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पार्टीशन

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स्वयं प्रकाश आप कुर्बान भाई को नहीं जानते? कुर्बान भाई इस कसबे के सबसे शानदार शख्स हैं. कसबे का दिल है आजाद चौक और ऐन आजाद चौक पर कुर्बान भाई की छोटी-सी किराने की दुकान है. यहां हर समय सफेद कमीज-पाजामा पहने दो-दो, चार-चार आने का सौदा-सुलुफ मांगती बच्चों-बड़ों की भीड़ में घिरे कुर्बान भाई […]

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स्वयं प्रकाश

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आप कुर्बान भाई को नहीं जानते? कुर्बान भाई इस कसबे के सबसे शानदार शख्स हैं. कसबे का दिल है आजाद चौक और ऐन आजाद चौक पर कुर्बान भाई की छोटी-सी किराने की दुकान है. यहां हर समय सफेद कमीज-पाजामा पहने दो-दो, चार-चार आने का सौदा-सुलुफ मांगती बच्चों-बड़ों की भीड़ में घिरे कुर्बान भाई आपको नजर आ जायेंगे. भीड़ नहीं होगी, तो उकडूं बैठे कुछ लिखते होंगे.

बार-बार मोटी फ्रेम के चश्मे को उंगली से ऊपर चढ़ाते और माथे पर बिखरे आवारा, अधकचरे बालों को दायें या बायें हाथ की उंगलियों में फंसा पीछे सहेजते. यदि आप यहां से सौदा लेना चाहें तो आपका स्वागत है. सबसे वाजिब दाम और सबसे ज्यादा सही तौल और शुद्ध चीज. जिस चीज से उन्हें खुद तसल्ली नहीं होगी, कभी नहीं बेचेंगे. कभी धोखे से दुकान में आ भी गयी, तो चाहे पड़ी-पड़ी सड़ जाये- आपको साफ मना कर देंगे. मिर्च? आपके लायक नहीं है. रंग मिली हुई आ गयी है. तेल? मजेदार नहीं है. रेपसीड मिला है. दिया-बत्ती के लिए चाहें तो ले जायें.

यही वजह है कि एक बार जो यहां से सामान ले जाता है, दूसरी बार और कहीं नहीं जाता. यूं चारों तरफ बड़ी-बड़ी दुकानें हैं- सिंधियों की, मारवाड़ियों की. पर, कुर्बान भाई का मतलब है ईमानदारी. कुर्बान भाई का मतलब है- उधार की सुविधा और भरोसा.

और यह आदमी आज भी चार-चार आने के सौदे तौल रहा है! और क्यों तौल रहा है, इसकी भी एक कहानी है.

कुर्बान भाई के पिता का अजमेर में रंग का लंबा-चौड़ा कारोबार था. दो बड़े-बड़े मकान थे. हवेलियां कहनी चाहिए. नया बाजार में खूब बड़ी दुकान थी. बारह नौकर थे. घर में बग्घी तो थी ही, एक ‘बेबी ऑस्टिन’ भी थी, जो ‘सैर’ पर जाने के काम आती थी. संयुक्त परिवार था. पिता मौलाना आजाद के शैदाइयों में से थे. बड़े-बड़े लीडर और शायर घर आ कर ठहरते थे. कुर्बान भाई उस वक्त अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे. न भविष्य की चिंता थी, न बुढ़ापे का डर. मजे से जिंदगी गुजर रही थी. इश्क, शायरी, हॉस्टल, ख्वाब!

तभी पार्टीशन हो गया. दंगे हो गये. दुकान जला दी गयी. रिश्तेदार पाकिस्तान भाग गये, दो भाई कत्ल कर दिये गये. पिता ने सदमे से खटिया पकड़ ली और मर गये. नौकर घर की पूंजी ले कर भाग गये. बचे-खुचों को लेकर अपनी जान लिये-लिये कुर्बान भाई नागौर चले गये. वहां से मेड़ता, मेड़ता से टौंक. कहां जायें? कहां सिर छिपायें? क्या पाकिस्तान चले जायें?

