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लोकतंत्र में ही होता है एंटी इमर्जेंसी इम्युनाइजेशन सिस्टम

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-प्रेम कुमार- क्या ‘आपातकाल’ लोकतंत्र की जरूरत थी? लोकतंत्र को क्या किसी ‘आपातकाल’ के सहारे की जरूरत पड़ती है? भारत के संदर्भ में 1975 को याद करें तो कांग्रेस के अलावा किसी का देश पर शासन तक नहीं रहा था. जो लोकतंत्र लगातार कांग्रेस को सत्ता में बनाए रख रहा था, उसी लोकतंत्र को क्यों […]

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-प्रेम कुमार-

क्या ‘आपातकाल’ लोकतंत्र की जरूरत थी? लोकतंत्र को क्या किसी ‘आपातकाल’ के सहारे की जरूरत पड़ती है? भारत के संदर्भ में 1975 को याद करें तो कांग्रेस के अलावा किसी का देश पर शासन तक नहीं रहा था. जो लोकतंत्र लगातार कांग्रेस को सत्ता में बनाए रख रहा था, उसी लोकतंत्र को क्यों जंजीरों में बांधने की जरूरत आ पड़ी? उसी लोकतंत्र को क्यों ‘आपातकाल’ के भूखे शेर के सामने परोस दिया गया? हालांकि लोकतंत्र की ये ताकत ही थी कि घायल होने के बावजूद आपातकाल के चंगुल से वह निकलने में कामयाब रहा, लेकिन ऐसा करते हुए संघर्ष और खौफ के साये में दो महत्वपूर्ण साल बर्बाद हो गये. जो मानसिक, शारीरिक वेदना मिली, उसका दंश लम्बे समय तक देश को सालता रहा क्योंकि लोकतंत्र तो उसका खून था. जब ख़ून में खराबी आने लगे, तो शरीर के हिस्से जवाब देने लगते हैं. लेकिन, लोकतंत्र के खून में ही एंटी इमर्जेंसी इम्यूनाइजेशन सिस्टम भी होता है, यह देश को पहली बार पता चला.
तब ‘आपातकाल क्यों’ पूछना भी गैरकानूनी था!
25-26 जून की दरम्यानी रात देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी. सारे नागरिक अधिकार निलंबित हो गये. विरोधी नेता गिरफ्तार कर लिए गये. न विरोध, न प्रदर्शन क्योंकि यह गैरकानूनी हो गया, क्यों? क्योंकि देश को अंदरूनी और बाहरी दोनों किस्म के खतरों से बचाना जरूरी बताया गया. सच पूछें, तो ‘क्यों?’ पूछने का अधिकार भी नहीं था, वो तो बस इंदिरा सरकार ने अपनी ओर से सूचना की शक्ल में समझाइश देने की ‘ईमानदार’ कोशिश की थी. वामदलों ने बिना समझाए इस कोशिश को अपने काल्पनिक तर्कों से समझ लिया था. इस तरह यह आपातकाल आजादी की लड़ाई में सक्रिय भाग लेने वालों कांग्रेस और वामदलों की मिली-जुली कवायद थी, जो देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का तानाबाना बुनने वालों में थे, संविधान में ‘समाजवाद’ जुड़वाने वालों में रहे.
…और लोकतंत्र का गला घोंटने को तैयार हो गयीं इंदिरा
एक बार फिर साबित हुआ कि सत्ता एक ऐसा नशा है जो एक बार चढ़ जाने पर उतरने को तैयार नहीं होती और इस नशे को बरकरार रखने के लिए लोकतंत्र का गला घोंटने को भी तैयार होने में वक्त नहीं लगता. इंदिरा गांधी इलाहाबाद हाईकोर्ट से 12 जून को रायबरेली सीट का चुनाव रद्द कर दिए जाने के बाद कुर्सी छोड़ने, न छोड़ने पर मंथन के दौर से गुजरीं. एक तरफ तो तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद के पास उन्होंने अपना इस्तीफा भी भेज दिया, उनका इस्तीफा स्वीकर कर लिया गया. वहीं, सत्ता की चाबी हाथ से निकलता देख उन्होंने जल्द ही पैंतरा बदल लिया. देश में इमर्जेंसी थोप दी गयी. खुद को सत्ता से जोड़े रखने के लिए जोर-जबरदस्ती का सहारा लिया गया. प्रेस की स्वतंत्रता तक खत्म कर दी गयी। अखबार, रेडियो सब पर सरकारी नियंत्रण हो गया.
