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2016 में तीन बड़े सवाल उभरे

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बोलने की आजादी, राष्ट्रवाद और नोटबंदी आज साल का आखिरी दिन है. नये साल के आगमन के साथ ही कल हम कालखंड के एक नये समय में प्रवेश करेंगे और साल 2016 बीती बात हो जायेगी. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था- ‘जो बीत गयी सो बात गयी.’ यानी जो कुछ बीत गया उसकी चिंता क्या […]

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बोलने की आजादी, राष्ट्रवाद और नोटबंदी
आज साल का आखिरी दिन है. नये साल के आगमन के साथ ही कल हम कालखंड के एक नये समय में प्रवेश करेंगे और साल 2016 बीती बात हो जायेगी. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था- ‘जो बीत गयी सो बात गयी.’ यानी जो कुछ बीत गया उसकी चिंता क्या करना.
नये साल के स्वागत में हमें बीती बातों को परे रखना ठीक तो है, लेकिन इस चिंतन के साथ कि नये साल में हम बीते समय की हर वह सीख याद रखेंगे, जो भविष्य को एक नया आयाम दे सके. भविष्य के नये आयाम में भूत की स्मृतियाें के रास्ते वर्तमान का चिंतन जरूरी होता है. इसी वर्तमान के चिंतन के साथ हमारे भावी देश-समाज पर तीन विशेषज्ञों के विचार वर्षांत स्वरूप प्रस्तुत हैं.
अनामिका
साहित्यकार
हम जब पीछे मुड़ कर देखते हैं, तो आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया बहुत अहम होती है. अपने भीतर झांकना एक सुंदर प्रक्रिया है अौर आनेवाले कल के लिए एक उम्मीद भी जगाती है. वर्ष 2016 को इस लिहाज से देखें, तो मुझे लगता है कि इसमें तीन बड़े प्रश्न उभरे- बोलने की आजादी, राष्ट्रवाद और डिमोनेटाइजेशन. कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में बहुत से लोगों ने अपने पुरस्कार लौटाये. इसके बाद बोलने की आजादी पर एक बहस चली. इस घटना से हमारे लिए आत्ममंथन की एक खिड़की खुली. कश्मीर और मणिपुर में जो हो रहा है, जेएनयू में जो हुआ, उस पर राष्ट्रवाद का सवाल उठा. यह बहस छिड़ी कि हमें कैसा राष्ट्रवाद चाहिए. देश प्रेम चाहिए या अंधभक्ति चाहिए! इसके बाद नोटबंदी का फैसला आ गया, तो यह सवाल उभरा कि क्या इसमें किसी तरह के आदर्श की आहट है? या यूं ही एक चुनाव जीतने के लिए तत्काल इसे लागू कर दिया गया है. ये 2016 के तीन बड़े प्रश्न हैं, जो आत्मविश्लेषण की मांग करते हैं.
संकुचित न हो खुला आकाश
मेरे लिए सबसे बड़ा प्रश्न बोलने की आजादी का है. मुझे लगता है कि जो साहित्य का अ ब स भी पढ़ता होगा या साहित्य से जिसका दूर का भी नाता होगा, वह किसी भी तरह की घेरेबंदी के खिलाफ होगा. किसी भी तरह की कट्टरता, चाहे वह हिंदुपंथी कट्टरता हो या मुसलिमपंथी कट्टरता, से उसका कोई नाता नहीं हो सकता. साहित्य का मतलब होता है इंसान को अधिक मानवीय बनाना. मनुष्यतर बनाना. मनुष्य की गरिमा घटा कर उसका अाकाश संकुचित कर देनेवाले प्रश्न साहित्यकार के लिए बहुत तकलीफदेय होते हैं. कोई कैसे खाता-पीता है, किससे प्यार करता है, क्या पहनता है, इस पर किसी तरह की टिप्पणी या प्रतिबंध की सुविधा किसी भी सरकार को नहीं हो सकती. यह आदमी के जीवन के बहुत निजी क्षण हैं. मेरी दृढ़ मान्यता है कि व्यक्ति के निजी क्षणों पर कोई भी सरकार अपना फतवा नहीं जड़ सकती.
