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एक सप्ताह से मन खिन्न हो उठा था. मायके जाने का विचार अकस्मात जागा. खिन्नता किचित कम हुई. पर अपने मन में कोई बहाना जमा नहीं. उन्हें कैसे बताऊं? पिछले 20 वर्षों से बहाना ही तो बनाना पड़ता रहा है. जब कभी छपरा जाने को मन मचलता, उन्हें मनाने में ही दो-चार दिन निकल जाते. […]

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एक सप्ताह से मन खिन्न हो उठा था. मायके जाने का विचार अकस्मात जागा. खिन्नता किचित कम हुई. पर अपने मन में कोई बहाना जमा नहीं. उन्हें कैसे बताऊं? पिछले 20 वर्षों से बहाना ही तो बनाना पड़ता रहा है. जब कभी छपरा जाने को मन मचलता, उन्हें मनाने में ही दो-चार दिन निकल जाते. ‘तुम्हें इतनी जल्दी क्या पड़ी रहती है, मायके जाने की? कल ही तुम्हारे पिताजी आये थे, पिछले सप्ताह तो मां आयी थीं…’
ये प्रश्न हाजिरजवाब पत्नी की भी जबान बंद कर जाते. सचमुच, क्यों जल्दी रहती थी मुझे? पिताजी एक सप्ताह में एक, दो या कभी-कभी तीन चक्कर भी लग जाते. मां भी आ जातीं. कभी डॉक्टर को दिखाने शहर जाना है, तो कभी कोई सिनेमा-सर्कस आया है. कभी बेटी को ही देखे बहुत दिन हो गये. मां को भी पिताजी से अनेक बहाने बनाने पड़ते थे. वह तो पिताजी थे, जो मां की बेटी से मिलने की अबोली बेकली को परदानशीन ही रहने देते और उन्हें शहर लाकर मुझसे मिला दिया करते.
शादी के लगभग दो साल तक मेरे किराये के मकान में मां नहीं आयीं. बेटी की ससुरालवाली बात तो थी. तब मुझे ही हर छोटे-बड़े पर्व-त्योहार पर बुला लिया करतीं. अकसर पिताजी ही बुलाने आया करते. गांव में मां-पिताजी अकेले रहते थे और मेरे इकलौते भैया सपरिवार कलकत्ता में. दामाद की बड़ी खुशामद करनी पड़ती, ‘अभी तो इनकी पढ़ाई का समय है, वैसे ही अंगरेजी कमजोर है. बार-बार मायके जाने लगी तो फिर पढ़ाई का…’
मेरी पढ़ाई का उनसे भी ज्यादा ध्यान रखते पिताजी. वे इतनी ही सफाई दे पाते, ‘क्या करूं! इसकी मां नहीं मानती. इसके न जाने से तो उसका खाना-पीना भी… अच्छा ऐसा करता हूं, इसे शाम को ले जाता हूं. सुबह पहुंचा दूंगा. रिक्शावाले को दरवाजे पर ही रोक लूंगा. तड़के शहर पहुंचा जायेगा.’
मैं परदे के पीछे से इनकी भृकुटी निहारती. पिताजी के सामने तो वह तनने से रहे, अंदर आते ही मुझ पर भुनभुनाते, ‘उंहूं, छह मील पर ससुराल न हुई, एक आफत हो गयी.!’
मैं चुप रहने का आग्रह करती, कहीं पिताजी न सुन लें! मेरे दुर्बल इशारे को सबल स्वरों में जवाब मिलता, ‘जाओ-जाओ! खूब खीर-पूड़ी खाओ, परीक्षा में भी लड्डू ही खाने पड़ेगे.’
मैं उनकी कुढ़न की अवहेलना करती हुई एक डोलची में साड़ी-बलाउज डालती और पिताजी के साथ चलने के लिए उद्यत हो जाती.
पिताजी की दबी जबान फड़फड़ाने की कोशिश करती, ‘इसकी मां ने कहा था… कि मेहनमानजी (दामाद) को भी…’
‘नहीं! मैं नहीं जाऊंगा. मुझे आज एक मीटिंग में जाना है.’ जवाब साधा हुआ रहता, मानो प्रश्न-पत्र आउट हो रहे हों.
