उत्तर प्रदेश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार की उमर महज चंद दिन शेष रह गयी है, पर कुनबे में लगी आग बुझने का नाम ही नहीं ले रही. ऐसे में यहां यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि पिता-पुत्र के बीच चल रही रार से कहीं न कहीं जनता के समक्ष असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, क्योंकि एक तरफ असहाय बाप है, तो दूसरी तरफ वह बागी बेटा जो तथाकथित विकासपुरुष है, जो अपने दम पर कुछ कर गुजरने की क्षमता रखता है. वह नये जमाने का मुगल है, जो सत्ता पाना तो चाहता है, मगर उससे मोह नहीं रखता है.
निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा जब बाप-बेटे के बीच सत्ता की बागडोर अपने हाथों में थामने को लेकर रिश्ते दावं पर लगा दिये गये होंगे. अखिलेश यादव को यकायक चार सालों बाद उन्होंने पार्टी को पाक-साफ बनाने का बीड़ा खुद पर उठा लिया. अपने चाचा तक को भी नहीं बख्शा. रिश्ते दावं पर लगते गये. पिता बीच में आये, तो उन्होंने उनसे अध्यक्षता छीन ली और तब से अब तक बाप बेटे में शह-मात का खेल जारी है.
नवीन शर्मा, इमेल से