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दो घरों में झूलतीं विवाहिताएं

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II मृदुला सिन्हा II राज्यपाल, गोवा snmridula@gmail.com पच्चीस से नब्बे वर्ष की विवाहिताओं से मिलते समय मेरा पहला प्रश्न होता रहा है- ‘आपका घर कहां है?’ करीब 95 प्रतिशत महिलाएं अपना घर, अपने मायके का गांव या शहर बताती रहीं. अविलंब अपना उत्तर सुधार कर कहती हैं- ‘मेरी ससुराल का घर फलाने शहर या गांव […]

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II मृदुला सिन्हा II
राज्यपाल, गोवा
snmridula@gmail.com
पच्चीस से नब्बे वर्ष की विवाहिताओं से मिलते समय मेरा पहला प्रश्न होता रहा है- ‘आपका घर कहां है?’ करीब 95 प्रतिशत महिलाएं अपना घर, अपने मायके का गांव या शहर बताती रहीं. अविलंब अपना उत्तर सुधार कर कहती हैं- ‘मेरी ससुराल का घर फलाने शहर या गांव में है.’ यह सच है कि 90 वर्ष की महिलाएं पिछले 70-75 वर्षों से अपने ससुराल में ही हैं.
विवाह के उपरांत प्रारंभ में बार-बार मायके जाने का मन भी करता था, जाती भी रहीं. लेकिन बच्चे होने के बाद मायका जाना कम होता जाता रहा है. तब आवागमन की विशेष सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए महिलाएं मायका भी 10-10 वर्ष बाद ही जाती थीं. महिलाएं भी अपना घर मायके का गांव ही बताती रहीं. पूरी जिंदगी अपने दूसरे घर को सजाने-संवारने, समृद्ध और सुखी बनाने में लगा देती हैं, पर मायके का गांव तो पहला गांव है. जन्म भूमि.
क्या दो घर होना उन्हें विशेष सुरक्षा, सम्मान और सुख देता है? इस प्रश्न का उत्तर भी 25 प्रतिशत मामले में सकारात्मक मिलेगा, तो 75 प्रतिशत नकारात्मक ही.
अधिकतर विवाहित महिलाओं के ससुराल का प्रारंभिक जीवन कई प्रकार के उलाहने सुनने, परेशानियों को झेलने में बीतता है. वे अपने मायके के संस्कार को भुला नहीं पातीं और ससुराल परिवार उन्हें प्रेम एवं उदारता से अपना नहीं पाता. वे दो चक्कियों के बीच पिसती दिखती हैं. अधिकतर युवतियों का अपने ससुराल में देर-सवेर ही सही अभियोजन हो जाता है, कुछ का तो जीवनभर नहीं होता. कई तो कहीं की होकर नहीं रहतीं. जीवनभर झूलती रहती हैं दोनों घरों के बीच. बेटियों को ससुराल परिवार में समरस न होने देने में मायका परिवार वालों का भी हाथ होता है. कई बार वे जरूरत से अधिक हस्तक्षेप करते हैं.
परिवार परामर्श देते हुए मैं बेटियों की मांओं को कहती थी- ‘जिस प्रकार दही जमाने के लिए गुनगुने दूध में जामन डालकर बार-बार अंगुली डालकर देखने से दही नहीं जमेगा. उसी प्रकार बेटी को ससुराल भेजकर दिन में कई बार फोन करके बातें मत करो. ससुराल वालों के विषय में मत पूछो. उसे ससुराल की आबोहवा में जमने दो.’
अदालतों में लंबित दहेज संबंधित लाखों मामले सबूत हैं विवाहितों की दुखद जिंदगी के. मैंने 15-20 वर्ष पहले जब 25-30 वर्ष की आयु की युवतियों से पूछा था- ‘विवाह कब करोगी?’ अधिकांश के उत्तर मिले थे- ‘न बाबा न, विवाह करके जलकर नहीं मरना. हम अविवाहित ही अच्छे हैं.’ इसी उम्र के युवकों से पूछने पर अधिकांश का उत्तर था- ‘माता-पिता, भाई-बहन के साथ मुझे जेल नहीं जाना.’
दोनों पक्षों के उत्तर से अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका इशारा किस ओर था. दरअसल अधिकांश वैवाहिक झगड़ों में दोनों में से किसी एक का ‘घर’ छूटता है, तो वह महिला होती है. ससुराल का (दूसरा) घर छोड़ना पड़ता है, तब पहले घर (मायका) में भी जगह नहीं होती.
