प्रेम कुमार
आजादहिंदुस्तान में सबसे सशक्त प्रधानमंत्री कौन? इसका जवाब पसंद-नापसंद के आधार पर अलग-अलग हो सकता है. लेकिन, इस सवाल के साथ अगर जोड़ दिया जाये- क्यों, तो अंतिम रूप से छनकर जो नाम निकलेगा, वह होगा इंदिरा गांधी. उन्हीं इंदिरा गांधी का शहादत दिवस है 31 अक्तूबर.यही सही मौका है यह जवाब निकालने का कि कैसे यह आयरन लेडी आजाद हिंदुस्तान की सबसे सशक्त प्रधानमंत्री रहीं?
जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी: ये चार नाम सन् 1947 से सन् 2017 तक के सभी भारतीय प्रधानमंत्रियों में सबसे सशक्त दावेदार कहे जा सकते हैं. नेहरू की दावेदारी इसलिए है कि उन्हीं के नेतृत्व में आधुनिक भारत का निर्माण हुआ, लोकतंत्र परवान चढ़ा, समाजवादी सोच के साये में देश बढ़ा, कांग्रेस बढ़ी. अन्यथा, भारत का हश्र पाकिस्तान से भी बुरा हो सकता था.
इंदिरा गांधी के नाम बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने से लेकर राजा-महाराजाओं का विशेषाधिकार खत्म करने, पोकरण में पहला परमाणु परीक्षण करने और पाकिस्तान को पराजित करते हुए बांग्लादेश के निर्माण का श्रेय है.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने पोकरण में फिर से विस्फोट किया, करगिल युद्ध में जीत हासिल की.
वहीं, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतकी विदेश नीति की दशा-दिशा बदल गयी, अमेरिका-इस्राईल दुश्मन से दोस्त बन गये, पाकिस्तान और बर्मा में सर्जिकल स्ट्राइक के साथ-साथ नोटबंदी जैसी बड़ी पहल हुई.
जवाहर लाल नेहरू के नाम चीन से युद्ध में हार है, तो अटल बिहारी वाजपेयी के नाम कंधार विमान अपहरण में यात्रियों के बदले खूंखार आतंकियों को काबुल जाकर छोड़ने का कलंक. ये दोनों घटनाएं ऐसी हैं कि इनके सशक्त प्रधानमंत्री होने के सभी दावों पर ग्रहण लगा देती हैं. दूसरे रूप में कहें, तो खुद कांग्रेसी भी नेहरू और इंदिरा के बीच सशक्त प्रधानमंत्री चुनने में इंदिरा गांधी को ही तवज्जो देंगे. इसी तरह, दक्षिणपंथी नेताओं से सवाल किया जाये, तो उनकी पसंद वाजपेयी और मोदी के बीच निश्चित रूप से मोदी होंगे.
सेमीफाइनल से फाइनल तक पहुंचें, तो मुकाबला इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच आ ठहरता है. इंदिरा और नरेंद्र में आजाद हिंदुस्तान का सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री किन्हें माना जाये, इसके लिए तर्क की कसौटी पर दोनों को कसना जरूरी हो जाता है. खुद नरेंद्र मोदी का कहना है कि 1971 में 90हजार युद्धबंदियों को पाकिस्तान लौटाने का फैसला शांति के प्रति भारत का इतना बड़ा समर्पण है कि हर भारतीय नोबल पुरस्कार का हकदार है.
मोदी कहते हैं, ‘यदि हमारी सोच द्वेषपूर्ण होती, तो हमारा उस समय का निर्णय कुछ भिन्न होता, लेकिन भारत कभी भी अपने मन में राग और द्वेष नहीं रखता.’ वर्तमान प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के ये शब्द दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सफलता का बखान है. यह बखान तब विपक्ष में रहे सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी की तुलना मां दुर्गा से करते हुए की थी. हालांकि, आगे चलकर बहुत बाद में उन्होंने अखबार में छपे इस बयान से खुद को अलग भी कर लिया.
प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी के नेतृत्व में निस्संदेह सर्जिकल स्ट्राइक बड़ी घटना है, लेकिन बदली हुई अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों, जिसका श्रेय भी नरेंद्र मोदी को दिया जा सकता है, में यह गौरव अलग किस्म का है. 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान जब दुनिया भारत के खिलाफ खड़ी थी, तब कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण घड़ी में ऐतिहासिक जीत की वह उपलब्धि हासिल की गयी थी. तब अमेरिकाके राष्ट्रपति ने इंदिरा गांधी को ‘चालाक लोमड़ी’ करार दिया था.
इंदिरा के नाम शिमला समझौता की उपलब्धि भी है, जिसे 1971 की जीत के बाद पाकिस्तान पर भारत के भारी दबाव का नतीजा माना जाता है. यह इंदिरा गांधी की बड़ी उपलब्धि थी कि जो जुल्फिकार अली भुट्टो भारत को सबक सिखाने की बात किया करते थे, शिमला समझौते के लिए मजबूर हो गये.नरेंद्र मोदी को अभी ऐसी उपलब्धि का इंतजार है. अब तक तो स्थिति यही रही है कि भारत की इच्छा के विरुद्ध हुर्रियत नेताओं से मिलने पर अड़ने वाले पाकिस्तान से तय बातचीत भी रद्द करनी पड़ी.
इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करते हुए देश की अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव की पहल की और ‘गरीबी हटाओ’ का ऐतिहासिक नारा दिया. राजा-महाराजाओं के विशेषाधिकार जिसके तहत हर साल उन्हें प्राप्त अंतिम राजस्व का 8.5 फीसदी दिया जाता था, उन्हें समाप्त कर इंदिरा गांधी ने जनता को दूसरी आजादी का अहसास कराया था. दूसरी आजादी और गरीबी हटाओ के सपने के बीच इंदिरा गांधी ने दो तिहाई बहुमत से जीत हासिल कर राजनीतिक इतिहास में खुद को सबसे कद्दावर और सशक्त साबित किया था.
