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प्रयागराज अर्द्धकुंभ : आस्था और सद्भाव का संगम

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उत्सवधर्मी देश होने के नाते भारत में अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों के आयोजन की परंपरा है. इन आयोजनों से न केवल हमारे जीवन की निराशा दूर होती है, बल्कि हमें अपनी संस्कृति को जानने-समझने और उससे जुड़ने का मौका भी मिलता है. 14-15 जनवरी से तीर्थराज प्रयाग में अर्द्धकुंभ का शुभारंभ हो रहा है, जो देश […]

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उत्सवधर्मी देश होने के नाते भारत में अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों के आयोजन की परंपरा है. इन आयोजनों से न केवल हमारे जीवन की निराशा दूर होती है, बल्कि हमें अपनी संस्कृति को जानने-समझने और उससे जुड़ने का मौका भी मिलता है. 14-15 जनवरी से तीर्थराज प्रयाग में अर्द्धकुंभ का शुभारंभ हो रहा है, जो देश ही नहीं, दुनिया के लिए भी बड़े आकर्षण का केंद्र है.
कुंभ मेला
कुंभ के आयोजन को लेकर सर्वाधिक मान्य पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के बाद अमृत कलश निकलने पर उसे हासिल करने के लिए देवताओं और दानवों के बीच 12 दिनों तक युद्ध हुआ था. इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की बूंदें जिन चार स्थानाें (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर गिरीं, उसे बेहद पवित्र नगरी माना गया. बाद में उन्हीं चारों स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन शुरू हुआ.
चूंकि देव-दानव युद्ध 12 दिनों तक चला था, इसलिए महाकुंभ या पूर्ण कुंभ का आयोजन प्रति बारह वर्ष पर होता है. इसके अतिरिक्त, प्रति छह वर्ष पर हरिद्वार और प्रयाग में अर्द्धकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है. नारद पुराण, शिव पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार, कुंभ मेले का आयोजन सर्वप्रथम हरिद्वार में हुआ था.
उसके बाद प्रयाग, नासिक-त्र्यंबकेश्वर और उज्जैन में हुआ. कुंभ मेले के दौरान साधु-संत व श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान कर पूजा-अर्चना करते हैं. खगोलीय गणनाओं के मुताबिक, मकर संक्रांति के दिन इस मेले का प्रारंभ होता है.
हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर इस मेले का आयोजन चैत्र मास (मार्च-अप्रैल) में तब होता है, जब बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य और चंद्र मेष व धनु राशि में प्रवेश करते हैं.
इस मेले का आयोजन माघ महीने (जनवरी-फरवरी) में तब होता है, जब वृहस्पति मेष/ वृष राशि में और सूर्य व चंद्र मकर राशि में प्रवेश करते हैं. गंगा-यमुना व विलुप्त सरस्वती नदी के संगम स्थल प्रयाग में आयोजित होनेवाले इस कुंभ मेले का सर्वाधिक महत्व इसलिए है, क्योंकि सिर्फ इसी मेले में कल्पवास की परंपरा का पालन किया जाता है. साधु-संतों और भक्तों की उपस्थिति भी इसी कुंभ में सर्वाधिक होती है.
क्या है कल्पवास की परंपरा
कल्पवास का अर्थ है संगम के तट पर निवास कर वेद अध्ययन और ध्यान करना. कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है. यह परंपरा वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है. जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था, तब यहां के जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप किया करते थे.
गृहस्थों को अल्पकाल के लिए वेद शिक्षा के लिए ऋषियों ने कल्पवास का विधान बनाया. इसका नियम यह है कि जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर यहां आता है, वह पर्णकुटी में धैर्य, अहिंसा और भक्ति भाव से रहते हुए दिन में केवल एक बार ही भोजन करता है.
नासिक कुंभ मेला
नासिक से 38 किलोमीटर दूर त्र्यंबकेश्वर में गोदावरी नदी के तट पर भाद्रपद माह (अगस्त-सितंबर) में इस मेले का आयोजन होता है. इसे सिंहस्थ कुंभ भी कहते हैं, क्योंकि इस मेले का अायोजन तब होता है, जब वृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य व चंद्र कर्क राशि में प्रवेश करते हैं. प्रत्येक 12 वर्ष पर इस मेले का आयोजन होता है.
उज्जैन कुंभ मेला
प्रति 12 वर्ष पर उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर आयोजित होनेवाले इस मेले को भी सिंहस्थ कुंभ के नाम से जाना जाता है. वैशाख (अप्रैल-मई) माह में जब वृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य व चंद्र मेष राशि में प्रवेश करते हैं, तब इस मेले का आयोजन किया जाता है.
