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योग के मूल को बचाया स्वामी निरंजनानंद ने

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बाल योग मित्रमंडल स्थापना दिवस कुमार कृष्णन स्वामी निरंजनानंद को योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के ​लिए पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया है. बगैर शोर-शराबे के योग-संस्कृति को फैलानेवाले स्वामी निरंजनानंद आत्मप्रचार से हमेशा दूर रहे. स्वामीजी ने अपने गुरु स्वामी सत्यानंद द्वारा स्थापित मुंगेर स्थित बिहार योग विद्यालय को उपयोगी संस्थान बना दिया […]

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बाल योग मित्रमंडल स्थापना दिवस
कुमार कृष्णन
स्वामी निरंजनानंद को योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के ​लिए पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया है. बगैर शोर-शराबे के योग-संस्कृति को फैलानेवाले स्वामी निरंजनानंद आत्मप्रचार से हमेशा दूर रहे. स्वामीजी ने अपने गुरु स्वामी सत्यानंद द्वारा स्थापित मुंगेर स्थित बिहार योग विद्यालय को उपयोगी संस्थान बना दिया है. आज परमहंस स्वामी ​निरंजनानंद जी का जन्मदिन और बाल योग मित्रमंडल का स्थापना दिवस है. जानिए स्वामी निरंजनानंदजी का व्यक्तित्व और कृतित्व.
बात 1956 की है. जब स्वामी निरंजनानंद के गुरु स्वामी सत्यानंद ऋषिकेश स्थित स्वामी शिवानंद के आश्रम मे रह रहे थे. उन्होंने स्वामी सत्यानंद को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम्हारा जाने का समय आ गया है. जाओ. दुनिया में परिव्राजक की तरह घूमो. दुनिया को योग सिखाओ.
स्वामी सत्यानंद संसार के लिए निकले. 1963 तक परिव्राजक की तरह भ्रमण करते रहे. स्वामी सत्यानंद को बीस साल मिले और इस अवधि में दुनिया को सत्यानंद के जरिये योग मिला.
इन्हीं बीस सालों में मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई, जहां से निकल कर सत्यानंद पूरी दुनिया में जाते थे और पूरी दुनिया से लोग निकल कर बिहार योग विद्यालय पहुंचते थे. एक से एक प्रामाणिक, वैज्ञानिक योग ग्रंथों का प्रकाशन हुआ. बीसवीं सदी में योग का जो पुनर्जागरण होना था, बिहार योग विद्यालय उसका केंद्र बन गया और स्वामी सत्यानंद सूत्रधार.
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा महाद्वीप होगा, जहां स्वामी सत्यानंद ने योग का बीज न बोया हो. अरब से लेकर अमेरिका तक. अफ्रीका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक. स्वामी शिवानंद का परिव्राजक संन्यासी पूरी दुनिया में घूम घूमकर योग बीज बो रहा था, जो आगे चल कर पुष्पित और पल्लवित होनेवाला था.
लेकिन, एक तरफ जहां वे वर्तमान की सख्त जमीन पर योग बीज रोपित कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ वे भविष्य में इसके रखरखाव की योजना पर भी काम कर रहे थे, ताकि कोई फूल खिलने से पहले न कुम्हला जाये. यह कोई दस-बीस साल का मामला नहीं था. अब तो यह शताब्दियों का मामला है. एक पवित्र परंपरा के पुनर्जागरण काल में सिर्फ वर्तमान नहीं होता. उसका अपना एक भविष्य होता है और उस भविष्य की अपनी एक दैवीय योजना. चार साल के स्वामी निरंजन इसी दैवीय योजना का हिस्सा होकर बिहार स्कूल ऑफ योगा पहुंचे थे.