न इंदिरा कांग्रेस में लोकतंत्र था, न इंदिरा में रहा
सवाल ये है कि क्या एक व्यक्ति विशेष में इतनी ताकत होती है कि वह लोकतंत्र का गला घोंट दे? इंदिरा गांधी कांग्रेस का नेतृत्व थीं और कांग्रेस खुद लोकतांत्रिक ढांचा नहीं रह गयी थी। कांग्रेस को इन्दिरा कांग्रेस के नाम से जाना जाने लगा था और इस पार्टी का जन्म ही अधिकनायकवाद को माला पहनाने के रूप में हुआ था। बावजूद इसके इसने लोकतांत्रिक चोला पहन लिया और सत्ता के नशे में इंदिरा कांग्रेस और खुद इंदिरा गांधी लोकतंत्र का मुखौटा दिखने लगीं। कम्युनिस्ट भी स्वभाव से अधिनायकवादी रहे हैं इसलिए उन्हें भी यह मुखौटा सच्चा लगा।
आपातकाल के दौरान संघर्ष को याद रखना जरूरी
42 साल बाद आपातकाल को याद करने के पीछे आपातकाल के खिलाफ संघर्ष को याद करना मकसद होना चाहिए। कोई राजनीतिक दल अगर आपातकाल को इसलिए याद रखता है कि कांग्रेस या इंदिरा गांधी को कोसा जा सके, उन्हें गलत दिखाया और बताया जा सके- तो इसका उद्देश्य संकीर्ण हो जाता है। वहीं जब आपातकाल के पीछे के कारण और संघर्ष को हम याद करते हैं तो उसका मतलब होता है लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई को याद करना और अगली पीढ़ियों तक उसे पहुंचाते रहने की जरूरत समझना ताकि दोबारा ऐसी स्थिति उत्पन्न ना हो. और अगर हो, तो और अधिक मजबूती के साथ लोकतंत्र की रक्षा की जा सके. 42 साल बाद आपातकाल को याद करने का तरीका आपको मीडिया में इस विषय पर उपलब्ध सामग्री देखकर समझ में आ जाएगा. आपातकाल के संघर्ष की कहानी शायद ही दिखे। जो दिखेगी, वह भी उन लोगों की होगी, जो आज राजनीतिक रूप से ताकतवर होंगे. जबकि, जरूरत इस बात की है कि आपातकाल के असली सेनानायकों के संघर्षों को सामने लाया जाए, क्योंकि वास्तव में वही प्रेरणा देंगे।
राजनीतिक व्यवस्था में हैं आपातकाल के बीज
आपातकाल के बीज आज भी राजनीतिक व्यवस्था में पड़े हुए हैं। लोकतंत्र खुद राजनीतिक दलों के भीतर जंजीरों में जकड़ा हुआ है। देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है बीजेपी, लेकिन आरोप यही लगते रहे हैं कि इस पार्टी में वही होता है जो आरएसएस का नेतृत्व तय करता है। पीएम उम्मीदवार आडवाणी होंगे या नरेंद्र मोदी, इसे तय करने के लिए बीजेपी के भीतर किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निचले सिरे से ऊपरी सिरे तक पालन नहीं किया गया, बल्कि सबसे ऊंची कमेटी में चर्चा के लिए प्रस्ताव लाकर उसे पारित कर दिया गया. यह बहुत कुछ ऐसा ही है जैसे यूपीए ने चुनाव जीतने के बाद सोनिया गांधी को अपना नेता चुन लिया था जिसके खिलाफ सुषमा स्वराज, उमा भारती समेत बीजेपी नेताओं ने अनन्त आंदोलन की घोषणा की थी. जल्द ही सोनिया ने अपना नाम वापस ले लिया और मनमोहन सिंह के रूप में अलोकतांत्रिक पसंद देश पर थोप दिया गया।
क्षेत्रीय स्तर पर भी है अधिनायकवादी संस्कृति
क्षेत्रीय दलों का अधिनायकवाद तो ऐसा है कि विरोध का मतलब ही पार्टी से निकाला हो जाता है. ऐसा करने के लिए न नियम, न कानून और न कोई बंधन है. राष्ट्रीय दल राज्यों में मनोनयन संस्कृति को ही बढ़ावा देते हैं. उत्तर प्रदेश की जनता चुनाव में भाजपा को वोट देती है और भाजपा अपने एक सांसद को, जिसने विधानसभा चुनाव लड़ा भी नहीं, बगैर किसी आंतरिक फोरम में चर्चा के मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर देती है. सारे विधायक उन्हें चुन लेने की ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ का पालन करते हैं। यह उदाहरण किसी एक दल भाजपा के लिए नहीं। कोई दल ऐसा नहीं है जो आंतरिक लोकतंत्र को सम्मान देता दिखता हो.
ये आपातकाल ही तो है!
दिल्ली विधानसभा में अरविन्द केजरीवाल ने हर विरोधी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया. लोकतंत्र का नामोनिशान पार्टी में नहीं दिखता. अपने ही पूर्व मंत्री साथी को विधानसभा में सरेआम मारते-पीटते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूरी सरकार देखते रहते हैं. ये आपातकाल ही तो है.