गंगासागर मेला
पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में स्थित है गंगासागर, जिसे मोक्षनगरी भी कहते हैं. यहीं से गंगा नदी बंगाल की खाड़ी में मिलती है. इसी जगह प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन मेला लगता है. देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु गंगा-सागर के इस संगम स्थल पर स्नान करने यहां पहुंचते हैं.
स्नान के बाद श्रद्धालु सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही तिल-चावल का दान करते हैं. इतना ही नहीं, यहां समुद्र देवता को नारियल भी अर्पित किया जाता है और मोक्ष प्राप्ति के लिए गोदान भी किया जाता है. कुंभ के बाद गंगासागर मेला श्रद्धालुओं के लिए सबसे पवित्र और धार्मिक आस्था वाला मेला है.
अंबुवासी मेला
भारत के खास त्योहारों और मेलों में से एक है अंबुवासी मेला. इस मेले का आयोजन प्रति वर्ष माॅनसून के दौरान गुवाहाटी स्थित शक्तिपीठ कामाख्या मंदिर में किया जाता है. तीन दिनों तक होनेवाले इस आयोजन के दौरान मंदिर का पट बंद रहता है. इस दौरान देवी के भक्त मंदिर के प्रांगण में एकत्रित होते हैं. चौथे दिन उन्हें मंदिर के भीतर पूजा की अनुमति दी जाती है.
तांत्रिक विधि से की जानेवाली यह पूजा इस मेले का महत्वपूर्ण अंग है. देश-विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु इस मेले में भाग लेने के लिए आते हैं. यह शक्तिपीठ योनिपीठ है, इसी कारण इस शक्तिपीठ के अलावा यह उत्सव किसी और पीठ में नहीं मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि योगी मत्स्येंद्रनाथ को इसी शक्तिपीठ में देवी के दर्शन हुए थे.
हेमिस गोम्पा मेला
हेमिस गोम्पा बौद्ध समुदाय का धार्मिक उत्सव है. यह मेला लेह से लगभग 45 किमी की दूरी पर स्थित हेमिस मठ के परिसर में प्रति वर्ष मनाया जाता है. तिब्बती चंद्र कैलेंडर के पांचवें महीने (जून-जुलाई) के 10वें दिन शुरू होनेवाला यह मेला दो दिवसीय होता है.
यह उत्सव आध्यात्मिक गुरु व तिब्बती तांत्रिक बौद्ध धर्म के संस्थापक पद्मसंभावना (गुरु ऋणपोचे) के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. इसका सबसे बड़ा आकर्षण है चाम्स द्वारा प्रस्तुत किया जानेवाला मास्क डांस. इस मेले में सुंदर हस्तकलाओं की प्रदर्शनी भी लगायी जाती है.
बेणेश्वरधाम मेला
राजस्थान के शहर डूंगरपुर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है बेणेश्वर. यहां के सोम व माही नदियों के संगम पर स्थित शिव मंदिर के परिसर में हर वर्ष माघ शुक्ल पूर्णिमा के अवसर पर मेला लगता है. इस उत्सव को आदिवासियों का महाकुंभ भी कहा जाता है.
इस मेले में राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के हजारों भील व आदिवासी समुदाय सोम और माही नदियों के संगम में स्नान करने के बाद भगवान शिव के बेणेश्वर मंदिर तथा आसपास के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं.
मेले में जादू, तमाशे और करतबों का प्रदर्शन होता है और शाम में लोक कलाकारों द्वारा संगीत-नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है. इस अवसर पर आदिवासी समुदाय अपनी पारंपरिक पोशाकों के साथ मेल में शामिल होते हैं.
पुष्कर मेला
अजमेर से लगभग 11 किमी दूर स्थित है हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पुष्कर. यहां वर्ष में दो बार कार्तिक (अक्तूबर-नवंबर) व वैशाख माह (अप्रैल-मई) के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिनों के लिए मेले का आयोजन किया जाता है. मेले के दौरान श्रद्धालु पवित्र पुष्कर झील में स्नान करते हैं और भगवान ब्रह्मा की पूजा-उपासना करते हैं.
यहां सरस्वती नदी के स्नान का सर्वाधिक महत्व है. इस मेले में बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक शामिल होते हैं. पुष्कर मेले का एक और आकर्षण पशुओं, विशेषकर ऊंटों की खरीद-बिक्री भी है. यह मेला संभवत: विश्व का सबसे बड़ा ऊंट मेला भी है.
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