1964 बिहार स्कूल ऑफ योगा और स्वामी निरंजन दोनों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण साल है. इसी साल मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई और इसी साल चार साल के निरंजन योग विद्यालय में प्रविष्ट हुए. छतीसगढ़ के राजनांदगांव में 14 फरवरी, 1960 को जन्मे स्वामी निरंजनानंद की जीवनदिशा उनके गुरु स्वामी सत्यांनद द्वारा निर्देशित रही. यहां उन्हें गुरु ने योगनिद्रा के माध्यम से योग और अध्यात्म का प्रशिक्षण दिया. कम उम्र में ही वे इतने योग्य हो चुके थे कि स्वामी सत्यानंद ने उन्हें दशनामी संन्यास परंपरा में दीक्षित करने के बाद काम पर लगा दिया. उन्हें विदेशों में योग केंद्रों की स्थापना करनी थी.
जहां योग केंद्र स्थापित हो चुके थे, उनके संचालन को भी सुनिश्चित करना था. उन्हें न सिर्फ योग समझाना था, बल्कि दुनिया की विविध संस्कृतियों को समझना भी था. सांस्कृतिक एकता के यौगिक सूत्रों की खोज करनी थी. अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेेलिया तक. वहां उन्होंने विशेष तौर पर घ्यान और प्राणायाम के क्षेत्र में अनुसंधान का काम अल्फा रिसर्च के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ जो कामिया के साथ काम किया.
सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया के ग्लैडमैन मेमोरियल सेंटर के जापानी डॉ टॉड मिकुरिया ने उन पर ध्यान संबधी शोध किये. जिस समय स्वामी निरंजनानंद विदेश के लिए निकले, तो उस समय स्वामी सत्यानंद के योग आंदोलन के परिणामस्वरूप केवल फ्रांस में 77 हजार पंजीकृत येाग शिक्षक थे. उस समय के लिए यह बहुत बड़ी संख्या थी. उन दिनों वे सिर्फ इन योग शिक्षकों को प्रशिक्षित करते थे, ताकि वे अपने स्कूलों मे लौट कर विद्यार्थियों को प्रशिक्षित कर सकें. बाद में यह आंदोलन ‘रिसर्च आॅन योगा इन एड्यूकेशन के नाम से पूरी दुनिया में फैल गया.
यूरोप में इस आंदोलन का सूत्रपात पेरिस की स्वामी योगभक्ति, कनाडा में स्वामी अरुंधती ने आरंभ किया गया. इस आंदोलन का नाम ‘योगा एजुकेशन इन स्कूल’ रखा गया. परिणामस्वरूप यह उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका में काफी लोकप्रिय हुआ. इसके परिणामस्वरूप अनेक देशों की शिक्षा पद्धति में योग को शामिल किया गया. निरंजनानंद सरस्वती ने 1983 तक वह सब किया. 23 साल की उम्र तक जब तक कोई नौजवान काम करने के लिए घर से बाहर कदम रखता है, तब तक स्वामी निरंजन अपने हिस्से का एक बड़ा काम पूरा करके वापस लौट आये थे. अब उनके हिस्से आगे की जिम्मेदारियां आनेवाली थीं.
भारत लौटने के बाद उन्होंने बिहार योग विद्यालय को विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा तक ले गये, लेकिन साथ ही साथ वे समूचे विश्व में स्वामी सत्यानंद के बीजारोपण की माली की तरह रखवाली भी करते रहे. वर्ष 1993 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद गंगा दर्शन में बाल योग मित्र मंडल की स्थापना की गयी. इसका आरंभ मुंगेर के सात छोटे बच्चों से किया गया और आज मुंगेर शहर में ही बाल योग मित्र मंडल 5000 से अधिक प्रशिक्षित बच्चे योग शिक्षक हैं. मुंगेर में यह संख्या 35 हजार और पूरे भारत में 1,50000 हैं. इन बच्चों ने तीन आसनों, दो प्रणायामों,शिथिलीकरण एंव धारणा के एक-एक अभ्यास का चयन किया.