राष्ट्रवाद एक स्वाभाविक भावना
दूसरा प्रश्न राष्ट्रवाद है. राष्ट्रप्रेम की जहां तक बात है, तो यह बहुत स्वाभाविक भावना है. मेरी पैदाइश भारत-चीन युद्ध के समय की है. मुझे याद तो नहीं है, लेकिन मैं सुनती रही हूं कि उस समय महिलाएं सेना के लिए अपने सारे गहने दे देती थीं. जवानों के लिए घरों में स्वेटर बुने जाते थे. एक वक्त निराहार रह कर लोग देश के लिए अनाज जुटा रहे थे. अपने देश, अपनी परंपराओं से प्रेम तो हमेशा से हमारे जीवन का हिस्सा रहा है. दरअसल, हर देश के लोगों में यह भावना होती है.
देश प्रेम का गहरा अर्थ
मैं नार्वे गयी थी, तो वहां एक ऑक्शन की दुकान थी, जहां पर धनी लोग अपनी चीजें रख जाते हैं और कहते हैं इसमें से गरीबों के देने के लिए तोहफे ले जाइये या गरीब लोग खुद उन चीजों को कम कीमत पर खरीद सकते हैं. पास ही कोई गोष्ठी होनीवाली थी, वहां जाने से पहले हम उस दुकान के पास यूं ही खड़े थे. एक लड़की वहां मुस्कुराते हुए खड़ी थी, तो हम आपस में बात करने लगे. फिर उसने अपनी चीजें हमें दिखायीं, तो उसमें सब चीजें अमेरिका, इंगलैंड और ऐसे ही दूसरे देशों की थीं. हमने ऐसे ही हंस कर उससे पूछ लिया कि क्या नार्वे में तुम्हारी अपनी कोई चीज नहीं है, जो तुम्हारे देश की ही हो. इस बात को सुनते ही वह लड़की बहुत तेजी से अंदर की ओर दौड़ी और वहां खोजने लगी कि उसे नार्वे की कोई चीज मिल जाये, जाे वहां के उद्योग का हिस्सा हो, जिसे वह बाहरी पर्यटकों को दिखा सके.
उसका दौड़ना मैं कभी भूलती ही नहीं. वह दौड़ कर एक गुड़िया जैसी चीज लेकर आयी और बोली ‘देखिये, देखिये ये हमारे नार्वे का है.’ यह है तो बहुत साधारण सी बात, लेकिन इसमें देश प्रेम का गहरा अर्थ छिपा है. मैं दिल्ली हाट जाती हूं और वहां अलग-अलग राज्यों से आये कारीगरों से मिलती हूं, उनकी कला को देखती हूं, तो मुझे लगता है कि जो मेरे देश का, मेरी परंपरा का हिस्सा है, उससे मैं कैसे न प्रेम करूं.
प्रेम करने का अर्थ
यह सच है कि देश हो या माता-पिता, इन्हें अगर कोई गाली देता है, तो अच्छा नहीं लगता है. लेकिन, मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘कोई तुम्हे गाली दे और वह गाली तुम्हें बुरी लग जाये, तो समझो कि तुम गाली के ही लायक थे.’ मुझे इस बात ने बहुत प्रभावित किया.
बुद्ध ने एक और बहुत सुंदर उपमान दिया है, ओशो ने इसकी बड़ी सुंदर व्याख्या भी की है. बुद्ध कहते थे कि ‘हमें खाली कुएं की तरह हो जाना चाहिए. खाली कुएं में बाल्टी डालो, तो ढनढनाहट की आवाज तो आयेगी, लेकिन पानी बाहर नहीं आयेगा, खाली बाल्टी ऊपर आ जायेगी. इसी तरह जब कोई गाली देता है, तो तुम शून्य हो जाओ भीतर से. उसे ग्रहण न करो. उसको पानी भर कर वापस करने का अवकाश न लो. पानी से यानी अपने अहंकार से शून्य हो जाओ.’ यह बात एक सूत्र की तरह मेरे भीतर बैठ गयी है. कोई अगर मुझे, मेरे माता-पिता, मेरे देश को गाली ही दे दे, तो मैं उस पर अपना सर न फोड़ूं.