नहीं गये. क्योंकि, जोश नहीं, क्योंकि सुरैया नहीं गयी, क्योंकि कुर्बान भाई को अच्छे लगनेवाले बहुत-से लोग नहीं गये. तो कुर्बान भाई क्यों जाते? कई जगह भटकने और कई-कई कामों में हाथ आजमाते अंत में इस शहर में परचून की दुकान खोली. दुकान के जरा जमते ही कुर्बान भाई ने अखबार खरीदना और पत्रिकाएं मंगाना शुरू कर दिया.

आहिस्ता-आहिस्ता कुर्बान भाई की दुकान पढ़े-लिखने का अड्डा बन गयी. लेक्चरर, अध्यापक, पत्रकार, पढ़ने-लिखने वाले. शाम होते ही कुर्बान भाई की दुकान ठहाकों और बहसों से गुलजार हो जाती.

कुर्बान भाई आदाब अर्ज करते… चायवाले को चाय के लिए आवाज लगाते और टाट की कोई बोरी निकाल कर चबूतरे पर बिछा देते. ग्राहकी भी चलती रहती, बहसें भी, ठहाके भी, और बीच-बीच में वह इसमें भी संकोच नहीं करते कि किसी को छाबड़ी पकड़ा कर दूर रखे थैले से किलो-भर साबूत-मिर्च भरने या फलां कनस्तर से पिसे नमक की थैली निकाल देने या दस चीजों का टोटल मिला देने जैसा काम पकड़ा दें. बड़ा मजेदार दृश्य होता कि अंगरेजी साहित्य का व्याख्याता सड़क पर खड़ा फटक-फटक कर लहसुन के छिलके उड़ा रहा है या प्रांतीय अखबार का संवाददाता उकडूं बैठ कर चबूतरे के नीचे रखी बोरी से मुल्तानी मिट्टी निकाल रहा है या इतिहास के वरिष्ठ अध्यापक…

हमलोगों के संपर्क से कुर्बान भाई बदलने लगे. उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनकी एक अदबी शख्सियत भी है. हमने उनसे उर्दू सीखी, उनकी लाइब्रेरी (जो काफी समृद्ध हो गयी थी) को तरतीब दी, रिसालों की जिल्दें बनवायी और उस लाइब्रेरी का खूब लाभ उठाया.

हमलोग कुर्बान भाई को पकड़-पकड़ कर मुशायरों-नशिस्तों में ले जाने लगे. हमने उन्हें ऐसी पत्रिकाएं दिखाई, जैसी उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थीं… ऐसे लेखकों-कवियों के बारे में बताया, जो सिर्फ उनकी कल्पना में ही थे… ऐसे शायरों की रचनाएं सुनाई, जो साकी-शराब वगैरह को कब का अलविदा कह चुके थे और ऐसी राजनीति से उनका परिचय कराया, जिसके बारे में उन्होंने अब तक सिर्फ उड़ती-उड़ती बातें ही सुनी थीं. उनके दिमाग में भी काफी मजहबी कबाड़ भरा हुआ था, शुरू से प्रबुद्ध होने के बावजूद, हम झाड़ू ले कर पिल पड़े… हमने उन्हें अखबार और विचार का चस्का लगा दिया, जैसा पहले किसी ने करना जरूरी नहीं समझा था.

एक दिन दोपहर की बात है. एक बैलगाड़ीवाले ने ठीक उनकी दुकान के सामने गाड़ी रोकी. बैल खोले और गाड़ी का अगला हिस्सा कुर्बान भाई के चबूतरे पर टिका दिया. गांव से आनेवाले इसी चौक में गाड़ियां खड़ी करते हैं, बैल खोलते हैं, और उन्हें चारा डाल कर अपना काम-काज निबटाने चले जाते हैं. लेकिन, वे गाड़ी किसी की दुकान के ऐन सामने खड़ी नहीं करते और किसी के चबूतरे पर रखने का तो सवाल ही नहीं उठता. इस शख्स ने तो इस तरह गाड़ी खड़ी की थी कि अब कोई ग्राहक कुर्बान भाई की दुकान तक पहुंच ही नहीं सकता था.