यह प्रयोग सात सौ बच्चों पर किया गया और उसकी रचनात्मकता, व्यवहार और व्यक्तिगत अनुशासन पर हुए असर की जांच की गयी तो इसमें गुणात्मक परिवर्तन पाया गया. दरअसल स्वामी सत्यानंद सरस्वती का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि यदि हम बच्चों तक पहुंच पाते हैं और उनके जीवन की गुणवत्ता और प्रतिभा में सुधार ला पाते हैं, तो वे अपनी रचनात्मकता का अधिकतम उपयोग कर अपने भावी जीवन के तनावों और संघर्षों का सामना बेहतर ढंग से कर पायेंगे. तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम दो बार मुंगेर बच्चों के कार्यक्रम में आये. उन्होंने मुंगेर को योगनगरी की संज्ञा दी.
स्वामी निरंजनानंद ने वर्ष 1994 में विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती की तथा वर्ष 2000 में योग पब्लिकेशन ट्रस्ट की स्थापना की. मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों के संचालन के साथ उन्होंने दुनिया भर के साधकों का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक रूप से यात्राएं की.
वर्ष 2009 में गुरु के आदेशानुसार संन्यास जीवन का एक नया अध्याय आरंभ किया. योग दर्शन, अभ्यास एवं जीवनशैली की गहन जानकारी रखनेवाले स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने योग, तंत्र, उपनिषद पर अनेक प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं. योग का मानव प्रतिभा के रूप में किस प्रकार इस्तेमाल हो, इसके लिए निरंतर प्रत्यनशील हैं. उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि प्रचार में विश्वास न कर काम में यकीन करते हैं.
वर्ष 2013 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद उन्होंने भारत यात्रा का एलान किया और वर्ष 2014 के लिए चार जगहें चुनी गयीं- काठमांडू, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली. इन चारों जगहों पर योगोत्सव का आयोजन किया गया.
अपनी तरह की यह पहल कुछ ऐसी ही अनूठी है, जैसे साठ या सत्तर के दशक में स्वामी सत्यानंद ने विदेशों में की थी. वहां लोगों को योग से परिचय की जरूरत थी, लेकिन भारत में ‘स्वयं’ की विस्मृति बहुत भयावह हो चली है. खासकर महानगरों में. सभ्य हो जाने के बाजारू अंधानुकरण में हमने ‘स्वयं’ के हजार हिस्से कर दिये हैं और किस हिस्से को हम कहां किस बाजार में गिरवी रख आये हैं, गिरवी रखने के बाद यह हम खुद भूल गये हैं.
स्वामी सत्यानंद लोक कल्याण के लिए योग और संन्यास की एक पगडंडी बनाते जा रहे थे और आनेवाले समय में निरंजनानंद को उसी पगडंडी पर आगे बढ़ना था. और उस पगडंडी के दो ही सिरे हैं योग और संन्यास. मुंगेर और रिखिया. स्वामी सत्यानंद ने अपने आचरण से एक संन्यासी के लिए योग को कर्म और संन्यास को सेवा के रूप में सिर्फ परिभाषित ही नहीं किया, बल्कि प्रस्थापित भी किया.
स्वामी निरंजन की यह भारत यात्रा भारत के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी कभी स्वामी सत्यानंद की यूरोप या आस्ट्रेलिया की यात्राएं हुआ करती थीं. उन्हें खुद स्वामी सत्यानंद ने भविष्य के लिए चुना हो, परमहंस की उपाधि दी हो वे कोई सामान्य संन्यासी कैसे हो सकते हैं भला? स्वामी निरंजनानंद जी के मुताबिक योग एक साधना है कोई फिजिकल एक्सरसाइज नहीं.
आप दौड़ कर, शरीर को आगे-पीछे घुमा कर और सांस ऊपर-नीचे कर अपना स्वास्थ्य फिट तो रख सकते हैं, पर योग का मतलब है अपने मन पर काबू कर लेना. मन काबू रहेगा तो यह अकिंचन स्वास्थ्य क्षणिक सुख नहीं, बल्कि आपके जीवन को वह अपार सुख देगा, जिससे आप पूरा जीवन एक अलौकिक सुख और कांति के साथ जी सकते हैं. इस साधना को पाने के लिए आपको एरोबिक एक्सरसाइज नहीं करनी पड़ेगी, वरन् मन को एकाग्र करना पड़ेगा. चित्त स्थिर होगा तो योग पूर्ण होगा.
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