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पिछले सप्ताह की कुछ जरूरी बातें

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े मामलों- राफेल सौदे और अयोध्या विवाद पर सुनवाई हुई, जिसमें राफेल मामले पर हुई सुनवाई कई दृष्टियों से बेहद महत्वपूर्ण है. आठ फरवरी, 2019 को ‘दि हिंदू’ अखबार ने राफेल पर जो पहली खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की थी, वह पिछले सप्ताह की एक और […]

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रविभूषण

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वरिष्ठ साहित्यकार

ravibhushan1408@gmail.com

पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े मामलों- राफेल सौदे और अयोध्या विवाद पर सुनवाई हुई, जिसमें राफेल मामले पर हुई सुनवाई कई दृष्टियों से बेहद महत्वपूर्ण है. आठ फरवरी, 2019 को ‘दि हिंदू’ अखबार ने राफेल पर जो पहली खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की थी, वह पिछले सप्ताह की एक और रिपोर्ट के बाद एक नयी बहस में बदल चुकी है. ‘दि हिंदू’ ने जो नये दस्तावेज प्रकाशित किये हैं, वे प्रामाणिक हैं.

सुप्रीम कोर्ट की पीठ राफेल सौदे के खिलाफ सभी याचिकाओं को खारिज करनेवाले फैसले पर दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कर रही है. ‘दि हिंदू’ अखबार द्वारा किये गये नये-नये खुलासों के बाद अब सरकार कठघरे में है. पिछले सप्ताह ‘दि हिंदू’ में प्रकाशित दस्तावेज सुप्रीम कोर्ट को नहीं दिखाया गया था. पिछले सप्ताह महान्यायवादी (अटार्नी जनरल) केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट को इन दस्तावेजों को चुराये जाने की बात कही.

दो दिन बाद 8 मार्च को उन्होंने उसका अर्थ स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ताओं ने अपने आवेदन में मूल कागजात की फोटोकॉपी का इस्तेमाल किया है. महान्यायवादी ने इसका खंडन किया कि रक्षा मंत्रालय से फाइलों की चोरी हुई है. बाद में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी वेणुगोपाल की टिप्पणी का स्पष्टीकरण किया कि फाइलों की फोटोकॉपी की गयी है.

रक्षा मंत्रालय से कागजात की चोरी हो या उसकी फोटोकॉपी करायी जाये, यह बेहद गंभीर मामला है. ‘दि हिंदू’ ने राफेल से जुड़े दस्तावेजों को प्रकाशित कर सरकार के समक्ष संकट खड़ा कर दिया है.

महान्यायवादी इन दस्तावेजों को सार्वजनिक करनेवालों को सरकारी गोपनीयता कानून और अदालत की अवमानना कानून के तहत दोषी कह रहे हैं. इस रिपोर्ट को छापने से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंचने की बात कही जा रही है और इसे ‘आपराधिक मामला’ भी बताया जा रहा है.

राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंचने की बात तो दूर है, बड़ा सवाल है कि रक्षा मंत्रालय में फाइलें सुरक्षित क्यों नहीं हैं? वेणुगोपाल ने ‘सरकारी गोपनीयता अधिनियम’ (ऑफिशियल सेक्रेट एक्ट) के तहत मुकदमा चलाने की भी बात कही है और चुराये गये दस्तावेजों को रिकॉर्ड में न लेने की बात भी कोर्ट से कही है. उन्होंने दो प्रकाशनों और एक वकील के विरुद्ध ‘आपराधिक कार्रवाई’ की भी बात कही. उसी समय 6 मार्च, 2019 को ‘दि हिंदू’ प्रकाशन समूह के चेयरमैन एन राम ने कहा था कि राफेल सौदे से जुड़े दस्तावेज जनहित में छापे गये हैं और उन्हें मुहैया करनेवाले गुप्त सूत्रों के बारे में ‘दि हिंदू’ अखबार से कोई भी व्यक्ति सूचना नहीं पा सकेगा.

दस्तावेज इसलिए प्रकाशित किये गये, क्योंकि राफेल सौदे से जुड़े ब्योरे दबाकर और छुपाकर रखे गये थे. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के अनुसार एन राम ने खुद को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से सुरक्षित माना और आरटीआई एक्ट के सेक्शन 8 (ए)(1) और 8 (2) के द्वारा भी सुरक्षित कहा.

एक ओर जनहित है, तो दूसरी ओर राष्ट्रहित और सुरक्षा हित की बात कही गयी है. प्रेस की स्वतंत्रता का प्रश्न भी प्रमुख है. खोजी पत्रकारिता आज कहीं अधिक महत्व रखती है. महान्यायवादी की टिप्पणी की 7 मार्च को ‘एडिटर्स गिल्ड’ ने निंदा की.

पत्रकारों पर स्रोत बताने का दबाव नहीं डाला जा सकता. इसी के बाद 8 मार्च को दस्तावेज के चुराये जाने के अपने पूर्व कथन के विपरीत यह कहा गया कि दस्तावेज की फोटोकॉपी की गयी है. जिस सरकारी गोपनीयता अधिनियम का हवाला दिया गया, उस पर भी हमें ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इसका भय दिखाकर पत्रकारिता को मुखर और सत्यनिष्ठ होने से रोकना है. एन राम ने बोफोर्स घोटाले का भी पर्दाफाश किया था. महान्यायवादी ने जिस ‘ऑफिशियल सेक्रेट एक्ट’ की बात कही है, वह है क्या?

सेवानिवृत्त मेजर जनरल वीके सिंह ने जर्नल ‘द युनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया’ की संख्या 575 (जनवरी-मार्च 2009) में ‘द ऑफिशियल सेक्रेट एक्ट 1923 : ए ट्रबल्ड लेगेसी’ शीर्षक से अपने लेख में विस्तार से इस एक्ट पर विचार किया है. ब्रिटिश सरकार ने अपनी सत्ता कायम रखने और अपने काले कारनामों को छुपाने के लिए यह कानून बनाया था.

स्वतंत्र भारत में अनेक ब्रिटिश कालीन कानून मौजूद हैं, जिनमें एक यह भी है. कई आयोगों और समितियों ने समय-समय पर इस कानून को समाप्त करने की सिफारिशें की थीं, पर स्वतंत्र देश की सरकारों ने इसे समाप्त नहीं किया. साल 1952 में 23 सितंबर को न्यायमूर्ति जीएस राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में गठित प्रथम प्रेस आयोग ने भी इस कानून को ‘साम्राज्यवादी परिपाटी की कड़ी’ कहा था और समाप्त करने की सिफारिश की थी. द्वितीय प्रेस आयोग के प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश केके मैथ्यू ने भी 80 के दशक के आरंभ में इसको समाप्त करने की सिफारिश की थी. नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी किसी ने भी यह कानून समाप्त नहीं किया.

यह एक औपनिवेशिक कानून है, जिसकी स्वतंत्र भारत में कोई आवश्यकता नहीं है. वेणुगोपाल ने ‘दि हिंदू’ में प्रकाशित राफेल रिपोर्ट पर इसी कानून की बात कही है.

राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में सरकार इस कानून का इस्तेमाल नहीं कर सकती. यह लोकतंत्र विरोधी कानून है. इसके जरिये प्रेस को नियंत्रित करने की पहल पूरी नहीं हो सकेगी. एन राम और ‘एडिटर्स गिल्ड’ ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है. पत्रकारों में डर पैदा नहीं किया जा सकता. देश बड़ा है. यहां निर्भीक और साहसी पत्रकार अब भी हैं.

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