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गोपनीय एजेंडे की यह यात्रा

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आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com पच्चीस अक्तूबर, 1970 को पाकिस्तान के सैनिक-राष्ट्रपति याह्या खान ने वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मुलाकात की. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर द्वारा दर्ज उन दोनों की बातचीत के ब्योरे के संबंध में व्हाॅइट हाउस का अत्यंत गोपनीय दस्तावेज वर्ष 2001 में गोपनीयता […]

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आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
पच्चीस अक्तूबर, 1970 को पाकिस्तान के सैनिक-राष्ट्रपति याह्या खान ने वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मुलाकात की. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर द्वारा दर्ज उन दोनों की बातचीत के ब्योरे के संबंध में व्हाॅइट हाउस का अत्यंत गोपनीय दस्तावेज वर्ष 2001 में गोपनीयता के दायरे से बाहर निकलकर प्रकाश में आया. इस दस्तावेज के कुछ बिंदु दिलचस्प हैं, जिनमें से एक में याह्या को ‘दृढ़, बेलाग तथा एक अच्छे हास्यबोध से युक्त’ तथा मासूम दिखते हुए भी ‘संभवतः उससे अधिक जटिल व्यक्ति’ बताया गया था. निक्सन ने याह्या को भारत के प्रति पाकिस्तान की ‘बीमार मानसिकता’ के लिए चेताते हुए भी उन्हें यह आश्वासन दिया कि पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता जारी रहेगी.
उनकी बातचीत के दौरान भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत केनेथ कीटिंग्स के संबंध में भी एक दिलचस्प तथ्य दर्ज है. वाकया कुछ ऐसा हुआ कि जब इंदिरा गांधी दिल्ली से न्यूयॉर्क के लिए प्रस्थान कर रही थीं, तो उन्हें विदा देने के लिए अमेरिकी राजदूत एयरपोर्ट पर मौजूद नहीं थे, जबकि परंपरा के अनुसार उन्हें वहां उपस्थित रहना चाहिए था. बताया जाता है कि भारतीय अधिकारियों ने उन्हें इंदिरा गांधी की उड़ान का कुछ दूसरा ही समय बता दिया, ताकि वे वहां उपस्थित न रह सकें और इस तरह अमेरिका के लिए एक शर्मिंदगी की स्थिति बन जाये.
याह्या के साथ अपनी बातचीत में आगे निक्सन ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति की प्रस्तावित चीन यात्रा का मुद्दा उठाया. उस वक्त चीन के साथ अमेरिका के राजनयिक संबंध नहीं थे, मगर अपने मुख्य शत्रु सोवियत संघ के साथ शक्ति संतुलन बनाये रखने के लिए उसे चीन की मदद चाहिए थी. इस संवाद में ही इन नेताओं ने यह तय किया कि किसिंजर चीन की एक गुप्त यात्रा कर उसके साथ अमेरिका के राजनयिक संबंधों की नींव रखेंगे. किसिंजर की यह यात्रा अगले वर्ष संपन्न हुई, जब इस हेतु पहले वह पाकिस्तान पहुंचे. पाकिस्तान भ्रमण के ही दौरान किसिंजर के कार्यालय से यह खबर प्रसारित की गयी कि वे अस्वस्थ हैं और कुछ दिनों तक उन्हें सार्वजनिक रूप से नहीं देखा जा सकेगा. यही वह वक्त था, जब हेनरी किसिंजर ने चीन के लिए अपनी उड़ान भरी और वहां चीनी प्रधानमंत्री झाऊ एन-लाइ से मुलाकात की.
नरेंद्र मोदी द्वारा की गयी हालिया चीन यात्रा में भी कुछ इसी तरह की गोपनीयता रही. अलबत्ता, यह एक अलग बात है कि निक्सन की चीन यात्रा की तरह यह पूरी दुनिया से गुप्त नहीं थी. कुछ दिनों पहले तक भी इस यात्रा की घोषणा नहीं की गयी और इसकी कोई योजना भी नहीं थी. सरकारी तौर पर यह बताया गया कि मोदी-शी की इस बैठक के लिए कोई एजेंडा नहीं है, पर यह तो साफ ही है कि मोदी ने यह यात्रा एक सैलानी के तौर पर तो नहीं ही की थी. यह भी बताया गया कि इस बैठक के बाद कोई संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं किया जायेगा और संभवतः उनकी मुलाकातों के ब्योरे भी दर्ज नहीं किये जायेंगे. तो आखिर वे यह संवाद किसलिए कर रहे थे? लोकतंत्र के लिए यह उचित होता कि नागरिकों को सरकार द्वारा यह बताया जाता कि इस यात्रा का उद्देश्य क्या था, ताकि इस संबंध में किसी चिंता की कोई वजह न रहे. संभव है, इस संबंध में विस्तृत ब्योरे शीघ्र ही उजागर किये जायें.