‘ठीक ही कहते हैं. आपको कैसे फुरसत होगी! मैं उसे यही तो समझाता रहता हूं. वह ठहरी अनपढ़ औरत, उसे कामकाजी लोगों की व्यस्तता का अंदाजा नहीं. दाल भरी दो पूड़ियां और खीर खिलाने के लिए परेशान रहती है. दामाद भी आयें, बेटी भी आये! मैं उसे कैसे समझाऊं कि शहर में तो लोग रोज तरह-तरह की मिठाइयां खाते रहते हैं, तुम्हारी इस पूड़ी-खीर का क्या…’
रिक्शाशाले द्वारा घंटी बजा देने से इन्हें भी राहत मिलती और मुझे भी. मुझे हमेशा भय रहता- कहीं उनकी सहनशक्ति धैर्य न खो दे, ये पिताजी को जवाब न दे दें और अंत में मेरा जाना न रुक जाये.
घर पहुंचने पर मां दरवाजे पर ही बैठी मिल जातीं. रिक्शे की खटर-पटर से आश्वस्त होती हुई आवाज लगातीं, ‘अरी भूलनी, जरा लालटेन तेज कर दो!’
लालटेन की धुंधली रोशनी के सहारे मचिया पर बैठे-ही-बैठे रिक्शे से उतरनेवालों की संख्या गिनने की कोशिश करतीं. मेरे पांव छूते ही उनका पहला प्रश्न होता, ‘मेहमानजी नहीं आये?’
मैं चुपचाप अंदर चली जाती. वे पिताजी पर उबल पड़तीं, ‘आप नहीं लाये न मेहमान को. इती मेहनत से खीर बनायी है. कहां-कहां से दूध मंगवाया! व्रत-त्योहार का दिन है, कोई दूध देता भी नहीं. पूड़ी की दाल भी गरम मसाला डाल कर भूंजी थी. मुझे लगता है, आप मेहमानजी को नहीं…’
पिताजी गरज उठते, ‘बेकार की बातें बंद करो. खुद ही क्यों नहीं चली गयी बुलाने? मेहमानजी इनकी खीर खाने अपना काम छोड़ कर आयेंगे! इतने बड़े अफसर हैं और उनको यही…’ झुंझलाते हुए अपनी टोपी उतार कर आरामकुरसी में धंस जाते पिताजी. मां बड़ी मुश्किल से अपने गठियाग्रस्त वजनी शरीर को मचिया से उठा पातीं. कमर सीधी करने में बिताये समय का सदुपयोग पिताजी की झल्लाहट सुनने में जाता.
‘ठीक ही कहते हैं आप. हम अनपढ़ लोग क्या जानें उनका कामकाज! सुबह कुछ बना कर किसी के हाथ भेज दूंगी.’ अपने को समझाती हुई मां अंदर जाने का सश्रम उपक्रम करतीं. पिताजी उनकी योजना में संशोधन करते, ‘किसी के हाथ नहीं. बिल्कुल सुबह मधु को ही लौटना है! उसी के साथ..’
‘लो! तब इसे भी क्यों बुला लाये? रात भर के लिए आना क्या जरूरी था?’ पुन: एक बार बड़ी कठिनाई से लौट कर उफनतीं.
सचमुच, मां का मन बैठ जाता. मक्की की रोटी, महिजाउर (मट्ठा-चावल), चावल की रोटी, बड़ी-कढ़ी, अडकौंच (अरुइ के बत्ती की सब्जी), तपरुआ (पकौड़ी), तिलौड़ी- न जाने क्या-क्या बना कर खिलाने की योजना का कार्यान्वयन भला उतने अल्प समय में कैसे हो सकता था? रात से सुबह तक जो भी बन पड़ता, खिलातीं; सहेज देतीं, कुछ बनाने का सामान बांध देतीं, योजनानुसार सूची से बचे हुए खाद्य पदार्थ को मेरे अगले आगमन के समय बनाने और खिलाने की योजना मन में संजो कर संतोष करतीं.