अपने माता-पिता से प्रेम करने का मतलब यह नहीं है कि दूसरे के माता-पिता कोअपशब्द कहें. यह बात देश के लिए भी लागू होती है. बुद्ध का जो संतुलन का सिद्धांत था, उसमें एक सम्यक दृष्टिवाली बात थी. इसलिए हमें राष्ट्रवाद और उग्रता के बीच के फर्क को समझना होगा. बुद्ध ने एक और बहुत अच्छी बात कही है कि लोग दूसरे का तो स्वामी बनना चाहते हैं, लेकिन अपना स्वामी खुद नहीं बन पाते. अपनी वृत्तियों पर तो नियंत्रण ही नहीं है, पर दूसरों पर नियंत्रण करना चाहते हैं. ये कैसी बात हुई भला! प्रेम में उग्रता का कोई स्थान नहीं, फिर वह देश प्रेम हो या व्यक्ति प्रेम. श्रेष्ठताग्रंथि या उग्रता जनतंत्र में किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हैं.
कालेधन पर नियंत्रण की संभावना!
डिमोनेटाइजेशन तीसरा बड़ा प्रश्न है. इसका परिदृश्य अभी उलझा हुआ है. इस कदम से आम लोगों को, खासतौर पर गरीब लोगों को बहुत असुविधा हो रही है, लेकिन एक उम्मीद भी है कि इससे कालाधन रखनेवालों को थोड़ा ही सही, झटका लगा होगा. डिमोनेटाइजेशन से उपजी तात्कालिक मुश्किलें तो बहुत हैं, लेकिन अभी इसका कुछ परिणाम नजर नहीं अा रहा है. अब यह देखना है कि आगे क्या होता है. अगर यह कुछ दिनों की असुविधा है अौर इससे कालेधन पर नियंत्रण की थोड़ी सी भी संभावना है, तो यह अच्छा कदम माना जायेगा. लेकिन, इसके लिए अभी इंतजार करना होगा.
आनेवाले वक्त में गहरायेगी
प्रजातांत्रिक चेतना
कुल मिला कर अभी संघर्ष का समय है, लेकिन एक बड़ी उपलब्धि भी है कि प्रजातांत्रिक चेतना गहरा रही है. रोज जाे सवाल उठ रहे हैं, जिस तरह की बहसें हो रही हैं, वे बताती हैं कि यह प्रजातांत्रिक चेतना गहराने का मौसम है. सोचती हुई आंखें हैं सबकी. यह इस दौर की सबसे बड़ी ताकत है. जनतंत्र कि सफलता के लिए यह बहुत जरूरी है कि लोग सोचें और आत्मविश्लेषण करें.
अपना संघर्ष व्यक्ति यदि आदर्शवादिता के साथ कायम रखता है, तो अलग बात हाेती है. मुझे लगता है कि आनेवाले वर्ष में प्रजातांत्रिक चेतना और गहरायेगी. हमारी चेतना में जिनका रंग है, वह चाहे मार्क्स, लेनिन हों या गांधी और नेल्सन मंडेला, हमारे चिंतन में आज भी आग भरते हैं. इन सबकी ताकत इनका आत्मलब था. हममें भी यह आत्मबल जगा रहे, यही कामना है मेरी.
(बातचीत : प्रीति सिंह परिहार)
बेहतर विकास के लिए राजनीतिक सोच में बदलाव जरूरी
शिव विश्वनाथन
समाजशास्त्री
वर्ष 2016 कई मायनों में समाज और देश के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता है. सबसे पहले इस पूरे साल अच्छे संस्थानों को कमजोर करने की कोशिश हुई. यूनिवर्सिटी से लेकर अन्य शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता को कमजोर करने के लिए कई कदम उठाये गये. इसी देश में दादरी में एक व्यक्ति को मांस के नाम पर भीड़ ने मार दिया. ऐसी घटनाओं का समाज पर बहुत असर पड़ता है. नोटबंदी को भ्रष्टाचार समाप्त करने के तौर पर पेश किया जा रहा है. लेकिन, नोटबंदी के बाद विकास, किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, सांप्रदायिक तनाव जैसे मुद्दे पीछे छूट गये. नोटबंदी पर लोगों को हुई परेशानी के बाद डिजिटल इकोनॉमी की चरचा को हवा दी गयी. अन्य मुद्दों से लोगों का ध्यान पूरी तरह भटक गया है और लोग चुप हैं.