चीन के साथ हमारे संबंधों के विषय में हमें अभी जो जानकारी है, वह कुछ इस तरह है कि कुछ ही महीने पूर्व भूटान के डोकलाम नामक भूभाग को लेकर चीन के साथ हमारी लंबी तनातनी चली. हमने इस क्षेत्र में चीनी घुसपैठ रोकने में सफलता तो पायी, पर अब चीनी सेना इस इलाके में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर रही है और इस वर्ष के उत्तरार्ध में फिर अंदर घुसने की कोशिश कर सकती है. कुछ माह पहले ही मालदीव ने भारत को धता बताते हुए चीन का हाथ थाम लिया. भारत के लिए यह हैरत की बात थी, क्योंकि हाल तक भारत इस देश से अपनी इच्छाएं स्वीकार करा लेने में सफल रहता था. ज्ञातव्य है कि पांच लाख से भी कम आबादी का यह देश श्रीलंका के निकट स्थित है, न कि चीन के समीप.
नेपाल के नये नेतृत्व के संबंध में यह तथ्य कोई छिपा नहीं है कि वह मोदी और भारत को नापसंद करता है और नेपाल को चीन की ओर उन्मुख करने की मानसिकता रखता है. दूसरी ओर, चीन अपने वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) पहल की प्रगति सुनिश्चित करता जा रहा, जिसके दायरे में श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल समेत हमारे लगभग सभी पड़ोसी आ चुके हैं. इस स्थिति ने भारत की चिंताएं बढ़ा दी हैं. मोदी की वर्तमान चीन यात्रा के दौरान इन मुद्दों के संबंध में दोनों में से किसी भी पक्ष द्वारा कुछ नहीं कहे जाने के बावजूद ये तथ्य सर्वविदित हैं.
इस यात्रा को भारतीय मीडिया ने मुखपृष्ठ की प्रमुखता दी है, जिसका अर्थ यह है कि विदेश मंत्रालय की खबरों से जुड़े मीडियाजनों का यह यकीन था कि यह अहम है. जहां तक चीनी मीडिया का प्रश्न है, तो उसने इसे सामान्य नजरिये से ही लिया. ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ ने इसे मुखपृष्ठ पर जगह नहीं दी. आधिकारिक ‘चाइना डेली’ ने मोदी की यात्रा के बजाय उत्तरी तथा दक्षिणी कोरिया की शांति वार्ता को प्रमुखता दी. इन सबसे ऐसा प्रतीत होता है कि चीन को भारत की जरूरत से ज्यादा भारत को चीन की दरकार थी, मगर ऐसा किस चीज के लिए? कुछ लोगों का यह अनुमान है कि डोकलाम एवं 2019 के आम चुनाव से इसका कुछ लेना-देना है. शी से मोदी यह अनुरोध कर सकते हैं कि वे इस बार भारत के प्रतिरोध को रौंदते हुए भूटान में अपनी फौजें फिर से भेजकर हमें शर्मिंदा न करें. वैसे मुझे यह आशा है कि मामला ऐसा नहीं होगा और मोदी ने शी से ऐसा कुछ नहीं कहा होगा.
किसिंजर की यात्रा गोपनीय थी, क्योंकि उसके उजागर होने से वह मिशन विफल हो सकता था और फिर दोनों देशों का इतिहास भुलाकर चीनी अमेरिका से खुलेआम संबंध कायम नहीं कर सकते थे. इसने सोवियत संघ को भी इसके विरोध का मौका दे दिया होता. उनकी यात्रा गुप्त अवश्य थी, पर उसका एजेंडा गुप्त नहीं था. हैरत यह है कि मोदी की यात्रा में एजेंडा भी गुप्त ही रहा.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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