गाड़ीवाला वकील ऊखचंद का हाली था और कुर्बान भाई को मालूम था कि अभी यह गाड़ी खड़ी करके गया, तो शाम को ही लौटेगा. कुर्बान भाई ने उससे गाड़ी जरा बाजू में खड़ी करने और बैलों को किनारे बांध देने को कहा. उसने अनसुनी कर दी. कुर्बान भाई ने फिर कहा, तो एक नजर उन्हें देख कर अपने रास्ते चल पड़ा.

कुर्बान भाई ने खुद उठ कर चबूतरे पर टिके उसकी गाड़ी के अगले छोर को उठाया और गाड़ी को धक्का दे दिया,… लेकिन तभी उस आदमी ने कुर्बान भाई का गिरेबान पकड़ लिया और गालियां बकने लगा और कुर्बान का चश्मा नोच लिया और धक्का-मुक्की करने लगा. ठीक इसी समय कोर्ट से लौटते वकील ऊखचंद उधर से गुजरे और उन्होंने आवाज मार कर पूछा- क्या हुआ रे गोम्या? गोम्या बोला- म्हनै कूटै! यानी मुझे मार रहा है. वकील ऊखचंद ने पूछा- कौन? गोम्या बोला- ये मीयों!

कुर्बान भाई सन्न रह गये. बात समझ में आते-आते भीतर तक हचमचा गये. आंखों के आगे तारे नाचने लगे. वहीं, जमीन पर उकडूं बैठ गये और सिर पकड़ लिया. अंधेरे का एक ठोस गोला कलेजे से उठा और हलक में आ कर फंस गया. बरसों से जमी रुलाई एक साथ फूट पड़ने को जोर मारने लगी.

…ये क्या हुआ?… कैसे हुआ? क्या गोम्या उन्हें जानता नहीं? एक ही मिनट में वह ‘कुर्बान भाई’ से ‘मियां’ कैसे बन गये? एक मिनट भी नहीं लगा! बरसों से तिल-तिल मर कर जो प्रतिष्ठा उन्होंने बनायी…

हर दिन का, हर पल जैसे एक अग्नि-परीक्षा से गुजर कर, जो सम्मान, जो प्यार अर्जित किया… हर दिन खुद को समझा कर… कि पाकिस्तान जा कर भी कोई नवाबी नहीं मिल जाती… क्या-क्या कीमत रोज चुका कर कसबे में थोड़ा-सी सहजता उन्होंने अर्जित की थी… और कितनी बड़ी दौलत समझ रहे थे इसको… और लो! तिल-तिल करके बना पहाड़ एक फूंक में उड़ गया! एक जाहिल आदमी… लेकिन, जाहिल वो है या मैं? मैं एक मिनट-भर में ‘कुर्बान भाई’ से ‘मियां’ हो जाऊंगा, यह कभी सोचा क्यों नहीं? अपनी मेहनत का खाते हैं. फिर भी ये लोग हमें अपनी छाती का बोझ ही समझते हैं. यह बात कभी नजर क्यों नहीं आयी? पाकिस्तान चले जाते… तो लाख गुरबत बरदाश्त कर लेते… कम से कम एक ऐसी ओछी बात तो नहीं सुननी पड़ती. हैफ है. धिक्कार है? लानत है ऐसी जिंदगी पर.

अल्लाह! या अल्ल्ह!!

वकील ऊखचंद गोम्या हाली को समझाते-बुझाते साथ ले गये. गाड़ी-बैल वहीं छोड़ गये. अड़ोसियों-पड़ोसियों ने कुर्बान भाई को सम्हाला. उनकी बत्तीसी भिंच गयी थी और होठों के कोनों से झाग निकल रहे थे. लोगों ने गाड़ी-बैल हटाये. कुर्बान भाई को चबूतरे पर लिटाया! हवा की. मुंह पर ठंडे पानी के छींटे दिये. वकील ऊखचंद को गालियां दीं. कुर्बान भाई को आश्वस्त करने का प्रयत्न किया. उन्हें क्या मालूम था, कुर्बान भाई के भीतर क्या टूट गया? अभी-अभी. जिसे उन्होंने इतने बरस नहीं टूटने दिया था. अंदर की चोट दिखाई कहां देती है ?