लोकतंत्र की अनकही कहानी
नोटबंदी मध्यवर्ग के लिए सुधार हो सकता है, लेकिन इससे गरीबों को काफी परेशानी हो रही है. गरीब लोग नकद में लेन-देन करते हैं और रोजाना की दिहाड़ी उन्हें नकद में ही मिलती है. पहले ही शहरी व्यवस्था से गरीब को दूर कर दिया गया है. शहरों में मध्यवर्ग और अमीर लोगों की सुविधाओं का ख्याल रखा जाता है. ऐसे में नोटबंदी की सबसे बड़ी मार गरीबों पर ही पड़ रही है. भ्रष्ट लोगों को पहले ही सरकार के भावी कदमों के बारे में जानकारी लग जाती है. वैसे भी भ्रष्ट लोग जमीन, सोने में पैसा निवेश कर कालेधन को सफेद बना चुके हैं. यह हमारे लोकतंत्र की अनकही कहानी है.
पर्यावरण की अनदेखी
सरकार का डिजिटलाइजेशन का काम आधार पार्ट-2 है और इसे पूरा करने में कम से कम 10 साल लगेगे. नोटबंदी का फैसला जल्दबाजी में सुधार के लिए उठाया गया कदम है. देखने में आ रहा है कि सिविल सोसाइटी और पर्यावरणविदों को पूरी तरह से कमजोर कर दिया गया है. सरकार की गलत नीतियों का विरोध करनेवाली ताकतों को हर स्तर पर कमजोर करने की कोशिश की जा रही है. सरकार सौर ऊर्जा की बात करती है, लेकिन उसका ध्यान न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने पर है. सिविल सोसाइटी और पर्यावरणविदों की कमजोर होती आवाज के कारण आज लोगों के विरोध के बावजूद ऐसे प्लांट लगाने की कोशिश की जा रही है, इससे पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान हो रहा है.
संस्थानों की स्वतंत्रता का सवाल
जिस प्रकार शिक्षण संस्थानों की स्वतंत्रता को खत्म किया जा रहा है. सरकार पाठ्यक्रम के साथ छेड़छाड़ कर रही है. यह संविधान के साथ छेड़छाड़ के समान है. उसी प्रकार सेना का उपयोग राजनीतिक फायदे के लिए किया जा रहा है. अगर यह क्रम जारी रहा, तो भारतीय लोकतंत्र को खतरा पैदा हो सकता है.
कहा जा रहा है कि वैश्वीकरण के बाद वैश्विक स्तर पर भारत का प्रभाव बढ़ा है. लेकिन, दूसरे देशों में जाने पर ऐसा कुछ नहीं दिखता है. चीन और यूरोपीय देशों की तुलना में भारत की स्थिति पहले जैसी ही है. वैश्विक स्तर पर प्रभाव बनाने के लिए कहा जाता है कि भारत के बाजार को बड़ा करना होगा, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग के बिना ऐसा संभव नहीं है. हम विकास को सतत नहीं रख पाये हैं. पर्यावरणीय बदलाव के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा हुई हैं. लेकिन, इन समस्याओं को राष्ट्रवाद के नीचे दबा दिया गया है.
जमीन पर नहीं उतरतीं योजनाएं
देश में स्वच्छ भारत अभियान के साथ गंगा सफाई के लिए अभियान चलाया जा रहा है. लेकिन, जमीनी स्तर पर इसका असर नहीं दिख रहा है. उद्यमिता बढ़ाने के लिए स्टार्ट की बात की जा रही है.
