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मालिक की आरामकुर्सी

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नाजमा खान टीवी पत्रकार मायूस हूं, उदास हूं और काफी कमजोर भी हो चुकी हूं मैं. एक उम्र गुजारी है मैंने यहां. लेकिन, मेरे न चाहते हुए भी मुझे जबरन गाड़ी पर सवार कर दिया गया. ऐसा करने के लिए न मेरी इजाजत ली गयी और न घर के मालिक से कोई सलाह-मशविरा ही किया […]

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नाजमा खान

टीवी पत्रकार

मायूस हूं, उदास हूं और काफी कमजोर भी हो चुकी हूं मैं. एक उम्र गुजारी है मैंने यहां. लेकिन, मेरे न चाहते हुए भी मुझे जबरन गाड़ी पर सवार कर दिया गया. ऐसा करने के लिए न मेरी इजाजत ली गयी और न घर के मालिक से कोई सलाह-मशविरा ही किया गया. मुझे गाड़ी पर लादने के बाद हाथ झाड़ कर सब अपने-अपने कामों में लग गये. न किसी को कोई परवाह न किसी को कोई दुख.

सिर्फ ‘एक जोड़ी आंखें’ ही मेरी विदाई पर अांसू बहा रही थीं. उन आंसुओं की एक-एक बूंद में वे सारी यादें बसी हुई थीं, जो आज मुझसे दूर जा रही थीं. साथी सामान के बीच भी काफी ऊहापोह और उदासी छायी हुई थी कि अब हम बिछड़नेवाले थे. आसपास बहुत शोर मचा हुआ था, लेकिन वे एक जोड़ी आंखें और मैं, दोनों अपनी ही दुनिया में गुम थे, क्योंकि घर की हर खुशी की गवाह थी मैं.

ऐसा लग रहा था जैसे कल की ही बात हो. जब बेटा अफसर बना था, तो उस वक्त घर में कितनी खुशी से भरा हुआ जश्न का माहौल था. पूरा घर मेहमानों से भरा हुआ था. कोई दावत उड़ा रहा था, तो कोई मेरे सामने ही जलन भरी बातें कर रहा था. मैं सब कुछ देखते-सुनते हुए भी एकदम खामोश रही. हालांकि, उनकी जलन भरी बातों पर मुझे गुस्सा तो बहुत आ रहा था, पर मैं कर भी क्या सकती थी भला!

मुझे बहुत कुछ याद आने लगा. उस दिन जब बेटी की मेहंदी की रात थी, तो मुझे बैठक के बाहर ऐसे जमा दिया गया था, जैसे सारे घर की हिफाजत की जिम्मेवारी मेरे ही दो बाजुओं पर थी.

घर से अपनी विदाई के वक्त रोते-रोते बदहवास हुई बिटिया को देख कर मेरा भी दम बैठा जा रहा था. कितना अफसोस हुआ था मुझे बिटिया से बिछड़ने का.

जैसे-तैसे दिन बीतने लगे. कुछ साल और गुजरे. फिर नाती-पोते हुए. जब वे कुछ बड़े हुए, तो सब के सब मुझ पर उछल-कूद मचाते हुए खेलते रहते. तब मुझे जरा भी तकलीफ नहीं होती थी. उल्टा मेरा दिल उन बच्चों की खुशी के लिए दुआओं से भर उठता था. इसी बीच, जब घर की मालकिन दुनिया से रुखसत हुईं, तब मेरा दिल दर्द से भर कर जार-ओ-कतार रोने लगा. कितना मनहूस दिन था वह.

मालकिन के जाने के बाद एक मैं ही थी, जो मालिक का शायद इकलौती साथी बची थी. जब मालिक एक गिलास पानी के लिए गुहार लगाते, तो मेरा दिल करता कि मैं ही दौड़ कर पानी ले आऊं. लेकिन, मैं बेबस थी. कभी-कभी मैं अपनी इस बेबसी पर छटपटा उठती थी.

उस वक्त मेरे दिल को बहुत सुकून मिलता, जब मालिक सारी दुनिया से हार कर मेरे साथ मेरे पास आकर बैठते थे. ऐसा लगता था जैसे सारे गम दूर हो गये हों और तन्हाई कहीं खो गयी हो. मैं भी उनमें खो जाती और उन्हें नींद की थपकी देकर सुला देती. लेकिन, अब मेरा सबसे बड़ा दुख यह है कि अब मालिक का ख्याल कौन रखेगा! क्या अब मैं इन्हें कभी नहीं देख पाऊंगी?

इतने सालों का साथ क्या आज खत्म हो जायेगा? मैं घर वालों से कहना चाह रही थी कि मेरे लिए ना सही, कम-से-कम घर के इस बुजुर्ग का ही लिहाज किया होता! क्या मांगा था मैंने उनसे, घर का एक कोना ही तो…

मैं अपने मालिक की आरामकुर्सी हूं. अरसा पहले दीवाली के दिन ही मुझे दीवाली के बोनस से मालिक ने अपनी जिंदगी में शामिल किया था. लेकिन, आज दीवाली की सफाई में मुझे घर का कबाड़ समझ कर कबाड़ी के साथ रुखसत किया जा रहा है.

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