लोग इकट्ठे हो गये. सारे कसबे में खबर फैल गयी. जिस-जिस को पता चलता गया, आता गया. हमलोग भी पहुंचे. अब बीसियों लोग थे और बीसियों बातें. काफी देर फन्नाने-फुफकारने के बाद तय हुआ कि यह बदतमीजी चुपचाप बरदाश्त नहीं करनी चाहिए. थाने में रपट लिखानी चाहिए.

लिहाजा चला जुलूस थाने… पर रास्ते में किसी को पेशाब लग गया, किसी को हगास. थाने पहुंचते-पहुंचते सिर्फ हमलोग रह गये कुर्बान भाई के साथ !

थानेदार नहीं थे. अभी-अभी मोटरसाइकिल लेकर कहीं निकल गये. मुंशी था. मुंशी ने रपट लिखने से साफ इनकार कर दिया. आधे घंटे तक हुज्जत और डेढ़ घंटे तक थानेदार की प्रतीक्षा करने के बाद अपना-सा मुंह लेकर लौट आये. शाम को फिर आयेंगे. शाम को हमलोगों के सिवा दुकान पर कोई नहीं पहुंचा. और हमलोगों के साथ थाने चलने का जरा भी उत्साह कुर्बान भाई ने नहीं दिखाया. दुकानदारी ने उन्हें जैसे एकदम व्यस्त कर लिया. जैसे हमसे बात करने का भी समय नहीं.

एक अपराध बोध के तहत हम भी कुर्बान भाई से कटे-कटे रहने लगे. हालांकि, घटना इतनी बड़ी नहीं थी, जिसे तूल दिया जाये. थानेदार तो क्या… कोई भी होता… खुद पुलिस-उलिस के चक्कर में पड़ने की बजाय जो हो गया, उसे एक जाहिल आदमी की मूर्खता मान कर भूल जाने को तैयार हो जाता! पर हमें लग रहा था… हमारे दोस्त पर हमला हुआ और हम कुछ नहीं कर सके. किसी काम नहीं आ सके. यह भी लग रहा था कि ज्यादा उत्साह दिखाया, तो कुर्बान भाई के लिए और मुसीबतें खड़ी हो जायेंगी, हम कुछ नहीं पायेंगे.

कुर्बान भाई की दुकान पर कई दिन, पहले का-सा रंगतदार जमावड़ा नहीं हुआ. वह बुझे-बुझे से रहते थे, बहुत कम बोलते थे और हमें देखते ही दुकानदारी में व्यस्त हो जाते थे. वह घुट रहे थे और घुल रहे थे… पर खुल नहीं रहे थे. हम उन्हें नहीं खोल पाये. एक दिन जब मैं पहुंचा, मेरी तरफ उनकी पीठ थी, किसी से कह रहे थे- आप क्या खाक हिस्ट्री पढ़ाते हैं? कह रहे हैं पार्टीशन हुआ था! हुआ था नहीं, हो रहा है, जारी है… और मुझे देखते ही चुप हो कर काम में लग गये.

इस कहानी का अंत अच्छा नहीं है. मैं चाहता हूं कि आप उसे नहीं पढ़ें. और पढ़ें भी तो यह जरूर सोचें कि क्या इसका कोई और अंत हो सकता था? अच्छा अंत? अगर हां, तो कैसे?

बात बस यही बची है कि कई दिन बाद जब एक दोपहर में आजाद चौक से गुजर रहा था…जिसका नाम अब संजय चौक कर दिया गया है… और वह शुक्रवार का ही दिन था… मैंने देखा कि कुर्बान भाई की दुकान के सामने लतीफ भाई खड़े हैं… और कुर्बान भाई दुकान में ताला लगा रहे हैं… और उन्होंने टोपी पहन रखी है… और फिर दोनों मसजिद की तरफ चल दिये हैं.

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