इसीलिए वे अपनी पत्नी द्वारा कृष्ण के प्रति बराबरी का भाव रख कर भेजे गये उपहार को दिखाने में भी संकोच बरतते हैं. लेकिन, कृष्ण का सखाभाव उनके इस संकोच को उघाड़ देता है.
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।।
कृष्ण के इस सखाभाव को देख कर भला कौन नहीं मोहित हो जायेगा.
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चांपि पोटरी कांख में, रहे कहौ केहि हेत।।
आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने।।
पोटरि कांख में चांपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने।।
कृष्ण की बाल मूरत
मध्यकाल में रसखान तो कृष्ण के ऐसे दीवाने हो गये थे कि वे अपने बादशाह वंश की ठसक छोड़ कर वृंदावन में ही जाकर रहने लगे थे. कृष्ण की बाल मूरत का जैसा वर्णन रसखान ने किया है शायद ही किसी वैष्णव कवि ने ऐसा लिखा हो. रसखान के कुछ सवैये इस तरह हैं :
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूूूं पुर को तजि डारौं,
आठहुुं सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं.
रसखान कबौं इन आंखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं.
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं.

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें