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कला के क्षेत्र में सर्जनात्मकता बढ़ी

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मनीष पुष्कले पेंटर गत वर्षों की तरह यह वर्ष भी अनेक नयी संभावनाएं लेकर आया था और अंततः आगामी वर्ष के लिए नये अर्थों की भूमिका भी बनाकर जा रहा है. कला की दुनिया में सार्वजनिक स्तर पर, लीक से हटकर कुछ विशेष नहीं हुआ हो, ऐसा नहीं है, और व्यक्तिगत स्तर पर नवाचार को […]

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मनीष पुष्कले
पेंटर
गत वर्षों की तरह यह वर्ष भी अनेक नयी संभावनाएं लेकर आया था और अंततः आगामी वर्ष के लिए नये अर्थों की भूमिका भी बनाकर जा रहा है. कला की दुनिया में सार्वजनिक स्तर पर, लीक से हटकर कुछ विशेष नहीं हुआ हो, ऐसा नहीं है, और व्यक्तिगत स्तर पर नवाचार को स्थान न मिला हो, ऐसा भी नहीं है.
वहीं, निजी व स्वायत्त संस्थाओं का वर्चस्व इस साल भी बना रहा और सरकारी अकादमियों की बदहाली इस साल भी यथावत रही. हम साफ तौर से देख सकते हैं कि तमाम कोलाहलों के बीच आज का समय अब उन दृष्टियों को भी पनाह देता है, जिनके पास अभेद्य को भेदने की नहीं, तो कम से कम उसे ताकने का माद्दा है. इस तरह से दृष्टि की ऐसी नयी पनाहगाहों से आज एक नव-उदारता का माहौल तो बना है, लेकिन उसके साथ मखौल की एक आधुनिक संकीर्णता भी विकसित हुई है.
सरकारी संस्थानों के पास कला के नाम पर खर्च करने के लिए भरपूर पैसा हमेशा से ही रहा है और निजी संस्थानों के पास कुछ सर्जनात्मक कर सकने के लिए दृष्टि के साथ गरीबी भी हमेशा से रही है.
पूर्व की तरह इस साल भी सरकारी कोष और निजी सोच में कोई तालमेल नहीं बैठ सका. सरकारी अकादमियों के सतही कार्यक्रम, खोखली प्रदर्शिनियां, निर्जन कला मेले और गुट शिविर लगातार होते रहे, वहीं निजी संस्थान सही मायनों में योजनाबद्ध तरीकों से अपना काम करते दिखे. दिल्ली स्थित किरण नादर संग्रहालय ने 2018 की शुरुआत विवान सुंदरम की कृतियों के पुनार्वलोकन की भव्य प्रदर्शनी से की, तो साल का अंत जनगढ़ सिंह श्याम की बेहतरीन प्रदर्शनी से किया.
कुल मिलाकर किरण नादर संग्रहालय अपने धनाढ्य वातावरण के बावजूद अपनी सुलझी नीतियों, अच्छी प्रदर्शनियों और भव्य आयोजनों के कारण पूरे साल अतुलनीय बना रहा. इसके बरक्स, रजा फाउंडेशन की सधी दृष्टि और सुधी-सादगी के साथ सुरुचिपूर्ण कार्यक्रमों को करते हुए, अपव्ययों से बचते हुए और कम खर्च से बड़े आयोजनों को करते हुए भारतीय कलाओं और उनके विमर्शों के गहरे अर्थों के साथ लगातार औचित्य में बना रहा और अन्य निजी संस्थानों को अपने साथ मिलाते हुए उन्हें भी कुछ सटीक और सार्थक करने के लिए प्रेरित करता रहा. कुल मिलाकर, व्यक्ति विशेष के नाम से पहचाने जानेवाले ये दोनों संस्थान अपनी-अपनी तरह से पूरे साल बेहतरीन काम करते रहे और साल के अंत में इन दोनों ही संस्थानों के अभूतपूर्व सामाजिक योगदान को साफ तौर से देखा जा सकता है.
एक तरह से देखा जाये, तो पूरे देश में दिल्ली ही कलाओं का केंद्र बना हुआ है. विशेषकर चित्रकला के संदर्भ में विगत कुछ वर्षों से दिल्ली ही प्रमुखता से रहा आया है, जिसका मूल कारण दिल्ली में आर्ट फेयर का होना है, जो अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित उपक्रम है.
इस साल दिल्ली की अनेकों निजी गैलरियां सालभर सक्रिय बनी रहीं और उनमे कुछ बेहद अच्छी प्रदर्शनियों का आयोजन भी होता रहा. बड़े स्तर पर देखा जाये, तो इस साल की शुरुआत दिल्ली के आर्ट फेयर से हुई तो उनका अंत कोची बिनाले से होगा. इस प्रकार से यह साल दृश्य-कलाओं से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर की दो बड़ी गतिविधियों से घिरा हुआ है. कोची बिनाले के कारण इस बार हमारा दक्षिणी प्रांत सक्रिय है और गोवा में सेरेंदिपिती आर्ट फेस्टिवल के कारण पश्चिमी प्रांत में भी थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट होती रही. मुंबई पिछले कुछ वर्षों की भांति इस वर्ष भी निष्फल, निष्क्रिय ही रहा आया, हालांकि वहां पीरामल फाउंडेशन ने एक अच्छी शुरुआत की है.
पूर्वी अंचल के भुबनेश्वर में चित्रकार जगन्नाथ पांडा ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से भुबनेश्वर आर्ट ट्रेल नाम के एक नये आयोजन को मूर्त रूप दिया है, जो आगामी वर्षों में नया पक्ष प्रस्तुत कर सकता है. वहीं, अन्य कलाकार वीर मुंशी की श्रीनगर बिनाले की महत्वाकांक्षी योजना कश्मीर की राजनीतिक आपदा के चलते कोच्ची बिनाले का हिस्सा बनी. भारत के उत्तर-पूर्वी अंचल से वहीदा अहमद वहां की नयी आवाज बन के उभरी हैं.
रजा फाउंडेशन और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सहयोग से इस साल दिल्ली में उनके द्वारा संयोजित प्रदर्शनी चर्चा में रही और साल के अंत में ब्रह्मपुत्र नदी के टापू पर होनेवाले द्विजिंग महोत्सव में वे वहां के समकालीन कलाकारों की प्रदर्शनी का संयोजन कर रही हैं. यह उत्तर-पूर्वी अंचल की सबसे बड़ी सांस्कृतिक गतिविधि है, जिसमें 25 लाख लोग शिरकत करते हैं.
इस साल हमने अपने तीन कलाकारों को भी खो दिया. वरिष्ठ चित्रकार रामकुमार, वरिष्ठ छापाकार कृष्ण रेड्डी और युवा कलाकार तुषार जोग अगले वर्ष अब सिर्फ अपनी कृतियों से ही हमारे बीच होंगे.
भारतीय समकालीन कला को इस साल मी-टू आंदोलन की आंधी ने भी झकझोरा. जिसकी आंच में कोच्ची बिनाले के संस्थापकों में से एक कलाकार रियाज कोमू को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. वरिष्ठ चित्रकार जतिन दास के अलावा इस आंदोलन की आग में दक्षिण के ही अन्य कलाकार वाल्सन कुलेरी के साथ कुछ अन्य कलाकारों का नाम भी प्रकाश में आया, लेकिन साल के अंत में भारतीय समकालीन कला के सबसे बड़े ब्रांड सुबोध गुप्ता के नाम से जैसे भूचाल ही आ गया. साल 2019 की शुरुआत जले हुए केशों से होनेवाली है.

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