पिताजी वादे के पक्के थे. तड़के ही मुझे शहर भेज देते. मां सुबह चार बजे ही उठ कर कुछ-न-कुछ बांधती रहतीं. मेरे ‘ना-ना’ करने पर भी अनेक छोटी-बड़ी पोटलियां बांध जातीं. उनके दामाद को कौन-सी चीज, कैसे खिलाऊं, इसका भी सविस्तार निर्देश होता. शहर पहुंच कर मैं उन पोटलियों को इनकी गिद्ध-दृष्टि से छिपा कर झल्लाहट से बचने का अथक प्रयत्न करती. पर कभी बच नहीं पायी. वे मुझे यथार्थ का आभास कराते, ‘मधु, जरा सोचो तो. कितने का सामान होगा यह सब मिला कर? मुश्किल से केवल पांच-दस रुपये का न! क्या शहर में ये सारे सामान नहीं मिलते? तुम वभनमोटरी (पंडितजी को दान में मिले अन्नों की पोटलियां) उठा लाती हो? तुम्हारे गांव के लोग क्या सोचते होंगे? और अपने पड़ोसवाले भी…’
मैं एसे चुप रहती, जैसे दांतों के बीच जिह्वा ही न हो. उनका कहना बिल्कुल ठीक ही तो होता था. उन गठरियों में भरे सामाने में से अधिकांश का तो मैं उपयोग भी नहीं कर पाती थी. फिर क्यों उठा लाती थी? मां को मना तो कर सकती थी, ‘मां, तुम्हारी यह दो सेर मूंग, एक पाव सरसों, एक पाव धनिया, थोड़ी-सी मिर्च, नीबू एक-दो खीरा, एक कद्दू… मुझे नहीं चाहिए. आखिर मेरे अफसर पति की कमाई और खर्च के आगे ऊंट के मुंह में जीरा ही तो होगा यह सब. इतना सामान तो मेरा नौकर ही फेंक देता है.’
इतना अवश्य होता कि डाइनिंग टेबल को राष्ट्रीय एकता का मंच बनाने में सफल प्रयास में मुझे अपनी मेहनत पर ही पश्चाताप होता, जब छोले-भठूरे, उपमा, डोसे, नारियल की चटनी का परित्याग करते हुए ये बार-बार तीसी की चटनी, भुनी हुई मूंग का भुरता, तिलौड़ी की ही मांग कर बैठते, प्लेटों को बिल्कुल चाट ही जाते. और इसीलिए शायद मां को मना नहीं कर पाती थी.
दिन बीतते गये, बच्चे हुए. मां मेरे घर भी आने लगीं. अपने साथ भी अनेक गठरियां सहेज लातीं. पर इन्हें हमेशा की तरह वे गठरियां दर्द देती रहीं. परिवार बढ़ा था, घर का खर्च भी. नौकर, दाई, ड्राइवर, चपरासी के खाने-पीने से चौके का भी खर्च बढ़ गया था. आमदनी के अनुसार खर्च का बढ़ना हमें अखरता नहीं. हमारा खर्च ज्यों-ज्यों बढ़ा था, मां की गठरियों की संख्या और वजन घटता गया था. इनकी लाख परोक्ष अथवा अपरोक्ष वर्जना से उनका आयात बंद नहीं हुआ.
मुझे तो उन गठरियों को खोलते ही उनसे निकलता एक अबोध स्पर्श थपथपा जाता. रोम-रोम झनझना उठता, पुलकित हो उठता.
मैं अपनी कार से मायके जाने लगी थी. मां बहुत वृद्ध हो गयी थीं. उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया था. दो महीने में एक बार मैं अवश्य चली जाती. अव्वल तो मुझे अब समय निकालना ही मुश्किल होता था. मां की बीमारी का हाल सुन कर यह अनमने ढंग से ही सही, जाने की अनुमति दे देते थे.