आइटी सेक्टर में स्टार्ट अप से हालात नहीं बदलेंगे. स्टार्ट अप गांवों में होना चाहिए, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था से ही विकास दर आगे बढ़ेगी. आज कश्मीर से लेकर मणिपुर तक में हालात सामान्य नहीं है. अाफ्सपा के दम पर इन जगहों की स्थितियों को नियंत्रित किया जा रहा है. पूरे देश में कहीं कोई सकारात्मक असर नहीं दिख रहा है. इन हालातों में सिविल सोसाइटी और मीडिया का अहम रोल है. लेकिन, आजकल मीडिया की खबरें आलोचानात्मक कम हो रही हैं. टीवी मीडिया का रोल तो और भी खराब होता जा रहा है. यह बेहद खतरनाक स्थिति है. कहीं कोई चरचा नहीं है.
देरी की राजनीति का दौर
संसद में कामकाज को बंद कर दिया जाता है. न्यायिक नियुक्तियों में देरी हो रही है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में रिक्तियों को भरा नहीं जा रहा है. नीति-निर्माण में देरी हो रही है. इन सबके मद्देनजर देखें, तो देरी की राजनीति का एक नया दौर चल रहा है. आज हाउसिंग से लेकर कृषि क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहा है. संकट के कारण बेरोजगारी बढ़ रही है. आज सामाजिक आंदोलन कमजोर हो गये हैं. ऐसे माहौल में निष्पक्ष मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. समाज में बदलाव अंगरेजी पत्रकारिता से नहीं, बल्कि हिंदी और क्षेत्रीय पत्रकारिता से ही आ सकता है. उम्मीद है कि आनेवाले साल में समाज से सांप्रदायिक तनाव कम होगा और देश सतत विकास के रास्ते पर आगे बढ़ेगा, लेकिन, इसके लिए राजनीतिक सोच बदलनी होगी.
शंकर अय्यर
आर्थिक पत्रकार
हमें नीति और अर्थव्यवस्था के फर्क को समझना जरूरी है. मौजूदा वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की दर 7 फीसदी की रही, जबकि बाकी देशों में विकास दर कम हुई है. हमारी अर्थव्यवस्था के लिए चिंता की बात है निर्यात का कम होना. पूरे विश्व में व्यापार कम होने के कारण निर्यात पर असर पड़ा है. अच्छी बात है कि इस दौरान महंगाई कम हुई है. सरकार ने चालू घाटा और वित्तीय घाटे को कम करने में सफलता पायी है. इसके लिए सब्सिडी के बोझ को कम किया गया है. खाद, रसायन, उर्वरक और पेट्रो पदार्थ पर सब्सिडी को कम करने के सरकार के प्रयास कारगर साबित हुए हैं.
औद्योगिक विकास जरूरी
भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास में खपत का बड़ा योगदान रहा है, जबकि औद्योगिक विकास में उतार-चढ़ाव देखा गया. सतत विकास के लिए औद्योगिक विकास का होना जरूरी है. साथ ही मौजूदा साल में निर्यात के साथ ही बैंक क्रेडिट में स्थिरता बनी रही. वैश्विक स्तर पर मांग में कमी आने के कारण निर्यात कम हुआ अौर औद्योगिक प्रदर्शन- जैसे सीमेंट और स्टील कंपनियां अपनी क्षमता से एक तिहाई कम मांग से परेशान रही हैं.
अच्छे मॉनसून से होगा फायदा
पिछले दो साल के सूखे के बाद देश में मॉनसून अच्छा रहा और इससे कृषि क्षेत्र के विकास की बेहतर संभावना है.अच्छे मॉनसून का असर दिख रहा है. अगर नीति के तौर पर बात करें, तो जीएसटी का पास होना एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है. हालांकि, इसे कैसे लागू किया जाये, इसे लेकर अभी बहस चल रही है. लेकिन, जीएसटी के लागू होने की संभावना है और इससे उपभोक्ता वाले राज्यों को फायदा होने की उम्मीद है. इससे विकसित और पिछड़े राज्यों के बीच संतुलन बनने की संभावना है.