नरेंद्र मोदी ने भी नोटबंदी के जरिये कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी लड़ाई छेड़ने की पहल की और गरीबों तक विकास पहुंचाने का भरोसा दिलाते हुए वे कदम बढ़ा रहे हैं. अगर इंदिरा ने सार्वजनिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, तो मोदी ने उन बैंकों से करोड़ों गरीब भारतीयों को जोड़ा है. उनके खाते में सब्सिडी से लेकर पेंशन तक के पैसे डाले हैं. जीएसटी के रूप में ‘एक राष्ट्र, एक कर, एक बाजार’ का लक्ष्य उन्होंने रखा है. उनकी सरकार को महज तीन साल हुए हैं. इसलिए अभी ऐसी पहल का निरपेक्ष मूल्यांकन तो संभव नहीं है, फिर भी अपने काम की बदौलत नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत हासिल करके दिखाना बाकी है.
इंदिरा गांधी को अगर नेहरू की बेटी होने का फायदा मिला, तो नरेंद्र मोदी को आरएसएस का वरदहस्त होने का. इंदिरा ने अगर मोरारजी सरीखे पीएम पद के दावेदार पर वरीयता हासिल की थी, तो मोदी ने भी भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी के स्वाभाविक नेतृत्व पर वरीयता हासिल की. मोदी को मिली जीत में उनके व्यक्तिगत योगदान को कोई नकार नहीं सकता, मगर चूंकि यह जीत उनके काम पर जनता की मुहर नहीं थी, इसलिए यह परीक्षा होनी अभी बाकी है.
इंदिरा गांधी पर इमर्जेंसी और ऑपरेशन ब्लू स्टार के दाग हैं. ऑपरेशन ब्लू स्टार के दाग तो उन्होंने अपनी जान देकर धो दी थी, लेकिन इमर्जेंसी का दाग शायद ही मिटे, जिसके लिए वह माफी भी मांग चुकी थीं. वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए वहां गोधरा कांड के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान जान-बूझकर निष्क्रिय रहने और राजधर्म नहीं निभाने के आरोप हैं.
सार्वजनिक तौर पर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनसे राजधर्म निभाने को कहा था और ऐसा होने का विश्वास जताया था. प्रचंड बहुमत इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध और इमर्जेंसी में हार के बाद दोबारा सत्ता में आते हुए हासिल किया था. नरेंद्र मोदी को अभी प्रचंड बहुमत के मामले में अपने लौह व्यक्तित्व को साबित करने का पूरा वक्त नहीं मिला है.
चुनाव सभाओं और जनता से संपर्क के मामले में नरेंद्र मोदी बेमिसाल हैं. मगर, जिस तरह से 1971 में इंदिरा गांधी ने 36 हजार मील की दूरी तय की और 300 सभाओं को संबोधित किया, वह तब संसाधनों की कमी के युग में अतुलनीय है. नतीजा उन्हें दो तिहाई बहुमत के रूप में जरूर मिला था.
इंदिरा गांधी ने 1974 में विकसित देशों के दबावों को दरकिनार करते हुए पोकरण में पहला परमाणु विस्फोट किया था. इंदिरा गांधी उसके बाद देशभक्ति का पर्याय बन गयी थीं. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद नरेंद्र मोदी को भी 56 इंच का सीना वाला प्रधानमंत्री कहा जाने लगा है. इंदिरा के नेतृत्व में 1974 में परमाणु संपन्न भारत का उदय हुआ था, जिसकी ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत करना आसान नहीं रह गया था.
आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत पर आतंकी हमले या सीमा पर युद्धविराम के उल्लंघन की घटनाएं तो नहीं रुक रहीं, लेकिन इतना जरूर है कि डोकलाम जैसे मुद्दे पर अब भारत ने झुकना बंद कर दिया है. भारत अब चीन से भी टक्कर लेने में संकोच खत्म कर रहा है.
मुकाबला हर लिहाज से कांटे का है.आजाद हिंदुस्तान में ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदीजी की उम्मीदवारी महज उनकी तीन साल की उपलब्धियों की बदौलत है. इस हिसाब से वे इंदिरा गांधी को कड़ी टक्कर देते दिखते हैं, लेकिन इंदिरा गांधी के पास राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलता का जो इतिहास है, पार्टी में एकछत्र शासन और समूचे हिंदुस्तान के ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनाने का जो गौरव है, उसे देखते हुए फाइनल का यह मुकाबला इंदिरा गांधी की ओर झुकता नजर आता है.
बात इतनी ही नहीं है. अपनी मौत से पहले मृत्यु का आभास हो जाना और एक दिन पहले 30 अक्तूबर को ओड़िशा में उनका भाषण देना कि अगर उनकी मौत भी हो गयी, तो उनके लहू का एक-एक कतरा देश के काम आयेगा, यह छोटी बात नहीं है. यह जानते हुए भी कि सिख उनकी हत्या कर सकते हैं, सिख अंगरक्षकों को नहीं हटाना बेमिसाल है. निश्चित रूप से सिद्धांत, समर्पण और देशभक्ति के समग्र भाव में इंदिरा गांधी का लंबा जीवन सब पर भारी है. इसलिए आजाद भारत के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी को छोड़कर दूसरा कोई नाम नहीं है. नरेंद्र मोदी इकलौते प्रधानमंत्री हैं, जिनसे उनकी किसी हद तक तुलना हो सकी है.
(लेखक आइएमएस, नोएडा में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. आप दो दशक से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय हैं और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन करते रहते हैं.)