शैवाल
(जाने-माने कथाकार, इनकी रचनाओं पर कई मशहूर फिल्में बन चुकी हैं.)
सामाजिक विसंगतियों पर अपनी तीखी कलम चलाने के लिए मशहूर कथाकार शैवाल ने हमारे अनुरोध पर कलम चलाई है और छठ से संबंधित यह रोचक और दिल को छू लेने वाला संस्मरणात्मक रिपोर्ताज लिखा है.
इस रिपोर्ताज में अपनी चिरपरिचित गद्यात्मक शैली में उन्होंने छठ के विभिन्न पहलुओं को उकेरा है. यह रिपोर्ताज आपकी नजर है.आंतरिक दुनिया में ही बसते हैं वे. वे यानी पात्र. तनिक सा छुओ, तो जाग जाते हैं. अभी कलम उठाते ही सिर पर सवार हो गए “अरण्य गाथा” के कामरेड घोष बाबू. नरेन को ऐन घाट पर चूल्हे के लिए मिट्टी ले जाते हुए पकड़ा था, सो प्रलाप करते हुए चीखने लगे, “रे नरेन!
अभी दादी का पिंडदान किया था तूने… और अब ये ..” बात काटते हुए शांत स्वर में जवाब दिया नरेन ने, “घोष दा! दादी ने नौ बरच्छ सती थान अगोरा था ताकि हम जन्म ले लें, हम क्या पन्द्रह दिन भी इच्छा नहीं रख सकते कि दादी हमारे बीच फिर आ जाये? और एक ठो बात बताना है आपको, हम जुलूस ले के पटना जाते हैं तो बजरंग बली के आगे हाथ जोड़ के झुकते हैं…
काहे कि हमको लगता है उस बखत कि बाबू आगे आकर खड़ा हो गया है!” सच बोलता है नरेन. इस स्वाभाविक कर्म के पीछे धर्म नहीं है, पूर्वजों से जुड़ाव की ललक है. एक खास समयावधि में मेरे साथ भी ऐसा हुआ है. मां आकर खड़ी हो गयी है. अकेले नहीं, एक देहरी के साथ. इस समयावधि का विस्तार अध्यात्म के रहस्यलोक से समुदायबोध के यथार्थ तक पसरा है. इसमें समावेशित है एक पर्व. अनुभूत करो तो लगता है, यह पर्व नहीं, संस्कृति की भाव यात्रा है.
यात्रा का मार्ग तय था. दशहरा, दीवाली और छठ. लोकजीवन के अलग-अलग रंग. रंग बदलता तो राग भी परिवर्तित होता. अंत का राग और सुर सबसे अलग होते, “मारबऊ रे सुगवा धनुष से…” हालांकि यह सुआ दशहरे से ही सक्रिय हो जाता. मेले-ठेले में घूमते, पटाखा और छुरछुरी-मुरमुरी से खेलते इतना उधमी और बेलगाम हो जाता कि उसे बरजना पड़ता, “ठोर मत डालना, वरना धनुष से मारूंगी.” मां इन उत्सवों के लिए छह माह पहले से तैयारी करती. प्रातः चार बजे से सात बजे तक चरखा चलाती.
दशहरे के करीब पोला खादी भंडार में बिकता. मां अपने ‘खेतारी’ के साथ तैयार हो जाती. अब बांसुरी, बैलून और पिस्तौल… जो मांगेगा बच्चा, मिलेगा. मां ही मोहल्ले की औरतों के साथ बच्चों को लेकर निकलती. जाहिर है, छठ के दौरा को लेकर भी उसी का हुक्म चलता, “हट सब जना, छोटका ढोएगा.” छोटका बाढ़ नामक कस्बे में पैदा हुआ. मोहल्ला : ढेलवा गोसाईं. एक छोर पर बसते थे विचित्र देवता. जिन्हें पहले ढेला चढ़ाते थे, फिर प्रणाम करते थे. ढेला मारकर प्रणाम करने की प्रवृति वाले मनुष्यों के बीच एकाएक छठ नामक पड़ाव पर हृदय परिवर्तन की घटना घटित होती. दीवाली के दूसरे दिन से मुहल्ले की औरतें जुटने लगतीं.