किसानों की आत्महत्याओं पर निष्क्रियता आपातकाल से आगे की स्थिति
देशभर में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. राजनीतिक दलों को अपना बचाव और दूसरे दलों को दोषी ठहराने के सिवाय कुछ नजर ही नहीं आता. कर्ज माफी भी राजनीति का विषय बना दिया गया है. कर्ज माफी फौरी राहत देने वाला एक टैबलेट हो सकती है लेकिन किसानों की आत्महत्या की परिस्थितियों का इलाज कतई नहीं. कोई राजनीतिक दल किसानों की मौत पर भी संवेदनशील नहीं है। ये आपातकाल से कहीं आगे की स्थिति है!
मौत को गले लगाते किसानों के लिए इस लोकतंत्र का क्या मतलब?
आप सोचिए कि उन किसानों के लिए जो मौत को गले लगा रहे हैं इस राजनीतिक व्यवस्था का क्या मतलब है जिसे चाहे हम लोकतांत्रिक ही बोलते रहें? आज की चिंता भी वही है जो इंदिरा गांधी के समय थी. इंदिरा गांधी तब आपातकाल पर पुनर्विचार तो छोड़ दीजिए, बात तक करने को तैयार नहीं थी। आज सारे राजनीतिक दल, जो कहीं न कहीं देश में या तो सत्ता में हैं या रह चुके हैं या फिर विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं और जिन्हें सत्ता मिलने की उम्मीद है, वो लोकतंत्र को मजबूत करने के बारे में सोचते तक नहीं दिख रहे हैं।
प्रेस तो आज भी आजाद नहीं
प्रेस का जिक्र किए बिना आपातकाल पर बात पूरी नहीं होती। प्रेस पर सेंसरशिप नहीं है आज. पर क्या प्रेस आजाद है? लोकतंत्र का चौथा खम्भा बना प्रेस राजनीति के खम्भे से घुलता-मिलता नजर आ रहा है. ये अमुक पार्टी का समर्थन करने वाला प्रेस, वो अमुक पार्टी का समर्थन करने वाला प्रेस। इसकी विचारधारा ये, उसकी विचारधारा वो। टीवी चैनलों पर जो पत्रकार बने बैठे होते हैं, उनके बोलने से पहले ही दर्शकों को पता होता है कि वो कौन सा विचार रखने वाले होते हैं। पत्रकार तक का वजूद खतरे में है. प्रेस की आजादी तो बहुत पहले राजनीतिक दलों ने पूंजीपतियों की मदद से छीन छीन ली है.
यहां होती है देशभक्ति की रोज परीक्षा
कोई विचारवान व्यक्ति आज खुलकर अपनी बात नहीं कह पा रहा है। अगर आप देशभक्त हैं तो सही-गलत से ऊपर उठते हुए आपको पाकिस्तान का विरोध करना होगा। वहां के कलाकारों को भारत में परफॉर्म करना हो या पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना हो, सबका विरोध करना होगा. अगर किसी वजह से क्रिकेट मैच ठन गया, तो भारत का समर्थन करना ही देशभक्ति है। विरोधी टीम के चौके-छक्कों या अच्छी गेंद पर तालियां बजाना खेल भावना नहीं, देश के विरोध में भावना मानी जाएगी.
चुप तो सब हैं
हद तो यहां तक हो गयी है कि कश्मीर में भीड़ डीएसपी को मस्जिद के सामने पीट-पीट कर मार देती है, पर राजनीतिक स्तर पर चिंता की भी हत्या हो गयी लगती है। वामदल एक दूसरा मुद्दा जिसमें एक मुस्लिम युवक को ट्रेन में पीट-पीट मारा गया, उठा लेते हैं। दोनों तरह के राजनीतिक विचार वाले लोग एक-दूसरे से सवाल कर रहे हैं कि अमुक घटना पर आप चुप क्यों हैं और अमुक घटना पर आप चुप क्यों हैं? सच तो ये है कि इनका बोलना भी इन हत्याओं पर बोलने के समान नहीं है बस इनकी संकीर्ण राजनीति की चाल भर है.
राजनीतिक चिंतन से दूर हो रहा है देश
ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि राजनीतिक दलों में लोकतंत्र का गला दबा दिया गया है. देश राजनीतिक चिंतन से दूर हो रहा है। आम लोग उसी मीडिया, उसी सरकार, उन्हीं राजनीतिक दलों से प्रभावित और प्रेरित है जो लोकतंत्र से दूर हैं. इसलिए इस आपातकाल को लोग समझ नहीं पा रहे हैं. इसलिए जरूरी है कि 1975 के आपातकाल को याद कर उसके खिलाफ लोकतंत्र के लिए जो कुर्बानी दी गयी थी, उसे आम लोगों तक पहुंचाया जाए और आपातकाल का जो खतरा राजनीतिक दलों से पलायन कर चुके लोकतंत्र में मजबूत हो रहा है, उससे निपटने की तैयारी की जाए।
( 21 साल से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय, prempu.kumar@gmail.com)

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