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एक उग रहा है दर-व-दीवार पे सब्ज़ा ग़ालिब हम सब जैसे इंसानों के इक जंगल के बाशिंदे हैं जिस जंगल में तन्हाई है सन्नाटा है वीराना है और लोगों के इस जंगल में शोर का जैसे कर्कश झांझर बाज रहा है अपने मन के सैय्यारे पर दर्द के जादू की जंजीरें अपने टूटे पांव से […]

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एक

उग रहा है दर-व-दीवार पे सब्ज़ा ग़ालिब
हम सब जैसे इंसानों के इक जंगल के
बाशिंदे हैं
जिस जंगल में
तन्हाई है
सन्नाटा है
वीराना है
और लोगों के इस जंगल में
शोर का जैसे कर्कश झांझर
बाज रहा है
अपने मन के सैय्यारे पर
दर्द के जादू की जंजीरें
अपने टूटे पांव से बांधे
नाच रहा हूं
ख़्वाबों के घर का दरवाज़ा
बोसीदा है
ख़्वाबों के घर की सब रंगत
उड़ी हुई है
आंख फाड़ कर देख रहे हैं
मेरी आंखों की हैरानी
मेरे घर के सभी दरीचे
लॉन में जो इच्छाएं रोपी थीं
सूख गई हैं
क्यारी में जो फूल खिले थे
झुलस गए हैं
कभी था सब्ज़ा-ज़ार वहां अब
सूखी हुई चटियल मिट्टी की ज़मींदारी है
इधर ख़्वाबों के घर की रंगत गायब होकर
दीवार-व-दर पर सब्ज़ा क्यों उग आया है
लगता है जैसे इस घर पर
मेरी महरूमी का इक काला साया है
दीवारों और दरवाजों ने
झुलसी हुई रुत के तीखे नग़मे गाये है
चाचा " ग़ालिब " याद आए हैं.
दो
बेटी से ही रिश्ता है
कांधे पर जो अपने रख के मैं
लोरी सुनाता हूं
सुलाता हूं तो मुझको ही
थपकती है मेरी बेटी
ख़ुदा से की गई इक रेशमी
मेरी दुआ है वो
"हुमा" है वो
दिल के आसमां पर
दुःख के बादल शोर करते हैं
कड़कते हैं
गरजते हैं
सितम की बारिशें जब
बेरहम बौछार करती हैं
ये दुनिया संगसारी की रिवायत
जब निभाती है
मेरा सपना लहू में तर ब’तर हो कर
बिलखता है
तब उजली मुस्कराहट
मेरे ग़म को चाट जाती है
नन्ही उंगलियों का लम्स
चेहरे पर उतरता है
तो दुःख के काले पत्थर
रेज़ा रेज़ा टूट जाते हैं
हक़ीक़त है कि दुनिया का
निराला हुस्न है बेटी
अगर बेटी नहीं होती
तो रिश्ते जन्म क्या लेते
अदा होती
हया होती
दुआ होती
ना हम होते
कि इस बेदीन दुनिया में तो
बस पत्थर सनम होते
जो बेटी है तो रिश्ता है
जो रिश्ता है तो
हम सब हैं
जो हम सब हैं तो
दुनिया है
जो दुनिया है
"हुमा" भी है
वफ़ा भी है
ख़ुदा भी है
तीन
कैसी बाधा है
प्रेम अगन में
रात जलाई
दिन झुलसाया
राधा बनकर
कष्ट उठाया
नीर बहाए
चैन गंवाई
किंतु प्रेम से
बाज़ न आई
प्रेम नगर की
राज दुलारी
मैं तुझ पर
जाऊं बलिहारी
अब आई है
मेरी बारी
मैं राधा तू
कान्हा हो जा
मैं अब जागूं
तू अब सो जा
मुरली फूंके तू
मैं बाजूं
तोरी लगन में
टूट के नाचूं
प्रेम में सब
आधा आधा है
फिर इस में
कैसी बाधा है
चार
मुझे क्या हो गया है
मुझे क्या हो गया है
खुली आंखों में
सपना झांकता है
मेरी नींदों में कोई
जागता है
कहीं जाऊं
हर इक मंज़र चहकता है
मेरी तन्हाइयां
संगीत रस में
डूब जाती हैं
रिमझिम बारिशें गिरती हैं
लय सुर ताल में जब भी
लगे जैसे
कोई पाज़ेब बांधे
पुकारे नाम ले के मुझको,नाचे
मैं अब सजने संवरने
लग गया हूं
लगे जैसे
मेरा पिछला सभी कुछ
खो गया है
मुझे क्या हो गया है
पांच
यह दौर
गीत ग़ज़ल की
सब राधाएं
राजनीति की नगरवधू के
अंधे-अंधेरे कोने में
औंधी पड़ी हैं
उजले चमकीले जोड़े में
और इधर लाचार खड़ा हूं
फीकी हंसी के खोटे सिक्के
खनक रहे हैं
मेरे भीतर की सब धाराएं
सनक रही हैं
परिचय : गुलरेज़ शहजाद
जन्म – मोतिहारी, बिहार
शैक्षिक योग्यता-एम.ए. (उर्दू), एम.बी.ए.(एच.आर.)
प्रकाशित कृतियां
————
स्याही सूखने से पहले(उर्दू), आग पे रखी रात (हिंदी), कुदरत बेहुस्न नहीं हुई है (अजीत कुमार आज़ाद के मैथिली काव्य संग्रह ‘युद्धक विरोध में बुद्धक प्रतिहिंसा का उर्दू अ’नुवादअनुवाद, इस शह्र के लोग (माणिक बच्छावत के हिंदी काव्य संग्रह "इस शह्र के लोग"का उर्दू अनुवाद), चंपारण सत्याग्रह गाथा (भोजपुरी प्रबंध काव्य)
पता – नकछेद टोला, मोतिहारी, पूर्वी चंपारण(बिहार) 845401
दूरभाष – 07004011128 / 09570399300
ईमेल:gulrez300@gmail.com

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