उस दिन जब छपरा गयी तब भैया-भाभी भी कलतत्ता से साल भर बाद मां को देखने आये थे. मैं किरण, मंजू एवं मुकुल से उलझ बैठी थी. बहुत दिन बाद ‘फूआ-फूआ’ से आंगन गूंज उठा था. भाभी से गप्पें मारने की अलग पड़ी थी. उधर मां हल्ला मचाये जा रही थीं, मधु! सुनो इधर. मधु! आओ न, फिर बैठी रहना… मधु! एक पल में तुम्हारे जाने का समय हो जायेगा, मेरे पास बैठो, हाय भगवान! मेरी कमर. मेरी टांगें.’
मैं बच्चों की संगति का बिछोह संभाले जा बैठी मां के पास. उन्हें कुछ भी सुनना-सुनाना तो था नहीं, आवाज मंद कर कहने लगीं, ‘दखिनवारी घर में चली जा.
वहां एक हांड़ी में मूंग रखी है, उसमें से ले लो, थोड़ा मकई का आटा ले लो, नवीन को भूंजा अच्छा लगता है, एक-दो मकई की बाल भी ले लो. प्रवीण को खीर बड़ी अच्छी लगती है, थोड़ा गमकौआ (गमकता) चावल ले लो, आएं.. मेरी कमर, हाय! मैं तो उठ भी नहीं सकती.’
मैं अपलक उन्हें निहारती रही. वे कभी कलाई में पड़ी सवा दो इंच की एक दर्जन नयी चूड़ियों को निहारतीं, उन्हें घुमाने का व्यर्थ प्रयत्न करतीं. मेरी बांह सहलातीं, कभी मेरे मांसल पेटल पर हाथ फेरती हुई इतना भर कह पातीं, ‘बड़ी दुबली हो गयी है! जा, बेटी, जा सब बांध ले.’
मैं ‘ना’ भी नहीं कह पायी, बगल के आंगन में मेरी चाची आ गयी थीं. उनसे आग्रह कर मां ने मेरे लिए सब सामान बंधवाया. इस बार मुझे बड़ा बुरा लगा था. पता नहीं, वह कौन-सा भय था कि उन गठरियों को अस्वीकार न कर सकी. भैया शहर तक मेरे साथ आये थे. कार की डिक्की से निकाल कर लाते समय गठिरयों को चपरासी के हाथ में देखते ही दरवाजे पर बैठे मेरे पति उबल पड़े, ‘क्या ला रही हो! फेंक दो उधर. उठा लाती है धरोहर-मोटरी. लाख बार मना किया, मेरे घर यह सब मत लाया करो. ये मानें…’ मेरी पांव बैठक में पड़ा ही था कि मैं झटके से पीछे मुड़ कर इन्हें चुप रहने का इशारा कर गयी, ‘क्यों चुप रहूं जी? तुमसे कितनी बार कहा, मेरे घर गठरियां मत ढोया करो…,’ आवाज सामान्य कर बोले, ‘आइए-आइए, आप भी हैं.
आप कब आये?’ कहते हुए भैया की अगवानी करने लगे. मेरी जान में जान आयी. पुन: इस भय से कांप उठी कि कहीं भैया ने न सुन लिया हो इनका गर्जन. भैया ने सुना था या नहीं, यह उनके व्यवहार से पता चला, न ही मैंने पूछे. क्यों पूछ कर अपना मन दुखाती. किसकी गलती बताती. मरन-शय्या पर पड़ी मां की, अपनी या उनकी? चुप रहना ही ठीक लगा. साल भर के भीतर मां गयी. उनकी बरसी के दिन ही उनका पीछा करते हुए पिताजी हमें छोड़ गये. बड़ी हिम्मत बटोर कर मैंने प्रश्न किया, मैं छपरा जाऊं?’ प्रश्न के साथ ही एक तिरछी निगाह उछल कर मेरे ऊपर पड़ी, ‘कमाल है. अब क्या करना है छपरा में? अब तो मां भी नहीं. क्या मकान के दर्शन करने जाओगी?
(लंबी कहानी का संपादित अंश)

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