16.1 C
Ranchi
Friday, February 7, 2025 | 01:09 am
16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

ऋणों से जूझती वैश्विक व्यवस्था

Advertisement

अजीत रानाडे, सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा संकलित दस ऐसे राष्ट्रों की सूची में, जिनके जीडीपी के बनिस्बत उनके ऋणों का अनुपात विश्व में सर्वाधिक है, तीन यूरोपीय देश-ग्रीस, इटली तथा पुर्तगाल-शामिल हैं, जबकि इस सूची में शीर्ष पर जापान है, जिसने अपने जीडीपी के 240 प्रतिशत के लगभग ऋण […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

अजीत रानाडे, सीनियर फेलो
तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा संकलित दस ऐसे राष्ट्रों की सूची में, जिनके जीडीपी के बनिस्बत उनके ऋणों का अनुपात विश्व में सर्वाधिक है, तीन यूरोपीय देश-ग्रीस, इटली तथा पुर्तगाल-शामिल हैं, जबकि इस सूची में शीर्ष पर जापान है, जिसने अपने जीडीपी के 240 प्रतिशत के लगभग ऋण ले रखे हैं. आम उम्मीद के विपरीत, ये बुरी तरह ऋणग्रस्त देश सबसे गरीब देशों में शुमार नहीं हैं, न ही वे कोई लापरवाह और शाहखर्च राष्ट्र माने जाते हैं. जर्मनी एवं ऑस्ट्रिया जैसे मौद्रिक रूप से दकियानूसी देश भी इसमें खासे ऊपर हैं. मुद्दे की बात यह है कि विश्व में विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा ऋण लेते जाने की प्रवृत्ति आसमान छू रही है, जिसका पुनर्भुगतान किस तरह किया जा सकेगा, यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है.
जापान एवं भारत इस मायने में विवेकशील रहे हैं कि उनके अधिकतर ऋण बांड अपने ही देश की मुद्रा में जारी किये जाते हैं, जो उनके ही नागरिकों द्वारा लिये जाते हैं. अतः उनका अंतरराष्ट्रीय चूककर्ता बनने की संभावना बहुत कम है. कुछ लोग यह समझ सकते हैं कि सरकारों द्वारा किसी पुराने ऋण की वापसी के लिए उन्हें केवल नये ऋण बांड जारी करने की जरूरत है और यह प्रक्रिया अंतहीन रूप से चल सकती है. जापान जैसे समृद्ध देश की ऋणग्रस्तता का उच्च स्तर ऐसी ही रणनीति का फल है.
मगर सभी देशों को जापानी ऋण बांड की तरह ए+ की रेटिंग नहीं मिला करती. इसलिए, अपनी रेटिंग और विश्वसनीयता की रक्षा के लिए भारत जैसे देश मौद्रिक दायित्व को विधान द्वारा लागू कराते हैं. यह कुछ वैसा ही है, जैसे सरकार ने अपने हाथ कानून द्वारा बांध रखे हों, जो घाटे और ऋणों को कानूनी रूप से तयशुदा एक सीमा के आगे नहीं बढ़ा सकते.
यह वही नजरिया है, जिसे यूरोपीय यूनियन के देशों ने 1992 की मास्ट्रिक्ट संधि के द्वारा स्वीकार तो किया, पर जिसका यूनियन के सबसे बड़े देशों ने चार वर्षों के भीतर ही उल्लंघन कर डाला. दरअसल, जब व्यावसायिक चक्र विपरीत हो उठता है अथवा जब मतदाता ज्यादा सरकारी व्ययों की मांग करने लगते हैं, तो कानूनी बाध्यकारी सीमाएं शिथिल किये बगैर सरकारों के पास कोई दूसरा चारा नहीं होता.
निजी क्षेत्र की ऋण समस्या भी उतनी ही गंभीर है. साल 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट मुख्यतः अत्यधिक ऋणग्रस्तता, शिथिल विनियम, लचीली रेटिंग एजेंसियों, लालची बैंकों तथा लापरवाह कर्जखोरों के घालमेल से पैदा हुआ था. भारत इस संकट से बच सका, क्योंकि यहां ऋणों के नियम कड़े करने, आवासन और वैसे ही अन्य ऋणों के जोखिम भार ऊंचे करने तथा विनियामक निगरानी जैसे कदम लागू थे. पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम ऐसे ही किसी अगले संकट से भी सुरक्षित हैं. सच तो यह है कि आज पूरा विश्व मौद्रिक तरलता में डूबा है और ऋणस्तर पहले कभी की बजाय कहीं ऊंचा है.
अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तथा जापान के केंद्रीय बैंक पिछले लगभग एक दशक से मुद्रा छापने एवं ब्याज दरों को शून्य के करीब रखने की नीति पर चलते रहे, ताकि बैंक ऋण एवं साख वृद्धि अधिकाधिक हो सके. साख सृजन के द्वारा बैंक मुद्रा आपूर्ति सृजित करते हैं. इससे मुद्रास्फीति हो सकती है, पर कीन्स के सिद्धांत के अनुसार यह आर्थिक वृद्धि का जनक भी होता है. परंतु, यदि उपभोगकर्ताओं एवं निवेशकों में भविष्य के प्रति भरोसा न हो, तो मुद्रा छापते जाने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते.
दुर्भाग्य से हम बैंकों के विफल होने और डूबते ऋणों की घटनाएं भी अभूतपूर्व ढंग से देख रहे हैं. बैंकों की विफलता का बोझ अंततः उनके जमाकर्ताओं या करदाताओं पर ही पड़ता है. इसे कैसे रोका जा सकता है? इसका कोई आसान समाधान तो नहीं है. इसके लिए विनियामक निगरानी, कड़ाई से अमल, ऋणों के मजबूत शासी मानक, ऋणों के बदले पर्याप्त जमानत, दिवाला समाधान की कुशल प्रक्रिया तथा एक मजबूत साख संस्कृति आवश्यक है.
लेकिन, स्विट्जरलैंड के विचार कुछ अलग हैं. यह समृद्धतम देशों में शामिल है, जहां बैंकों का कोई संकट नहीं है. पर यहां की जनता साख सृजन के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति में अविवेकी वृद्धि के प्रति चिंतित थी. इसलिए उसने यहां के सांसदों को इस हेतु बाध्य कर दिया कि वे इस माह की शुरुआत में एक जनमतसंग्रह करा नागरिकों से यह पूछें कि क्या बैंकों द्वारा ऋणों के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति सृजित करने पर रोक लगा दी जाये? दूसरे शब्दों में, क्या स्विस बैंकों के लिए 100 प्रतिशत नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) अनिवार्य कर दिया जाये? वैसी स्थिति में उनके लिए केवल पुराने ऋणों की वापसी से ही नये ऋण देना संभव हो पाता, मुद्रा के सृजन का अधिकार केवल केंद्रीय बैंक के ही पास होता तथा वाणिज्यिक बैंकों के लिए साख सृजन ज्यादा कठिन हो जाता.
इस जनमतसंग्रह में यह विचार दो-तिहाई बहुमत से पराजित हो गया. ऐसा बंधन अभी तो आत्यंतिक लग सकता है, पर यह भविष्य के ऐसे ही अनेक विधायी पहलों का अग्रदूत हो सकता है, जो ऋण विस्फोट के तूफान को नियंत्रित कर सकेंगे.
(अनुवाद: विजय नंदन)

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें