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सकारात्मक पहल जरूरी

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स्कूल-कॉलेज बंद और मोबाइल-इंटरनेट सेवाएं ठप्प, वह भी अनिश्चित समय के लिए! ऐसा लगता है कि कश्मीर में 2016 की जुलाई-अगस्त का मुश्किल वक्त फिर से लौट आया है. सरकार की चिंता है कि नौजवानों के स्कूल-कॉलेज या चौक-चौराहे पर आने-जाने पर अंकुश न रखा गया, मोबाइल-इंटरनेट सेवाएं गंभीर स्थिति को देखते हुए रोकी न […]

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स्कूल-कॉलेज बंद और मोबाइल-इंटरनेट सेवाएं ठप्प, वह भी अनिश्चित समय के लिए! ऐसा लगता है कि कश्मीर में 2016 की जुलाई-अगस्त का मुश्किल वक्त फिर से लौट आया है. सरकार की चिंता है कि नौजवानों के स्कूल-कॉलेज या चौक-चौराहे पर आने-जाने पर अंकुश न रखा गया, मोबाइल-इंटरनेट सेवाएं गंभीर स्थिति को देखते हुए रोकी न गयीं, तो अशांति बढ़ सकती है.
राजसत्ता की वैधता को चुनौती मिलने का नकारात्मक संदेश भी जा सकता है. एक ऐसे समय में जब छवियों के निर्माण और ध्वंस के सहारे ही किसी सत्ता की वैधता के कथानक रचे और बिगाड़े जाते हैं, सरकार की चिंता जायज लग सकती है. लेकिन, इस चिंता से आगे का यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि क्या सार्वजनिक जीवन में निरंतर प्रतिबंधों के जरिये अलगाववादी भावनाओं से निपट पाना संभव है.
श्रीनगर संसदीय सीट के उपचुनाव में मामूली मतदान, लोगों और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसा में मौतें, और फिर पुनर्मतदान में केवल दो फीसदी मतदान क्या देश को यह संदेश सुनाने के लिए काफी नहीं हैं कि कश्मीर में पहला और सबसे जरूरी काम ‘जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत’ की नीति और नीयत पर लोगों का भरोसा कायम करने का है? कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. ऐसे में कश्मीर के साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया जा सकता है, जिससे देश के किसी दुश्मन को यह कहने का अवसर मिले कि घाटी एक रणक्षेत्र बन चुकी है और वहां सामान्य राष्ट्रीय जीवन के नियम-कायदे इस हद तक ध्वस्त हो चुके हैं कि राजसत्ता आपातकालीन उपायों के सहारे काम चला रही है. बीते पच्चीस सालों में कश्मीरी अलगाववाद के कथानक ने कई करवटें बदली हैं.
कश्मीरी अलगाववाद को पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद, इस्लामी अतिवाद, विकास और क्षेत्रीय स्वायत्तता की कमी जैसे कई लेंसों से समझने की कोशिश हुई. इन सबको एक साथ मिला दें तो कश्मीर की समस्या की समग्रता में एक तस्वीर बनती है. इसी समझ से पिछली सरकारों ने अमन वे उपाय किये कि 2014 के चुनावों में कश्मीर में संतोषजनक मतदान हुआ और उम्मीद यह बंधी कि कश्मीर में अमन-चैन का दौर स्थापित होगा. लेकिन, इस उम्मीद को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका. कश्मीरी असंतोष से और उससे हिंसक तरीके से निपटने का रवैया पाकिस्तान और अलगाववादियों के मंसूबों को ही मजबूती देगा.
इस माहौल में उन्हें अपने स्वार्थों को साधने का मौका मिलेगा तथा वे भारत-विरोधी भावनाओं को और उकसा सकेंगे. ऐसे में केंद्र और राज्य सरकार को नरमी बरतते हुए बातचीत के विकल्प पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, ताकि समुचित राजनीतिक समाधान का रास्ता खुल सके.

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