रोजगार सृजन के बड़े क्षेत्र
साल 2016 के दौरान कई क्षेत्रों में प्रगति हुई है, लेकिन रियल इस्टेट, हाउसिंग, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में विकास होने रोजगार की संभावनाओं पर असर पड़ा है. ये रोजगार सृजन के सबसे बड़े क्षेत्र हैं. हर महीने 10 लाख लोग श्रम बाजार में आ रहे हैं और रोजगार की कमी होना सरकार के लिए राजनीतिक तौर पर एक बड़ा संकट है. आनेवाले साल में उम्मीद की जा सकती है कि हमारी सरकारें इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार कर अच्छी नीतियों की पहलें करेंगी, जिससे कि रोजगार के अवसर उत्पन्न हो सकेंगे.
नोटबंदी पर सवाल लाजिमी
हम तकनीक के दौर में चल रहे हैं. विभिन्न प्रकार के एप और नयी तकनीक के कारण भी नौकरियां कम हुई हैं. किसी सरकार के लिए आर्थिक और राजनीतिक तौर पर रोजगार के संकट को दूर करना एक बड़ी चुनौती होती है. नोटबंदी को सरकार का एक बड़ा कदम माना जा सकता है. नोटबंदी के नीयत पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है, लेकिन इसके अमल के तौर-तरीकों को लेकर सवाल उठना लाजिमी है. नोटबंदी के फैसले के बाद जिन क्षेत्रों को नुकसान हुआ, आम लोगों को हुई या हाे रही परेशानी को लेकर सरकार क्या रोडमैप पेश करती है, आगामी बजट में यह देखनेवाली बात होगी.
ट्रंप के शपथ लेने के बाद
गौरतलब है कि 20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे. पूर्व में प्रवासियों और रोजगार के लेकर उनके बयानों को ध्यान में रखने की जरूरत है. वे अमेरिका में निवेश बढ़ाने के लिए कॉरपोरेट टैक्स में बड़ी कटौती कर सकते हैं. इससे पूरे विश्व में निवेश प्रभावित होगा. हाल में फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में बदलाव किया है और घोषणा की है कि आनेवाले समय में इसमें और बदलाव किया जायेगा. इससे निश्चित तौर पर रुपये और शेयर बाजार पर प्रभाव पड़ेगा.
आगामी विधानसभा चुनाव
घरेलू मोरचे पर उत्तर प्रदेश, पंजाब और अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इन चुनावों को लेकर सरकार क्या लोकलुभावन वादों की घोषणा बजट में करती है. आर्थिक तौर पर अगले साल की रूपरेखा 20 जनवरी से 1 फरवरी के बीच तय हाे जायेगी. फरवरी तक बैंकों में कितने पैसे पुराने नोट के तौर पर जमा हो जायेंगे, इसका आकलन भी हो जायेगा और इससे सरकार को कर के तौर पर कितना हासिल हुआ, यह भी पता चल जायेगा. लेकिन, एक बात साफ है कि 2017 चुनौतियाें का साल होगा. हर साल एक करोड़ बेरोजगार लोग देश के जॉब मार्केट में आते हैं. अगर वे बेकार रहेंगे, उन्हें नौकरियां नहीं मिलेंगी, तो इसका बड़ा राजनीतिक असर दिखेगा.
बजट पर होंगी निगाहें
यूराेप में अगले 6 महीने में फ्रांस, जर्मनी और नीदरलैंड में चुनाव होने हैं. इन चुनाव नतीजों पर यूरोपीय यूनियन का भविष्य टिका है. मार्च तक ब्रिटेन इससे अलग हो जायेगा. वहीं दूसरी ओर चीन हिंद महासागर में अपनी गतिविधियों को तेज कर रहा है. इसका सामरिक असर पड़ना तय है.
लेकिन, भारत के लिए अच्छी बात यह है कि अगले साल भी कच्चे तेल का दाम 50-60 डॉलर प्रति बैरल के आसपास रहेगा. इससे महंगाई दर के नियंत्रण में रहने की संभावना है. सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती रोजगार के अवसर बढ़ाने, मैन्युफक्चरिंग और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने को लेकर रहेगी.
अगर ये सारे क्षेत्र विकास की रफ्तार पकड़ेंगे, तो निश्चित तौर पर रोजगार और आर्थिक विकास की गति तेज होगी. नोटबंदी के बाद सबकी निगाहें आगामी बजट में सरकार के उपायों पर रहेगी और यही देश की अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा को तय करेगा.

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