एक साथ छत पर सात-आठ घरों का गेहूं सूखता. झोपड़ी वाली चनेसर मां का भी, प्रोफेसर सिन्हा की घरवाली का भी, लाय बेचने वाले सकला की महतारी का भी और सेकेंड ऑफिसर की मैडम का भी. एक दूसरे की जरूरत पूरी की जाती. बाकी वक्त में औकात की बात होती, पर इस वक्त जबरदस्त एका कायम हो जाता. गंगा किनारे से चूल्हे के लिए मिट्टी आ जाती. कोई कुएं से गगरी गगरी पानी भर देता. सब मिल जांते से गेहूं पीस लेते. सबका ठेकुआ छना जाता. तर्क यह कि इस पर्व में जो जितना काम कर ले, उसकी ताकत उतनी ही बढ़ेगी.
विचित्र यह बात भी कि ठनठनवा पहलवान और हथलपक शर्मा से लेकर चिरकुट सिंह तक-सब सतर्क हो जाते. यानी सारे उत्पाती सुआ संयमित हो सड़क बुहारते, जल से स्वच्छ करते ताकि परवैतियों को सुविधा हो. अपराध का ग्राफ शून्य पर आ ठहरता. चिबिल्ला चोर ..अरे, दीवाली में जिसने झिलमिल ललाइन के घर चोरी की थी, वो भी हाथ जोड़कर सकुला मुसहरनी के घर पहुंच गया, “चाची! कोई जरूरत हो तो…” आंख तरेर कर देखा सकुला ने, तो फल, साड़ी, सुथनी आदि-आदि से भरा टोकरा रखकर चला गया चुपचाप.
सत्यनारायण कथा बांचने के लिए पंडित ढूंढे जाते थे. शादी-ब्याह, मरनी-हरनी सबमें कौआ त्रिपाठी की चिरौरी करो, पर इस पर्व में किसी कर्मकांड की जरूरत नहीं. प्रकृति से जुड़ाव का अवसर भी कहां मिल पाता है आमदिनों में. पर इस दिन पूरा मोहल्ला एक घाट पर जाता. घाट वहां से दो-तीन मील की दूरी पर पड़ता. सब पैदल जाते. नकचढ़े सेकेंड ऑफिसर भी. दौरा ढोने का अवसर जिसे मिल जाता, वह धन्य हो जाता.
जीवन शैली बदली है अब. सब कुछ मशीनी हो गया है. लोग अलग-अलग खानों में बंट गए हैं. जड़ों से विलग हो रहे हैं सब. पर छठ के नाम पर जुड़ते हैं.
परदेश बसे बेटे का चेहरा भर जी निहार पाते हैं मां बाप. आभार प्रकट करने की प्रथा अभी कायम है प्रकाश देनेवाले के प्रति. यहां तो जन्म देने वाले को भी नकार रहे हैं लोग. दूसरी बात, घाट पर बहरा मोची की मां ने प्रसाद दे दिया तो त्रिलोचन सिंह की भृकुटी नही तनती, प्रेम से उदरस्थ कर लेते हैं ठाकुर. और कब दिखता है ऐसा. नहीं, यह विलक्षण समयावधि है महाशय. वर्गों और जातियों के बीच की खाई पाटने का वक्त! अबूझ है यह पर्व.
मेरी मां हर साल छठ करने बाढ़ वाले घर पर चली जाती थी. अंतिम दिनों में गयी तो कहीं गिर पड़ गयी. हाथ टूट गया. असमर्थ हो गयी. पर्व करना असंभव हो गया. पहले अर्घ के दिन देहरी पर बैठकर परवैतियों को आते-जाते देख रही थी करुणाद्र नयनों से. देखते-देखते लुढ़क गयी. नौकरी वाली जगह से भाग कर घर पहुंचा तो सबसे पहले मैंने झुक कर उस देहरी को प्रणाम किया. तबसे मेरे लिये छठ वही देहरी है – मां की देहरी. जीवन और मृत्यु के बीच की देहरी, जहां अब भी मां रहती है.