विवाह से युवक और युवती दोनों खौफ खाने लगे. जिनके साथ ऐसी नौबत नहीं आयी, वे भी जीवनभर ताने सुनती रहीं. विवाह के समय गाये जानेवाले एक गीत की पंक्तियां, जिसमें बेटी का कन्यादान करते हुए बेटी का बाप उसकी उदासी का कारण पूछता है.
बेटी की तरफ से जवाब मिलता है- ‘भाई और बहन मिलकर हमने एक ही कोख से जन्म लिया. मां का दूध भी दोनों ने एक ही पीया. लेकिन भैया को आपका चैपार लिखा है और मुझे दूर देश जाना है.’ मेरी उदासी का कारण यही है.
किसी ने बेटी के जीवन की तुलना धान की पौध से की है. धान के बीज एक खेत में डाले जाते हैं. करीब 8-10 ईंच की पौध होने पर उन्हें उखाड़कर दूसरे गीले खेत में रोपे जाते हैं. थोड़े दिन के लिए वे हरे पौधे पीले पड़ जाते हैं. उस खेत की मिट्टी और पानी से समरस होकर वहीं लहलहाते हैं. वहीं फूल से भरते हैं और असंख्य धान के दाने देते हैं.
बेटी के जीवन के साथ भी ऐसा ही होता है. एक घर में जन्म लेकर वह शिशु से युवती बनती है. लेकिन उसको दूसरे घर ब्याह कर जाना पड़ता है. कोई जरूरी नहीं कि दोनों घरों के संस्कार एवं आर्थिक स्थिति एक हो. थोड़ा बहुत भी अंतर हो, तो लड़की को परेशानियां झेलनी पड़ती हैं.
इस स्थिति के समाधान के लिए समाज में एक सीख तैरती थी- ‘बेटा ब्याही नीच घर, बेटी ब्याही ऊंच.’ यहां नीच और ऊंच, आर्थिक दृष्टि से ऊंचे और कमतर से है. चंद शब्दों की कहावत में समाज को निर्देश दिया गया है कि बेटी को अपने से अधिक संपन्न घर में ब्याहना चाहिए और बेटा को अपने से कमतर आर्थिक स्थिति वाले घर में.
बेटियों की सुविधा के लिए समाज और सरकार की ओर से ऐसे बहुत से नियम बनाये गये. आज के जमाने में कानूनों के माध्यम से बेटियों को उनके पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलना जैसे बहुत से नियम बनाये गये हैं. मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अभिशाप से उबारने के लिए कानून बनाया जा रहा है.
पुरुषों के चार विवाह पर भी कानूनी शिकंजा कसेगा. लेकिन क्या हिंदू लड़कियों को पिता की संपत्ति में आसानी से हिस्सा मिल पायेगा? क्या मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक और तीन-तीन सौतों के अभिशाप से निजात पा सकेंगी?
दोनों घरों में कुशल-मंगल रहने पर भी महिलाएं दोनों घरों के बीच खुशहाली के लिए बेचैन रहती हैं.विवाहिता के लिए कहा गया है- ‘दोनों कुल की लाज राखी’, मतलब दोनों घरों में इज्जत और संस्कार बनाये रखने की जिम्मेदारी उन पर ही डाली जाती है. समाज की उससे ही अधिक अपेक्षाएं होती हैं. अक्सर समझदार महिलाएं मायके में ससुराल की बड़ाई और ससुराल में मायके की प्रशंसा करती हैं. अस्सी-नब्बे की उम्र तक बचपन में खाये पदार्थों के स्वाद ही उनकी जिह्वा पर रहता है.
बचपन में देखे रीति-रिवाज, व्यवहार व बड़ों के प्यार की स्मृतियां भी भुलाना उनके लिए कठिन होता है, इसलिए वे बातचीत में अक्सर अपने मायके को ससुराल में पसार लेती हैं. ये स्मृतियां उनके लिए वरदान भी होती हैं और अभिशाप भी. क्योंकि वे सुखदाई और दुखदाई दोनों होती हैं.
महिला दिवस पर महिला के दुख-सुख और उपलब्धियों का आकलन करते हुए इस बार इस तथ्य पर मेरा ध्यान अटक गया कि उनका दो घर होना, उनके लिए अभिशाप भी है और वरदान भी.
ससुराल में रहते हुए भी महिलाओं को अपने मायके के लोगों का सहारा होता है. वहीं उनका अधिक हस्तक्षेप उस महिला के दुख का कारण भी बन जाता है. इस स्थिति को महिला जीवन से निकाला नहीं जा सकता. दोनों परिवारों के बीच मैत्री और सम्मान की स्थिति बनाये रखना चाहिए.

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